R Sahara, Dec 2003 : नेताओं की जैसी निंदा मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंग्दोह ने की है, क्या कभी कोई पदासीन व्यक्ति करता है ? ऐसी निंदा तो उच्चतम न्यायालय ने भी कभी नहीं की| माना जा सकता है कि लिंग्दोह ने अपने पद की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा और अतिरेकपूर्ण उपमा दे डाली लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा है, उसके मर्म से कौन असहमत हो सकता है ? अपवाद तो हर जगह होते हैं| राजनीति में भी हैं| नेहरू, रफी अहमद किदवई, कृपालानी, लोहिया, मधु लिमए, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग भी भारत की राजनीति में रहे हैं| इसमें शक नहीं कि अगर इस तरह के लोग आज होते तो वे अलग दिखाई पड़ते| ऐसे लोग मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भाजपा जैसे दलों में अब भी हैं जरूर, लेकिन वे दिखाई नहीं पड़ते| उनकी ऊॅंचाई इतनी नहीं कि वे दिखाई पड़ें| जो दिखाई पड़ते हैं, लिंग्दोह के मुताबिक वे केंसर की तरह हैं| यदि सचमुच वे केंसर होते तो भारत नामक शरीर अभी तक भस्मीभूत हो जाता| यूगोस्लाविया की तरह भंग हो जाता, सोवियत संघ की तरह टूट जाता या पाकिस्तान की तरह उसके दो टुकड़े हो जाते| ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि भारत निरंतर मजबूत होता चला जा रहा है| इसका मतलब यह है कि हमारे नेता केंसर नहीं हैं| केंसर से कुछ कम हैं| भारतीय समाज उन्हें हजम कर सकता है| उनके रहते हुए भी जिन्दा रह सकता है|
मूल प्रश्न यह है कि क्या हमारे नेता कहीं अंतरिक्ष से उतरे हैं ? क्या वे हमारे समाज की ही उपज नहीं हैं ? जैसा समाज, वैसे नेता ! सच्चाई तो यह है कि अब कोई नेता ही नहीं है| लोग अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि तो बन जाते हैं, नेता नहीं बन पाते| समाज की कोख सूख गई है| उसने नेता पैदा करना बंद कर दिया है| नेता कौन है ? जो नयन करे, मार्गदर्शन करे, आगे-आगे चले| लोग जिसके पीछे चलें, जिसका वे अनुसरण करें| लिंग्दोह सही हैं कि ऐसे नेता अब बिल्कुल भी दिखाई नहीं पड़ते| प्रधानमंत्री आदि बनना आसान है, नेता बनना कठिन है| किसी बनी-बनाई कुर्सी में आकर कोई बैठ जाए तो वह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन जाता है| कुर्सी खिसकी कि बैठनेवाले का दम निकल जाता है| कुर्सी में बैठने के पहले वे जितने वज़नदार रहते हैं, हटने के बाद उससे भी हल्के हो जाते हैं| बहुत कम ऐसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति होते हैं, जिन्हें पायदान पर भी बैठने की जगह मिल पाती है| इतिहास का पायदान ! उन्हें पाद-टिप्पणी में भी जगह नहीं मिलती| अमेरिका और बि्रटेन में पिछले ढाई-तीन सौ साल में पचासों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हो चुके हैं लेकिन उनमें से किन्हीं दस के नाम गिनाना भी आसान नहीं है, क्योंकि कुर्सी के साथ-साथ उनके नाम भी कचराकोट में चले जाते हैं| इसका मूल कारण यही है कि वे नेता नहीं, केवल कुर्सीभरू लोग थे| इसी तरह के कुर्सीभरू लोगों को आजकल हमारा समाज पैदा कर रहा है| कुर्सी ही उनका भगवान है| कुर्सी पाने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते है| सारी राजनीति की आत्मा कुर्सी में निवास करती है| कुर्सी पाना आजकल कितना कठिन हो गया है| नेताओं और राजनीतिक दलों को कुर्सी पाने याने चुनाव लड़ने के लिए अकूत खज़ाने की जरूरत होती है| यह जरूरत ही बंगारू, जूदेव, जोगी आदि पैदा करती है| वही राजनेता जूदेव और जोगी नहीं है, जो रंगे हाथ पकड़ाया नहीं जाता| लिंग्दोह ठीक कहते हैं कि उन्हें एक भी नेता ऐसा नहीं दिखता, जो ईमानदार हो| ईमान और राजनीति में अब 36 का ऑंकड़ा हो गया है| दोनों एक-दूसरे की तरफ पीठ किए होते हैं| एक का मॅुंह पूरब में होता है तो दूसरे का पच्छिम में| यदि कोई नेता यह दावा करे कि वह ईमानदार है तो वह दुहरा गुनाहगार होगा| एक तो बेईमानी का और दूसरा झूठ बोलने का ! इसीलिए कोई नेता लिंग्दोह को सीधी चुनौती नहीं दे सकता| विभिन्न राजनीतिक दल लिंग्दोह के खिलाफ बोल तो रहे हैं लेकिन यही बोल रहे हैं कि वे मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं| जिस मर्यादा की मॉंग लिंग्दोह कर रहे हैं, उसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा है| सबको पता है कि लिंग्दोह ने नब्ज़ पर उंगलियॉं रख दी हैं|
नब्ज़ तो बहुतों के हाथ आती रही है लेकिन इस मर्ज़ की दवा क्या है ? दवा किसी के पास नहीं है| न नेताओं के पास और न ही जनता के पास ! जनता ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है| नेता हर काम में आगे होते हैं तो भ्रष्टाचार में वे पीछे कैसे रह सकते हैं ?
सरकारी अलंकरण
कलकत्ता में बिस्मिल्लाह खान और अमज़द अली खान के बीच टक्कर हो गई| अमज़द भाई ने कह दिया कि बिस्मिल्लाह ‘भारत रत्न’ के लायक नहीं हैं| असल प्रश्न यह है कि स्वयं ‘भारत रत्न’ किस लायक है ? और उसके लघु-संस्करण ‘पद्रम-विभूषण’, ‘भूषण’ और ‘श्री’ आदि किस लायक हैं ? इन अलंकरणों को जिस तरह थोक में बॉंटा जाता है, उसके कारण लोगों को याद भी नहीं रहते कि किसे मिला और किसे नहीं ? इसके अलावा इन्हें आप अपने नाम के पहले उपाधि की तरह जोड़ भी नहीं सकते जैसे कि लोग पीएच.डी. करने के बाद ‘डॉक्टर’ कहलवाते हैं| ऐसे में इन्हें प्राप्त करके भी आप इनका क्या करेंगे ? क्या इनका अचार डालेंगे ? कुछ लोगों को गलतफहमी है कि इन अलंकरणों के मिलने से प्राप्तकर्त्ताओं की नाक लंबी हो जाती है, लेकिन उन्हें शायद यह पता नहीं कि इन अलंकरणों को प्राप्त करने के पहले प्राप्तकर्त्ताओं को इतनी नाक रगड़नी पड़ती है कि उनकी नाक ही घिस जाती है| गायब हो जाती है| नाक भी किस-किसके आगे रगड़नी पड़ती है ? दो-दो कौड़ी के मंत्रियों, नौकरशाहों और उनके दलालों के आगे ! ऐसे लोगों के आगे जिनके नाम के आगे या पीछे कोई ‘श्री’ या ‘जी’ लगाने को भी राजी नहीं| जो स्वयं किसी अलंकरण के लायक नहीं, वे देश की प्रतिभाओं को अलंकृत करते हैं| क्या खूब अलंकरण है, यह ? इसीलिए पं. हृदयनाथ कुंजरू और निखिल चक्रवर्ती जैसे लोग इन अलंकरणों को सखेद लौटा देते हैं| कुछ लोग इसलिए भी लौटा देते हैं कि उन्हें छोटा क्यों मिला और उनसे छोटों को बड़ा क्यों मिल गया ? अलंकरण भी छोटे-बड़े हैं| सरकार नहीं बता पाती कि किसी को छोटा क्यों देती है और किसी को बड़ा क्यों ? कुछ लोग इसलिए भी लौटा देते हैं कि उन्हें देर से मिला| अलंकरणों को लेकर आजकल बि्रटेन में भी बड़ा विवाद चल रहा है| महारानी और साम्राज्य के नाम पर जो अलंकरण बॉंटे जाते हैं, उन्हें ‘रेवडि़यॉं’ कहकर कई प्रसिद्घ हस्तियों ने उन्हें लौटा दिया है| ग्राहम ग्रीन, फ्रांसिस बेकन, आल्डस हक्सले और वेनेसा रेडग्रेव जैसे लोगों ने इन शाही अलंकरणें को छुआ तक नहीं| इससे यह भी सिद्घ होता है कि इस तरह के अलंकरण कुछ लोगों को नाक रगड़े बिना भी दिए जाते हैं| शायद इसीलिए दिए जाते हैं कि नाक रगड़नेवालों की संख्या में उफान आ जाए और इन अलंकरणों की साख भी बनी रहे| लेनेवालों और देनेवालों, दोनों को लगता रहे कि कोई महत्वपूर्ण चीज़ ली और दी जा रही है| सच्चाई तो यह है कि ये अलंकरण प्रतिभाओं को सम्मानित करने के लिए कम, सरकारों द्वारा स्वयं को सम्मानित करने के लिए ज्यादा दिए जाते हैं| यह शाही परम्परा जितनी जल्दी खत्म हो, उतना अच्छा लेकिन कला, साहित्य, पांडित्य, विज्ञान, समाज-सेवा आदि के लिए स्वायत्त-संस्थाऍं जो सम्मान और अलंकरण देती हैं, उनमें फिर भी कुछ न कुछ सात्विकता अवश्य होती है|
Leave a Reply