दैनिक भास्कर, 15 मार्च 2014 : लोकसभा का चुनाव-प्रचार जोरों से शुरू हो गया है। नेतागण अपनी पार्टियां और चुनाव-क्षेत्र बदल रहे हैं। चुनाव-सर्वेक्षण किसी पार्टी की जीत और किसी की हार की भविष्यवाणियां कर रहे हैं। चुनाव अब मुश्किल से सिर्फ एक माह दूर हैं, लेकिन अभी तक देश के 81 करोड़ मतदाताओं को यह पता नहीं चल पाया है कि किस पार्टी या किस नेता को वे वोट दें तो क्यों दें?
सभी पार्टियां और प्रधानमंत्री पद के सभी घोषित और अघोषित उम्मीदवार आजकल प्रचार-माध्यमों को जैसी बातें कह रहे हैं या अपनी-अपनी जन-सभाओं में जिन मुद्दों पर रोशनी डाल रहे हैं, उनका अखिल भारतीय महत्व क्या है और क्या कोई भी उम्मीदवार जनता को यह बता रहा है कि भारत को तबाह करने वाली असली समस्याएं क्या हैं और उनको वे कैसे हल करेंगे? उन समस्याओं को हल करने में आम जनता की भूमिका क्या होगी?
इन मूलभूत प्रश्नों को दरकिनार करके आजकल सभी उम्मीदवार अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहे हैं। कोई कह रहा है- मेरा सीना 56 इंच का है, कोई कह रहा है- वो तो हिटलर है (मैं भोला भंडारी हूं), कोई कह रहा है – देखो, मैंने अपने प्रांत को कैसे चमकाया है, मुझे प्रधानमंत्री बनाओ तो मैं भारत को भी चमका दूंगा। अरे, वह क्या है? सिर्फ मुख्यमंत्री ही तो है। मुख्यमंत्री तो मैं भी हूं। मैंने अपने प्रदेश को क्या कम चमकाया है? मुझे तो केंद्रीय मंत्री रहने का भी अनुभव है। भला, प्रधानमंत्री पद के लिए मुझसे बेहतर उम्मीदवार कौन हो सकता है? इस पर एक मुख्यमंत्री दूसरे मुख्यमंत्री पर टूट पड़ता है और कहता है कि देखिए इनकी हिमाकत कि ये अपनी पीठ खुद ही ठोक रहे हैं। अनिश्चय की इस बेला में चौथे विकल्प के रूप में दर्जनों नेता ताल ठोककर चुनावी मैदान में उतर पड़े हैं।
एक महिला मुख्यमंत्री दूसरी महिला मुख्यमंत्री को प्रमाण-पत्र दे रही हैं कि उनसे बढिय़ा प्रधानमंत्री तो ढूंढऩा ही मुश्किल है। उसी महिला मुख्यमंत्री की राष्ट्रीय आकांक्षाएं अचानक जाग उठीं। वह खुद प्रधानमंत्री बनने के लिए इस कदर बेताब हो गई हैं कि वे एक बूढ़े कछुए की पीठ पर सवार हो गईं। वह कछुआ तैरता, इसकी बजाय वह रामलीला मैदान की पैंदी में ही बैठ गया। खुद भी फुस्स हुआ और अपनी सवारी को भी फुस्स कर दिया। अब बताएं सवारी आगे क्या करे।
इस 16वीं लोकसभा की चुनावी-वेला में ये ही मुद्दे उछल रहे हैं। कुछ टीवी चैनल नौसिखिए नेताओं की नौटंकियों की तलाश में अपना दम फुला रहे हैं और कुछ अखबार निरक्षर नेताओं के ऐसे बयानों को जानबूझकर तूल दे रहे हैं, जिनका संबंध गांधीजी, गीता और स्वाधीनता संग्राम-जैसे गंभीर विषयों से है। विषय चाहे गंभीर हो पर वह कुछ मिनटों की खबर ही बन पाती है। नेता तो कई हैं, लेकिन उनके पास नीति कोई नहीं है। नीति के अभाव में अ-मुद्दे ही मुद्दे बन गए हैं।
क्या ये सब मुद्दे वे हैं, जो देश का भविष्य तय करेंगे? क्या आने वाली सरकार पांच साल तक अपने धोबीघाट पर इन्हीं चीथड़ों को पीटती रहेगी? देश की जनता जिन समस्याओं को लेकर बेहद परेशान है, उन पर इन पार्टियों और नेताओं ने मौन क्यों साध रखा है? इसका दोष सिर्फ उन्हीं को देना उचित नहीं है। उनकी जिम्मेदारी तो है ही, लेकिन उनसे भी ज्यादा जनता की जिम्मेदारी है कि वह इन नेताओं के सामने अपनी समस्याओं को रखें और उनका हल पूछे। पत्रकारों की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है कि वे नेताओं को घेरें और उन्हें मजबूर करें कि वे मसखरी छोड़ें और गंभीर सवालों से मुखातिब हों।
क्या आपने प्रधानमंत्री पद के किसी उम्मीदवार के मुखारविंद से कोई ऐसी आप्तवाणी सुनी, जिससे यह पता लगे कि यदि आपने उसे प्रधानमंत्री बना दिया तो देश में से वह गरीबी कैसे मिटाएगा? क्या उसे पता है कि गरीबी की परिभाषा क्या है और देश में कुल कितने गरीब हैं? क्या वह हमारे योजना आयोग के उसी कागज़ी आकड़े को सत्य मानता है कि देश में जो 25-30 रुपए रोज से कम कमाता है, सिर्फ वही गरीब है? जो 25-30 रुपए रोज कमाता है, वह गरीब नहीं है? क्या 25-30 रुपए रोज में कोई आदमी भरपेट भोजन, पर्याप्त वस्त्र, उचित निवास, आवश्यक चिकित्सा, अपने बच्चों के लिए योग्य शिक्षा और न्यूनतम मनोरंजन का इंतजाम कर सकता है?
इन सब अपरिहार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए या यों कहें कि मनुष्य की तरह जीने के लिए हर आदमी को कम से कम 100 रुपए रोज मिलने चाहिए। ऐसे लोगों की संख्या देश में लगभग 100 करोड़ है। क्या इन 100 करोड़ लोगों को राहत देने का कोई मार्ग किसी उम्मीदवार के पास है? नहीं है। हम मार्ग की बात कर रहे हैं पर आश्चर्य नहीं कि किसी ने इस बारे में सोचा तक न हो। तो क्या हम यह मानें कि सारे दलों और उनके नेताओं को सिर्फ 15-20 करोड़ के भद्रलोक की ही चिंता है, उस भद्रलोक की, जो उनकी तरह खाया-पिया-अघाया हुआ है।
गरीबी की ही तरह देश में बढ़ती हुई असमानता चिंता का बड़ा कारण है। असमानता पशुओं को तंग नहीं करती, लेकिन वह मनुष्यों का खून निचोड़ लेती है। मुक्त अर्थव्यवस्था के नाम पर एक तरफ करोड़ों रुपए रोज झपटने वाले लोग हैं और दूसरी तरफ लाखों-करोड़ों लोग रोटियों को मोहताज हैं। इस विडंबना का हल क्या है? सामाजिक क्रांति और आर्थिक प्रगति का मूलाधार है शिक्षा। इस देश में शिक्षा बिलकुल चौपट हो रही है। इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। निजी शिक्षण-संस्थाएं लूट-पाट का केंद्र बन गई हैं। अंग्रेजी की अनिवार्य थोपाई ने करोड़ों बच्चों को रट्टू तोता और मंदबुद्धि बना दिया है। क्या किसी नेता के पास कोई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति है?
इसी प्रकार भ्रष्टाचार सबसे ज्वलंत समस्या है, लेकिन वही आज वोटों के लिए दुधारु गाय बन गई है। कोई यह नहीं बता रहा कि भ्रष्टाचार-निवारण के लिए वह कौन-कौन से ठोस उपाय करेगा? हमारी चुनाव-पद्धति भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत है, लेकिन कोई नेता इसके सुधार की बात भूलकर भी नहीं करता। फिर भ्रष्टाचार दूर होगा कैसे? भारत की प्रगति और समतामूलक समाज के निर्माण में जातिवाद सबसे बड़ा रोड़ा है, लेकिन जातिगत आरक्षण के विरुद्ध कोई पार्टी जुबान तक नहीं हिलाती। सभी को पशुओं की रेवड़ की तरह थोकबंद वोट चाहिए।
लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां सामंती शिकंजे में जकड़ी हुई हैं। उनमें आंतरिक लोकतंत्र लकवाग्रस्त हो रहा है, लेकिन यही भेड़चाल अब भी जारी है। भारत को संपन्न और सबल बनाने का सपना कौन नेता या कौन दल देख रहा है? दक्षिण एशिया या बृहद भारत से ज्यादा जरखेज इलाका दुनिया में कौन-सा है? प्रधानमंत्री बनने या सरकार बनाने का चस्का तो सभी को लगा हुआ है, लेकिन भारत को महाशक्ति बनाने का संकल्प भी क्या किसी ने अभी तक प्रकट किया?
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