नया इंडिया, 22 अक्टूबर 2013 : भारत-पाक संबंधों की रेल पटरी से उतरती नजर आ रही है। पहले तो दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की न्यूयार्क-मुलाकात में बदमज़गी हुई। ‘देहाती औरत’ वाले अलंकरण को हमारे प्रधानमंत्री खून के घूंट की तरह पी गए। सोनिया और राहुल के मातहत काम करते-करते वे इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि ऐसी छोटी-मोटी बदतमीजियों का उन पर कोई असर नहीं होता। इसके बावजूद नवाज़ शरीफ से उनकी मुलाकात विशेष सार्थक नहीं रही। कोई बुनियादी बात दोनों के बीच हुई या नहीं, किसी को पता नहीं। सिर्फ इतना पता चला कि दोनों फौजों के सीमांत के महानिदेशक आपस में मिलते रहेंगे ताकि आए दिन सीमांत पर होनेवाली झड़पें मुठभेड़ों में न बदल जाएं।
यह समझौता ऐसे हुआ जैसे कि भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ यही समस्या है। और कोई समस्या है ही नहीं। न आतंकवाद कोई समस्या है, न मुक्त व्यापार, न कश्मीर, न मुक्त आवागमन! दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की भेंट का स्तर इतना सतही शायद पहले कभी नहीं रहा। दोनों तरफ के फौजी महानिदेशकों के मिलने का मुहुर्त भी अभी तक नहीं निकला है। इधर मियां नवाज़ शरीफ ने वाशिंगटन जाते समय एक नया कूटनीतिक बम फोड़ दिया है। उन्होंने ओबामा प्रशासन से अनुरोध किया है कि वह कश्मीर के मामले में दखल दे। नवाज ने यह भी दोहरा दिया है कि दोनों देश परमाणु-शक्ति संपन्न हैं अर्थात कश्मीर को लेकर परमाणु युद्ध भी हो सकता है। भारत और अमेरिका, दोनों की सरकारों ने नवाज़ के अनुरोध को बिल्कुल बेज़ा बताया है। उधर डा. मनमोहनसिंह ने मास्को पहुंचते ही पाकिस्तानी इरादों पर आक्रमण शुरु कर दिया है।
अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद पाकिस्तान वहां कहीं तालिबानी सत्ता कायम करने पर उतारु न हो जाए, यह चिंता भारत और रुस नेे साथ-साथ व्यक्त की है। ये दोनों घटनाएं अपशकुन ही हैं। इनसे संकेत ऐसे उभर रहे हैं कि मानो भारत और पाकिस्तान ने एक-दूसरे की तरफ अपनी पीठें फेर ली हैं और उनके मुंह अब दुबारा उनके शीतयुद्ध के महासाथियों की तरफ मुड़ गए हैं। समझ में नहीं आता कि नवाज़ शरीफ सरकार पर कौनसा दबाव आ गया है कि वह फिर करगिल की भाषा बोलने लगी है। 1998 में भी नवाज़ ने बिल क्लिटन से ऐसा ही अनुरोध किया था। नवाज़ शरीफ ने इस बार शपथ लेने के पहले और बाद में इतने जोरों से भारत के साथ संबंध सुधारने की घोषणा की थी कि अब उनकी यह उलटबासी एक पहेली बन रही है। क्या उनका यह रवैया इसलिए बन गया है कि वे अपने आप को एक चुना हुआ और ताकतवर प्रधानमंत्री मानते हैं और मनमोहन सिंह को वे एक नामजद प्रधानमंत्री और डूबती हुई कठपुतली मानते हैं? कुछ हद तक उनका सोच तथ्यात्मक है लेकिन तर्कसंगत नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत स्थिति चाहे जो हो, भारत इतना कमजोर नहीं है कि उसे अमेरिका या कोई अन्य देश दबा सके। अब भारत में जिस नए नेतृत्व की लहर उठ रही है, उससे सार्थक संवाद कायम करने के लिए मियां नवाज़ को काफी संयम से काम लेना होगा। दोनों देशों को तीसरे देशों को आवाज़ देने की बजाय आपस में सीधी बात करनी होगी। तभी सबंध सुधरेंगे।
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