नया इंडिया, 29 अगस्त 2014: सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे विधायकों और सांसदों को मंत्री बनाने के बारे में अपनी राय दी है, जिन पर गंभीर अपराधों के लिए मुकदमे चल रहे हैं। इस तरह के लोगों को मंत्री बनाना गैर-कानूनी है, ऐसा न्यायालय ने नहीं कहा है लेकिन उसने प्रधानमंत्री से उम्मीद की है कि वह इस मामले में सख्ती बरते। याने स्वयं ही ऐसे आरोपित लोगों को शपथ न दिलाए। जजों ने प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों को कोई कानूनी निर्देश नहीं दिया है बल्कि नैतिक सलाह दी है। उसने यह भी कहा है कि किसी जज पर मामूली संदेह होने पर ही उंगलियां उठने लगती हैं तो क्या वजह है कि शासन-संचालन करने वाले ऐसे मंत्रियों को हम स्वीकार कर लें, जिन पर हत्या, डकैती, ठगी, रिश्वतखोरी आदि के गंभीर मुकदमे चल रहे हैं। ऐसे सांसदों की संख्या वर्तमान संसद में 30 प्रतिशत है और वर्तमान केंद्रीय मंत्रिमंडल में 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है।
जो बात अदालत ने कही है, उसे हर सरकार सिर-माथे लगाएगी लेकिन यह पक्का जानिए कि परनाला वहीं बहेगा। क्या नरेंद्र मोदी की हिम्मत है कि वह अपने एक-तिहाई मंत्रियों को घर बिठा दे? यदि वह यही कर सकते होते तो उन्हें अपनी पार्टी का टिकिट ही क्यों देते? यहां सवाल यह भी है कि क्यों नहीं देते? और उनके जीतने पर उन्हें मंत्री क्यों नहीं बनाते? मुकदमा तो किसी के खिलाफ कुछ भी दायर किया जा सकता है। कितने मुकदमों में अपराध सिद्ध होते हैं या आरोप सही निकलते हैं? जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाए, किसी भी व्यक्ति को अपराधी कैसे घोषित किया जा सकता है?
पहली बात तो यही करने योग्य है कि अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को उम्मीदवार नहीं बनाया जाए। इस संबंध में स्पष्ट कानून बन चुका है। उसका पालन होगा ही। दूसरी बात यह कि उम्मीदवारों के मुकदमे जल्द से जल्द तय होने चाहिए। इसकी जिम्मेदारी सरकारों और पार्टियों की नहीं, अदालतों की हैं। हमारी अदालतें अभी भी अंग्रेज की फिसड्डी न्याय-व्यवस्था का अंधानुकरण करती हैं। इसीलिए जो मुकदमा दो दिन में तय हो सकता है, उसमें दो साल लगाती हैं। उसने करोड़ों मुकदमों का अंबार अपने सिर पर लगा रखा है।
यह ठीक है कि अदालत ने प्रधानमंत्री को नेक सलाह भर दी है और जजों की नियुक्ति के नए कानून से खिसियाकर कोई बदला निकालने की कोशिश नहीं की है लेकिन अदालत की राय पर अमल करना किसी भी पार्टी या नेता के लिए अव्यावहारिक है।
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