दैनिक भास्कर, 22 जनवरी 2008 : अमेरिका के राष्ट्रपति बुश की मति मारी गई है, क्या? एराक और अफगानिस्तान के दलदल में से वे अभी तक निकल नहीं पाए हैं और अब वे ईरान की खाई में कूदने को तैयार हैं| अपनी हुकूमत के आखिरी साल में उन्हें क्या सूझी कि वे पश्चिम एशिया के दौरे पर निकल पड़े| पिछले हफ्ते उन्होंने कुवैत, अबूधाबी, सउदी अरब, मिस्र और बहरीन का दौरा किया| इस दौरे में उन्हें लोकतंत्र् का दौरा पड़ गया| लगभग हर देश में उन्होंने लोकतंत्र् का उपदेश झाड़ा| उन्हें पता है कि जिन देशों में वे घूम रहे थे, वहॉं अपने-अपने ढंग की शासन व्यवस्था है| उन्हें अमेरिकी लोकतंत्र् रास नहीं आता| वे अमेरिका की नकल क्यों करें? फिर भी बुश लोकतंत्र् का राग अलापते रहे| यह राग इतना बेसुरा था कि किसी भी मेज़बान देश ने अपने मेहमान के सुर में सुर नहीं मिलाया| मिस्र के अलावा सभी देशों में राजशाही है| वहॉं न कोई सार्वभौम सांसद हैं, न नियमित चुनाव हैं, न सुनिश्चित मानव अधिकार हैं और न ही नर-नारी समता है| मिस्र में भी 27 साल से हुस्नी मुबारक का एकछत्र् राज चल रहा है| मज़ा यह है कि ये ही राष्ट्र अमेरिका के खासमखास हैं| क्यों है, यह बुश नहीं बताऍंगे| अगर ये सब राष्ट्र लोकतंत्र्-विरोधी हैं तो अमेरिका इनसे इतने अधिक घनिष्ठ संबंध क्यों गॉंठे हुए है और अगर इनकी घनिष्ठता इतनी जरूरी है तो फिर इन पर लोकतंत्र् के उपदेश झाड़ने की क्या जरूरत है| दूसरे शब्दों में बुश ने पश्चिम एशिया की इस कूटनीतिक यात्र को मज़ाक-यात्र में बदल दिया है| अगर उन्हें किसी मुस्लिम लोकतांत्रिक देशों में ही जाना था तो उन देशों में जाते, जो लोकतंत्र् की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे फलस्तीन, ईरान, एराक, पाकिस्तान, लेबनान, मलेशिया आदि !
सच्चाई तो यह है कि बुश के लिए लोकतंत्र् तो एक बहाना भर है| अमेरिका ने दुनिया में जितने तानाशाहों की परवरिश की है, दुनिया के अन्य किसी राष्ट्र ने नहीं की है| बुश की पश्चिम एशिया की यात्र का उद्देश्य बहुत ही संकीर्ण था| उनका एकमात्र् लक्ष्य ईरान विरोधी माहौल खड़ा करना था| इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने जो आड़ ली, वह भी क्या आड़ है? लोकतंत्र् की आड़ गिर गई तो उन्होंने इस्त्रइल-फलस्तीन विवाद की चिलमन पकड़ ली| पूरे एक हफ्ते वे इसी चिलमन से लगे बैठे रहे| भला, बुश से कोई पूछे कि अमेरिका फलस्तीन विवाद को हल कैसे करवा सकता है? विवाद की असली जड़ तो वह खुद ही है| यदि अमेरिका खुद को मंच पर से हटा लेता तो क्या यह विवाद 60 साल तक खिंच सकता था? इस्त्रइल जैसा छोटा देश दो दर्जन अरब राष्ट्रों की छाती पर पॉंव रखकर कब तक खड़ा रह सकता था? फलस्तीन के लोकपि्रय सत्तारूढ़ दल हमास की सरकार को अमेरिका ने अभी तक मान्यता नहीं दी है| वह उसे ‘आतंकवादियों का गिरोह’ कहता है और इस्त्रइल भी उससे बात करने को तैयार नहीं है| सिर्फ फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास, जो नाम मात्र् के नेता हैं, वे कैसे फलस्तीन को सार्वभौम राष्ट्र बना सकते हैं| उनके द्वारा किए गए समझौते या दिए गए आश्वासनों को लागू कौन करेगा? अगर फलस्तीनियों से ज़रा भी सहानुभूति बुश के दिल में होती तो वे फलस्तीन जाते| वे सिर्फ इस्राइल क्यों गए? क्या कोई निष्पक्ष मध्यस्थ इस तरह की गंभीर भूल भी करता है? बुश ने इस्राइल में तीन दिन बिताए लेकिन उनका शांति का रथ तीन इंच भी आगे नहीं बढ़ा| हमास के नेता इस्माइल हनीएह ने ठीक ही कहा कि बुश ने इस्राइल जाकर यह बता दिया कि वे दरअसल किसके साथ हैं| सच्चाई तो यह है कि बुश ने फलस्तीन के मुद्दे को भी ईरान के खिलाफ इस्तेमाल किया| उन्होंने इस्त्रइली प्रधानमंत्री एहुद ओल्मर्ट से ईरान के खिलाफ जबर्दस्त ज़हर उगलवाया| ओल्मर्ट ईरान को खुले-आम धमकी देने से भी बाज़ नहीं आए| जैसे 1981 में इसा्रइल ने एराक के ओसीराक परमाणु संयंत्र् पर हमला बोल दिया था, वैसे ही वह ईरान के परमाणु ठिकानों को ध्वस्त कर सकता है, ऐसी धमकियॉं बुश की इस्राइल-यात्र से निकलती रहीं| इस्राइलियों ने बुश के जेरूशलम रहते हुए ही उस रपट को भी रद्द कर दिया, जिसमें अमेरिकी गुप्तचर विभाग ने साफ़-साफ़ कहा था कि ईरान ने 2003 से ही अपना फौजी परमाणु कार्यक्रम रोक दिया है|
बुश की इस पश्चिम एशिया यात्र ने ईरान के अतिवादियों के हाथ मजबूत किए हैं| जैसे अफगानिस्तान के संदर्भ में मैं अक्सर कहता हूं कि बुश और उसामा बिन लादेन जुड़वॉं भाई हैं, ईरान के संदर्भ में मुझे कहना पड़ रहा है कि बुश अहमदीनिजाद के बड़े भाई हैं| बुश ने महमूद अहमदीनिजाद को हीरो बना दिया है| बुश का अतिवाद ही अहमदीनिजाद की लोकपि्रयता का मूल आधार है| अगर बुश अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं होते तो 2005 में अहमदीनिजाद ईरान के राष्ट्रपति का चुनाव शायद ही जीत पाते| अब भी मार्च में होनेवाले ईरानी चुनावों में अगर अहमदीनिजाद जीतेंगे तो उसका श्रेय बुश को ही होगा| बुश की ईरान-विरोधी रणनीति बिल्कुल नाकाम हो गई है| अरब भूमि के शिया और सुन्नी लोगों को लड़ाने की साजिश का पर्दा उघड़ गया है| सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात जैसे राष्ट्रों ने बुश को साफ़-साफ़ कह दिया है कि वे ईरान के साथ अच्छे पड़ौसी के संबंध बनाकर रखना चाहते हैं और उन्हें ईरान से कोई खतरा नहीं है| (अगर इस्राइल को कोई खतरा है तो वह अपनी जाने) ! वास्तव में अमेरिका को भी ईरान से कोई खतरा नहीं है| इस्राइल के खतरे को अपना खतरा मानकर अमेरिका सारा गणित बैठा रहा है| उसने सउदी अरब को 20 बिलियन डॉलर के ताजातरीन हथियार बेचने की पेशकश की है| इतना ही नहीं, वह अपनी मूर्खता के कारण इन अरब राष्ट्रों के हाथ किसी और ढंग से भी मजबूत कर रहा है| बुश की यात्र के एक हफ्ते पहले अमेरिका ने होरमुज़ के मुहाने पर अमेरिकी और ईरानी जलसेनाओं में भिड़त की ऐसी अफवाह फैलाई कि तेल के दाम आसमान छूने लगे| जो तेल का एक बेरल 50 डॉलर का बिकना चाहिए, अब 100 डॉलर में बिक रहा है| अकेले ईरान की सालाना आमदनी में 20 बिलियन डॉलर का इज़ाफा हो गया है| ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों को यह इज़ाफा चूर-चूर कर देगा| पता नहीं क्यों, बुश प्रशासन ईरान के प्रति आत्मघाती नीति अपनाए हुए है| शिया ईरान पर हमला बोलकर अमेरिका एराक के उन शिया लोगों को भी अपने विरूद्घ कर लेगा, जो सद्दाम-विरोधी हैं| यदि अमेरिका एराक में सफल होना चाहता है तो क्या उसे ईरान से शांति-वार्ता नहीं चलानी चाहिए? ईरान के साथ तनाव घट जाए तो अमेरिका को उसका सीधा फायदा अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भी मिलेगा| लेबनान तथा अन्य अरब देशों में बसे लाखों शिया लोगों को दुश्मन बनाकर अमेरिका सुन्नी जगत से अपनी दोस्ती नहीं बढ़ा सकता| एक ताजा सर्वेक्षण से भी पता चला है कि सुन्नी राष्ट्रों के 80 प्रतिशत लोग ईरान को नहीं, इस्राइल को खतरा मानते है| ‘फूट डालो और राज करो’ की यह बुश की नीति पश्चिम एशिया में फुस हो गई है|
पश्चिम एशिया में बुश हुए फुस !
दैनिक भास्कर, 22 जनवरी 2008 : अमेरिका के राष्ट्रपति बुश की मति मारी गई है, क्या? एराक और अफगानिस्तान के दलदल में से वे अभी तक निकल नहीं पाए हैं और अब वे ईरान की खाई में कूदने को तैयार हैं| अपनी हुकूमत के आखिरी साल में उन्हें क्या सूझी कि वे पश्चिम एशिया के दौरे पर निकल पड़े| पिछले हफ्ते उन्होंने कुवैत, अबूधाबी, सउदी अरब, मिस्र और बहरीन का दौरा किया| इस दौरे में उन्हें लोकतंत्र् का दौरा पड़ गया| लगभग हर देश में उन्होंने लोकतंत्र् का उपदेश झाड़ा| उन्हें पता है कि जिन देशों में वे घूम रहे थे, वहॉं अपने-अपने ढंग की शासन व्यवस्था है| उन्हें अमेरिकी लोकतंत्र् रास नहीं आता| वे अमेरिका की नकल क्यों करें? फिर भी बुश लोकतंत्र् का राग अलापते रहे| यह राग इतना बेसुरा था कि किसी भी मेज़बान देश ने अपने मेहमान के सुर में सुर नहीं मिलाया| मिस्र के अलावा सभी देशों में राजशाही है| वहॉं न कोई सार्वभौम सांसद हैं, न नियमित चुनाव हैं, न सुनिश्चित मानव अधिकार हैं और न ही नर-नारी समता है| मिस्र में भी 27 साल से हुस्नी मुबारक का एकछत्र् राज चल रहा है| मज़ा यह है कि ये ही राष्ट्र अमेरिका के खासमखास हैं| क्यों है, यह बुश नहीं बताऍंगे| अगर ये सब राष्ट्र लोकतंत्र्-विरोधी हैं तो अमेरिका इनसे इतने अधिक घनिष्ठ संबंध क्यों गॉंठे हुए है और अगर इनकी घनिष्ठता इतनी जरूरी है तो फिर इन पर लोकतंत्र् के उपदेश झाड़ने की क्या जरूरत है| दूसरे शब्दों में बुश ने पश्चिम एशिया की इस कूटनीतिक यात्र को मज़ाक-यात्र में बदल दिया है| अगर उन्हें किसी मुस्लिम लोकतांत्रिक देशों में ही जाना था तो उन देशों में जाते, जो लोकतंत्र् की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे फलस्तीन, ईरान, एराक, पाकिस्तान, लेबनान, मलेशिया आदि !
सच्चाई तो यह है कि बुश के लिए लोकतंत्र् तो एक बहाना भर है| अमेरिका ने दुनिया में जितने तानाशाहों की परवरिश की है, दुनिया के अन्य किसी राष्ट्र ने नहीं की है| बुश की पश्चिम एशिया की यात्र का उद्देश्य बहुत ही संकीर्ण था| उनका एकमात्र् लक्ष्य ईरान विरोधी माहौल खड़ा करना था| इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने जो आड़ ली, वह भी क्या आड़ है? लोकतंत्र् की आड़ गिर गई तो उन्होंने इस्त्रइल-फलस्तीन विवाद की चिलमन पकड़ ली| पूरे एक हफ्ते वे इसी चिलमन से लगे बैठे रहे| भला, बुश से कोई पूछे कि अमेरिका फलस्तीन विवाद को हल कैसे करवा सकता है? विवाद की असली जड़ तो वह खुद ही है| यदि अमेरिका खुद को मंच पर से हटा लेता तो क्या यह विवाद 60 साल तक खिंच सकता था? इस्त्रइल जैसा छोटा देश दो दर्जन अरब राष्ट्रों की छाती पर पॉंव रखकर कब तक खड़ा रह सकता था? फलस्तीन के लोकपि्रय सत्तारूढ़ दल हमास की सरकार को अमेरिका ने अभी तक मान्यता नहीं दी है| वह उसे ‘आतंकवादियों का गिरोह’ कहता है और इस्त्रइल भी उससे बात करने को तैयार नहीं है| सिर्फ फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास, जो नाम मात्र् के नेता हैं, वे कैसे फलस्तीन को सार्वभौम राष्ट्र बना सकते हैं| उनके द्वारा किए गए समझौते या दिए गए आश्वासनों को लागू कौन करेगा? अगर फलस्तीनियों से ज़रा भी सहानुभूति बुश के दिल में होती तो वे फलस्तीन जाते| वे सिर्फ इस्राइल क्यों गए? क्या कोई निष्पक्ष मध्यस्थ इस तरह की गंभीर भूल भी करता है? बुश ने इस्राइल में तीन दिन बिताए लेकिन उनका शांति का रथ तीन इंच भी आगे नहीं बढ़ा| हमास के नेता इस्माइल हनीएह ने ठीक ही कहा कि बुश ने इस्राइल जाकर यह बता दिया कि वे दरअसल किसके साथ हैं| सच्चाई तो यह है कि बुश ने फलस्तीन के मुद्दे को भी ईरान के खिलाफ इस्तेमाल किया| उन्होंने इस्त्रइली प्रधानमंत्री एहुद ओल्मर्ट से ईरान के खिलाफ जबर्दस्त ज़हर उगलवाया| ओल्मर्ट ईरान को खुले-आम धमकी देने से भी बाज़ नहीं आए| जैसे 1981 में इसा्रइल ने एराक के ओसीराक परमाणु संयंत्र् पर हमला बोल दिया था, वैसे ही वह ईरान के परमाणु ठिकानों को ध्वस्त कर सकता है, ऐसी धमकियॉं बुश की इस्राइल-यात्र से निकलती रहीं| इस्राइलियों ने बुश के जेरूशलम रहते हुए ही उस रपट को भी रद्द कर दिया, जिसमें अमेरिकी गुप्तचर विभाग ने साफ़-साफ़ कहा था कि ईरान ने 2003 से ही अपना फौजी परमाणु कार्यक्रम रोक दिया है|
बुश की इस पश्चिम एशिया यात्र ने ईरान के अतिवादियों के हाथ मजबूत किए हैं| जैसे अफगानिस्तान के संदर्भ में मैं अक्सर कहता हूं कि बुश और उसामा बिन लादेन जुड़वॉं भाई हैं, ईरान के संदर्भ में मुझे कहना पड़ रहा है कि बुश अहमदीनिजाद के बड़े भाई हैं| बुश ने महमूद अहमदीनिजाद को हीरो बना दिया है| बुश का अतिवाद ही अहमदीनिजाद की लोकपि्रयता का मूल आधार है| अगर बुश अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं होते तो 2005 में अहमदीनिजाद ईरान के राष्ट्रपति का चुनाव शायद ही जीत पाते| अब भी मार्च में होनेवाले ईरानी चुनावों में अगर अहमदीनिजाद जीतेंगे तो उसका श्रेय बुश को ही होगा| बुश की ईरान-विरोधी रणनीति बिल्कुल नाकाम हो गई है| अरब भूमि के शिया और सुन्नी लोगों को लड़ाने की साजिश का पर्दा उघड़ गया है| सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात जैसे राष्ट्रों ने बुश को साफ़-साफ़ कह दिया है कि वे ईरान के साथ अच्छे पड़ौसी के संबंध बनाकर रखना चाहते हैं और उन्हें ईरान से कोई खतरा नहीं है| (अगर इस्राइल को कोई खतरा है तो वह अपनी जाने) ! वास्तव में अमेरिका को भी ईरान से कोई खतरा नहीं है| इस्राइल के खतरे को अपना खतरा मानकर अमेरिका सारा गणित बैठा रहा है| उसने सउदी अरब को 20 बिलियन डॉलर के ताजातरीन हथियार बेचने की पेशकश की है| इतना ही नहीं, वह अपनी मूर्खता के कारण इन अरब राष्ट्रों के हाथ किसी और ढंग से भी मजबूत कर रहा है| बुश की यात्र के एक हफ्ते पहले अमेरिका ने होरमुज़ के मुहाने पर अमेरिकी और ईरानी जलसेनाओं में भिड़त की ऐसी अफवाह फैलाई कि तेल के दाम आसमान छूने लगे| जो तेल का एक बेरल 50 डॉलर का बिकना चाहिए, अब 100 डॉलर में बिक रहा है| अकेले ईरान की सालाना आमदनी में 20 बिलियन डॉलर का इज़ाफा हो गया है| ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों को यह इज़ाफा चूर-चूर कर देगा| पता नहीं क्यों, बुश प्रशासन ईरान के प्रति आत्मघाती नीति अपनाए हुए है| शिया ईरान पर हमला बोलकर अमेरिका एराक के उन शिया लोगों को भी अपने विरूद्घ कर लेगा, जो सद्दाम-विरोधी हैं| यदि अमेरिका एराक में सफल होना चाहता है तो क्या उसे ईरान से शांति-वार्ता नहीं चलानी चाहिए? ईरान के साथ तनाव घट जाए तो अमेरिका को उसका सीधा फायदा अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भी मिलेगा| लेबनान तथा अन्य अरब देशों में बसे लाखों शिया लोगों को दुश्मन बनाकर अमेरिका सुन्नी जगत से अपनी दोस्ती नहीं बढ़ा सकता| एक ताजा सर्वेक्षण से भी पता चला है कि सुन्नी राष्ट्रों के 80 प्रतिशत लोग ईरान को नहीं, इस्राइल को खतरा मानते है| ‘फूट डालो और राज करो’ की यह बुश की नीति पश्चिम एशिया में फुस हो गई है|
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