R Sahara, 2 Nov. 2003 : पांडुरंग शास्त्री आठवले को गुजरात और महाराष्ट्र ने जितने नजदीक से जाना है, भारत के अन्य प्रांतों ने नहीं जाना लेकिन वे ऐसे महापुरुष थे, जिन्हें भारत ही नहीं, सारे संसार को जानना चाहिए था| पिछले पचास वर्षों में उन्होंने खास तौर से गुजरात और महाराष्ट्र में जैसा सामाजिक परिवर्तन किया है, उसकी तुलना अगर किसी से हो सकती है तो वह महर्षि दयानंद और महात्मा गॉंधी के कार्य से ही हो सकती है| अनेक नोबेल पुरस्कार भी उनका सम्मान करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, हालॉंकि उन्हें नोबेल के समकक्ष टेम्पलटन और मेगासेसे आदि सम्मान मिल चुके हैं| पिछले कुछ वर्षों से वे अस्वस्थ थे| उनके निधन से राष्ट्र के एक महान मनीषी, वक्ता और कर्मयोगी का अवसान हो गया है|
पांडुरंगजी के पास समर्पित कार्यकर्ताओं की इतनी बड़ी फौज थी कि यदि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती तो राष्ट्र का सर्वोच्च पद उन्हें कभी का मिल गया होता| उन्होंने अपने लाखों कार्यकर्ताओं को अध्यात्म के मार्ग पर चलाया और उनके लौकिक जीवन में भी चमत्कारी परिवर्तन कर दिया| उनका मूल-मंत्र था – भक्ति ही शक्ति है| वे कहते थे कि हर मनुष्य के हृदय में भगवान बैठा है| यदि इस ईश्वरीय उपस्थिति को आप खुद में और दूसरों में भी महसूस करें तो दुष्कर्मों से स्वत: ही छुटकारा मिल जाएगा| इस मोटी-सी बात को वे बहुत ही प्रभावशाली तर्कों, दृष्टांतों और अपने आचरण से सिद्घ करते थे| इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के पश्चिमी तट पर बसे लाखों मछुआरों, अछूतों, अपराधी-जातियों, किसानों और कुछ शहरियों के निजी और सामाजिक जीवन में जबर्दस्त क्रांति हो गई| हजारों गॉंव स्वावलंबी हो गए, ब्राह्रमणों और शूद्रों में समता स्थापित हो गई, सदियों से अपराधजीवी रहे लोग सभ्य नागरिक बन गए| इतना ही नहीं, मज़हब की संकीर्ण सीमाऍं भी विस्तीर्ण हो गईं| गुजरात के अनेक गॉंवों में मैंने अपनी ऑंखों से देखा कि ‘दादा’ (पांडुरंगजी) के अमृतालयम्र में अनेक मुसलमान और ईसाई त्रिकाल-संध्या कर रहे हैं| सैकड़ों हरिजन परिवारों को ईषोपनिषद् का समवेत पाठ करते हुए मैंने जैसे ‘स्वाध्याय-परिवार’ में देखा, वैसे किसी गॉंधी आश्रम या विनोबा शिविर या आर्यसमाज में भी नहीं देखा| पिछले दस वर्षों में दादा के कार्यक्रमों को देखने के लिए मैं कई बार महाराष्ट्र और गुजरात गया| हर बार दूर-दराज़ के गॉंवों में एक सप्ताह रहा| उनके अनेक कार्यक्रमों को मैंने शिकागो, न्यूयॉर्क और लंदन में भी देखा| उनके अनेक व्याख्यान सुने – हिन्दी, गुजराती और मराठी में| उनकी सभाओं में मैंने भीड़ नहीं, भक्त-समूह जितनी बड़ी संख्या में देखा, उतना किसी प्रधानमंत्री की सभा में भी नहीं देखा 15-20 लाख लोगों का छह-छह घंटे जमे रहना, एक साथ मंत्र-पाठ करना और बिना किसी शोरगुल और धक्कामुक्की के विदा होना अपने आप में अजूबा था| इस तरह की चार-पॉंच एतिहासिक सभाओं में ‘दादा’ ने मुझे भी अपने साथ बैठने और बोलने का अवसर दिया| उनके और मेरे बीच विलक्षण सम्वाद और अद्रभुत आत्मीयता का सेतु बन गया था| उनकी पत्नी कहती हैं कि दादा का मन जब कभी उदास होने लगता था तो वे कहते थे कि मुझे वैदिकजी के उस भाषण का वह कैसेट सुनवाओ, जो स्वाध्याय के बारे में उन्होंने इंदौर में दिया था| वे चाहते थे कि स्वाध्याय-आंदोलन में मैं प्रमुख भूमिका निभाउॅं लेकिन एक तो अवतारवाद और मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं होने और दूसरा स्वाध्याय आंदोलन के शीर्ष कार्यकर्ताओं में फैले ईर्ष्या-द्वेष के कारण मैंने एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखना ही ठीक समझा| ‘दादा’ के बाद इस महान आंदोलन का संचालन उनकी भतीजी जयश्री तलवलकर ही करेंगी| जयश्री को लेकर कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं ने तरह-तरह के प्रवाद और विवाद छेड़ दिए हैं| ‘दादा’ ने कुछ माह पहले अश्रुधारा बहाते हुए मुझे अपना दुखड़ा सुनाया था| आशा है, ‘दादा’ के महाप्रयाण के बाद अब ये विवाद शांत होंगे और ‘स्वाध्याय परिवार’ के सभी नए-पुराने कार्यकर्ता एकजुट होंगे|
के.आर.मल्कानी
राजनीति के वैचारिक पक्षों में जिन लोगों की गहरी रुचि है, वे के.आर. मल्कानी को न जानें, यह नहीं हो सकता| उन्हें इसलिए याद नहीं रखा जाएगा कि वे पांडिचेरी के राज्यपाल थे, या राज्यसभा के सदस्य थे या भाजपा के उपाध्यक्ष थे बल्कि इसलिए याद रखा जाएगा कि वे ‘आर्गेनाइज़र’ और ‘मदरलैंड’ के सम्पादक थे| ‘एडिटर्स गिल्ड’ में अक्सर उनसे मुलाकात हो जाया करती थी| ‘आर्गेनाइज़र’ के जरिए मल्कानीजी ने जनसंघ, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को मुखर करने का कार्य अत्यंत कुशलतापूर्वक किया| उनके विचार इतने तीखे, तर्क इतने मारक और शैली इतनी तीव्र होती थी कि विरोधी तिलमिला उठते थे| राजनीतिक दलों के मुखपत्रों के संपादकों को जैसा होना चाहिए, मल्कानीजी वैसे ही थे| वे केवल अंग्रेजी में ही लिखते थे| उन दिनों श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बलराज मधोक के अलावा जनसंघ में बहुत कम नेता ऐसे थे, जो अंग्रेजी में लिख सकते थे| इसीलिए देश के सभी अ-हिंदीभाषी नेतागण के.आर. मल्कानी के लेखों से ही जनसंघ-विचारधारा का परिचय पाते थे| मल्कानीजी अंग्रेजी के पत्रकार थे लेकिन वे हिन्दी के दृढ़ पक्षधर थे| 1966 में जब स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ ने हिन्दी में शोधपत्र लिखने के कारण मुझे निकाल बाहर किया तो डॉ. राममनोहर लोहिया और मधु लिमए ने संसद में हंगामा खड़ा कर दिया| समस्त अंग्रेजी अखबारों ने मेरे विरुद्घ जमकर विष-वमन किया लेकिन ‘आर्गेनाज़र’ में मल्कानीजी ने मेरे समर्थन में दो-टूक टिप्पणी लिखी| बाद में उन्होंने मध्य एशिया पर मुझसे कुछ लेख भी लिखवाए| लेख लेने के लिए उनके सहायक संपादक श्री लालकृष्ण आडवाणी मेरे पास सप्रू हाउस आया करते थे| पॉंच साल पहले 40 सांसदों का एक प्रतिनिधि मंडल पाकिस्तान गया था| उनमें से शायद कोई भी सांसद पहले पाकिस्तान नहीं गया था| मुझे बलराम जाखड़जी और मल्कानीजी ने साथ चलने के लिए कहा| सप्ताह भर के प्रवास में शायद मल्कानीजी के साथ सबसे अधिक वार्तालाप हुआ, क्योंकि वैसा उन्हीं के साथ हो सकता था| सहमति, असमति, सर्वसम्मति ! बेनज़ीर भुट्टो से मेरी पुरानी मित्रता देखकर मल्कानीजी चुटकी लेने से बाज नहीं आते | बेनजीर के सीनेटर एतजाज हसन ने मुझे एक पुस्तक भेंट की, जिसमें पाकिस्तान का इस्लाम-पूर्व का इतिहास था| मल्कानीजी ने वह पुस्तक मुझसे लगभग छीन ही ली| वह पुस्तक बस में ही खो गई| शायद पिछले साल उन्होंने मुझे एक पुस्तक भिजवाई थी, ‘सिंध स्टोरी’| फोन करके उन्होंने यह कहा कि उस पर उन्हें एक निर्मम पांडित्यपूर्ण समीक्षा भी चाहिए और यह भी पूछा कि एतजाज की किताब का हिसाब चुकता हुआ कि नहीं?
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