नवभारत टाइम्स, 15 अप्रैल 2008 : आरक्षण की क्रांति पथभ्रष्ट होने लगी थी| उच्चतम न्यायालय ने उसे बचा लिया| यदि उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण पर जो निर्णय आज दिया है, वह नहीं देता तो कार्ल मार्क्स का वर्ग-संघर्ष भारत में जात-संघर्ष के रूप में प्रगट होता| नौकरियों के आरक्षण ने पिछड़ों और अनुसूचितों का भला तो बहुत कम किया लेकिन आम लोगों में इतनी जलन पैदा कर दी कि वे आरक्षण को ही उखाड़ फेंकने पर आमादा हो गए थे| आरक्षण अयोग्यता का पर्याय बन गया था| लेकिन देश के मुठ्ठीभर जातिवादी नेताओं ने आरक्षण की कामधेनु को जमकर दुहा और उसमें से अपने लिए चांदी निचोड़ी| आरक्षण राजनीतिक निहित स्वार्थ का सबसे मजबूत किला बन गया| हर साल कुछ सौ ऊंची नौकरियों की गाजर लटकाकर करोड़ों वोटों की फसल काटनेवालों ने आरक्षण को शाश्वत बना दिया| आरक्षित पदो के लिए योग्य उम्मीदवार मिलें या नहीं, वोट तो मिलने ही हैं| उच्चतम न्यायालय का ताजा निर्णय इस सड़ॉंध को साफ करेगा| आरक्षण के नाम पर चल रहे मज़ाक को खत्म करेगा| पिछड़ों को हमने नौकरियों की बंदूक तो पकड़ा दी लेकिन उन्हें शिक्षा की बारूद नहीं दी| यह निर्णय पिछड़ों की बंदूक में बारूद भर देगा|
अब आरक्षण सिर्फ नौकरियों में ही नहीं, शिक्षा में भी लागू होगा| प्राथमिक शिक्षा तो सभी के लिए अनिवार्य है| अब केन्द्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा| पिछड़ों के बच्चे अगर पढ़ेंगे तो उन्हें नौकरियॉं अपने आप मिलेंगी| समस्त आरक्षित पद तो भरेंगे ही, पिछड़ों के सुयोग्य बच्चे शायद आरक्षण को ठुकराने भी लगेंगे| वे किसी की दया पर नहीं, अपनी योग्यता के दम पर आगे बढ़ेंगे| शिक्षा का यह आरक्षण कुछ ही समय में नौकरियों के आरक्षण को अनावश्यक बना देगा| इस अर्थ में संसद द्वारा पारित 93 वॉं संशोधन क्रांतिकारी था| उच्चतम न्यायालय ने इस संशोधन पर अपनी मुहर लगा दी है| अब तक रथ आगे था और घोड़े पीछे थे| अब घोड़े आगे होंगे और रथ पीछे होगा| इसीलिए अब रथ दौड़ेगा|
मान लें कि उच्चतम न्यायालय में यह मामला नहीं आता तो क्या होता? 93 वें संशोधन का सरकार शायद मनचाहा अर्थ लगाती और शिक्षा के आरक्षण को भी नौकरियों के आरक्षण की तरह निहित स्वार्थ का पिंजरा बना देती| पिछड़ों में भी जो मुट्टीभर जानदार और मालदार लोग हैं, उनके बच्चे शिक्षा में भी अपना कब्जा जमा लेते और जो सचमुच पिछड़े हैं, वे हाथ मलते रह जाते| अदालत ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि ऐसे मलाईदार पिछड़ों के बच्चों को सरकारी शिक्षण संस्थानों में कोई आरक्षण नहीं मिलेगा| मलाईदार तबका किसे कहेंगे, यह पहले से ही सुपरिभाषित हैं| जजों ने भी इस पर दो-टूक शब्दों में मोहर लगा दी है| मलाईदार तबके को छह श्रेणियों में बॉंटकर ऐसी छलनी लगा दी है कि अब जात के नाम पर कोई लूट नहीं मचा सकेगा| जन्म से पिछड़े होने के बावजूद अगर आप कर्म से अगड़े हैं तो अदालत की यह छलनी आपको छॉंटकर बाहर बिठा देगी| याने जाति अब वर्ग में बदल गई है| यदि आप जात से पिछड़े हैं लेकिन वर्ग से अगड़े हैं तो आपको अगड़ा ही माना जाएगा| जात नीचे और वर्ग ऊपर ! यही सामाजिक क्रांति है| आरक्षण के मूल सूत्रधार डॉ. राममनोहर लोहिया यही चाहते थे| यही ‘जात तोड़ो’ की शरूआत है|
आरक्षण निहित स्वार्थ का अड्डा न बन जाए, इस दृष्टि से अदालत ने कुछ अन्य कदम भी सुझाए हैं, जैसे हर पॉंच साल में आरक्षण-व्यवस्था का पुनरीक्षण हो, स्नातक स्तर के ऊपर आरक्षण न दिया जाए, आरक्षित सीटों के लिए तय की गई न्यूनतम अर्हता में 10 प्रतिशत से ज्यादा छूट नहीं दी जाए, आरक्षित सीटों को खाली न रखा जाए| सामान्य श्रेणी के छात्रें से भर दिया जाए आदि! उच्चतम न्यायालय इन निर्देशों के साथ-साथ यदि दो अन्य निर्देश और दे दे तो कमाल हो जाए| एक तो यह कि पिछड़ों के बारे में दिया गया उसका फैसला अनुसूचितों पर भी लागू होगा और दूसरा शिक्षा के साथ-साथ नौकरियों पर भी लागू होगा| शिक्षा और नौकरी के आरक्षण यदि समानांतर चलें तो सामाजिक न्याय का लक्ष्य पूरा होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी| यह आरक्षण सिर्फ उच्च-शिक्षा के सरकारी संस्थानों में ही नहीं, देश की प्रत्येक शिक्षा संस्था में लागू होना चाहिए| आरक्षित छात्रें को केवल प्रवेश देना ही काफी नहीं है| उन्हें समुचित सुविधाएं देना भी जरूरी हैं|
उच्चतम न्यायालय ने गैर-सरकारी और अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण दिया जाए या नहीं, इस प्रश्न पर कोई संयुक्त राय नहीं दी है| यह मामला भी अदालत के सामने आए और इस मामले पर भी अदालत ज़रा साहसिक फैसला करे तो सामाजिक न्याय का आंदोलन सचमुच परवान चढ़े| यदि देश में दो तरह की शिक्षा चलेगी तो आरक्षण लगभग निरर्थक हो जाएगा| शिक्षा के नाम पर चल रही दुकानें जितनी जल्दी बंद हों, उतना ही अच्छा ! इस उच्चतम न्यायालय के पॉंच में से तीन जजों ने प्राथमिक शिक्षा पर जोर दिया है| इन जजों ने मौलिक चिंतन किया है| वे दार्शनिकों की तरह सोच रहे हैं| वे बधाई के पात्र् हैं लेकिन वे अभी भी बुराई की जड़ तक नहीं पहुंचे हैं| उन्होंने अभी तक यह सवाल खुद से क्यों नहीं पूछा कि बी.ए. तक आते-आते 100 में से केवल 6 बच्चे ही क्यों बचते हैं? 94 बच्चे पढ़ाई से क्यों भाग खड़े होते हैं और भागनेवाले में सबसे ज्यादा अनुसूचितों और पिछड़ों के बच्चे ही क्यों होते हैं? क्या इसका मूल कारण अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई नहीं है? क्या अंग्रेजी में ही बच्चे सबसे ज्यादा फेल नहीं होते? बोझिल किताबी पढ़ाई के कोढ़ में क्या अंग्रेजी खाज का काम नहीं करती? ऊंची कक्षाओं में छात्र् विदेशी भाषाऍं पढ़ें, यह तो अच्छा है लेकिन बचपन में उनके पॉंवों में अंग्रेजी की बेडि़यॉं डालना और जवानी में उन्हें आरक्षण की बैसाखियॉं थमाना कहॉं तक न्यायसंगत है? यह काम हमारा न्यायालय नहीं करता, शिक्षा मंत्र्िगण और शिक्षा शास्त्र्ी लोग करते है| जैसे उन्होंने शिक्षा में आरक्षण की पहल की, क्या वे शिक्षा में सुधार की पहल भी करेंगे? यदि करेंगे तो अदालत उस पर मुहर अवश्य लगाएगी|
डॉ. लोहिया ने आरक्षण का आंदोलन चलाया ही इसलिए था कि हमारा समाज समतावादी बने| उसमें संभव-बराबरी या लगभग-बराबरी आ जाए| यह मामला सरकारी नौकरियों और शिक्षा से भी आगे का है| जन्मना जाति-व्यवस्था को भंग किए बिना यह लक्ष्य नहीं पाया जा सकता| जाति-व्यवस्था का सबसे सशक्त आधार है, ऊंच-नीच का भाव| यह भाव मानसिक और शारीरिक श्रम के भेद पर टिका है| मानसिक श्रम करनेवाले ऊंचे और शारीरिक श्रम करनेवाले नीचे! एक तरफ नेता, सेठ, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर आदि हैं और दूसरी तरह किसान, मजदूर, लुहार, सुतार, कुम्हार, वगैरह हैं| इनकी कीमत कम और उनकी ज्यादा| इन दोनों वर्गो के श्रमों में अगर फासला कम हो जाए तो सब लोग अपने धंधों में ही इज्जत और लज्जत पा जाऍंगे| वे नौकरियों की तरफ क्यों लपकेंगे? वे आरक्षण की दया पर जिंदा रहना क्यों चाहेंगे?
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