R Sahara, 30 Oct 2003 : पाकिस्तानी कूटनीति की हालत कितनी खस्ता हो गई है, इसका पता इसी बात से चलता है कि भारत के शांति-प्रस्तावों का जवाब देने में उसे आठ दिन लग गए| टेलिविज़न के ज़माने में जवाबी हमला होने में जबकि आठ घंटे भी नहीं लगते, आखिर आठ दिन लगने का कुछ खास मतलब भी है या नहीं? आठ दिन लगे, इसका सबसे गहरा अर्थ यह है कि भारतीय प्रस्तावों ने पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान को चक्कर में डाल दिया| इस्लामाबाद को यकायक यह पल्ले ही नहीं पड़ा कि क्या रद्रद करें और क्या स्वीकार करें| सच्चाई तो यह है कि भारतीय विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा के बारह प्रस्तावों में से वह एक भी रद्द नहीं कर सका| ज्यादा से ज्यादा उसने यही किया कि कुछ प्रस्तावों को उसने क्रीम-पाउडर लगा दिया, कुछ में नमक-मिर्च छिड़क दिया और एकाध में टंगड़ी मार दी|
जिसमें टंगड़ी मारी, उसे पहले लें| श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस चालू करना उसे स्वीकार है लेकिन पाकिस्तान चाहता है कि नियंत्रण-रेखा के आर-पार जानेवाले यात्री भारत और पाकिस्तान के पारपत्र पर नहीं, संयुक्तराष्ट्र के पारपत्र या दस्तावेज़ या पहचान-पत्र पर यात्रा करें| इसका मतलब यह हुआ कि कश्मीर अन्तरराष्ट्रीय मसला है और संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव अब भी वैध है याने जनमत-संग्रह का आग्रह अब भी बना हुआ है| पाकिस्तान की यह दृष्टि सर्वथा कल्पनालोकीय है, यथार्थवादी नहीं| क्या यह यथार्थ नहीं कि कश्मीर के दो टुकड़े हो गए हैं ? और क्या यह भी सत्य नहीं कि एक टुकड़ा भारत के पास है और दूसरा टुकड़ा पाकिस्तान के पास है ? पाकिस्तानी सत्ताधीशों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि इन दोनों कश्मीरों के नागरिक जब भी विदेश-यात्रा करते हैं तो क्या वे संयुक्तराष्ट्र के पारपत्र पर करते हैं ? अब्दुल गनी लोन जैसे बड़े कश्मीरी नेता जब पाकिस्तान गए थे तो उनके पास संयुक्तराष्ट्र का पहचान-पत्र था या भारतीय पारपत्र ? जब दोनों कश्मीरों के नेता भारत और पाकिस्तान आते-जाते हैं तो वे अपने-अपने देश का पारपत्र रखते हैं तो अब अगर वे एक-दूसरे के कश्मीर में जाते समय अपने-अपने देश का ही पारपत्र रखें तो इसमें गलत क्या है ? क्या इसका अर्थ यह होगा कि कश्मीर में पूर्ण शांति हो गई है और अब उस पर कोई विवाद नहीं रह गया है ? पाकिस्तान का यह सोचना बिल्कुल गलत है| दोनों तरफ के कश्मीरी भारतीय और पाकिस्तानी पारपत्रों का इस्तेमाल शुरू से कर रहे हैं, चुनावों में मतदान कर रहे हैं, सरकारी संस्थानों में नौकरियॉं कर रहे हैं, नागरिकों के समस्त अधिकारों और कर्त्तव्यों से मंडित हैं| ऐसी हालत में उन्हें एक-दूसरे के हिस्सों में जाने देने से रोकना और सिर्फ इस बहाने से रोकना कि उनके पास संयुक्तराष्ट्र दस्तावेज़ नहीं है, शुद्घ अमानवीय नीति है| इस नीति का विरोध दोनों कश्मीरों के सामान्य नागरिकों को करना चाहिए| सामान्य नागरिक पाकिस्तानी प्रस्ताव के विरुद्घ होंगे लेकिन आतंकवादी उसके पक्ष में होंगे| आतंकवादी यह कैसे सह लेंगे कि साधारण कश्मीरी भी सीमा-पार आ-जा सके ? सीमा-पार आवाजाही में उन्हें जान की बाजी लगानी पड़ती है जबकि भारतीय प्रस्ताव मान्य होने पर हजारों शांतिपि्रय लोग प्रतिदिन इधर से उधर आ-जा सकेंगे|
वास्तव में कश्मीर के दोनों हिस्सों को एक-दूसरे के लिए खोल देने के प्रस्ताव कई वर्षों से आ रहे हैं| पाकिस्तान के प्रसिद्घ शांतिवादी नेता डॉ. मुबशर हसन ने अब से लगभग दस साल पहले प्रधानमंत्री नरसिंहराव को इस संबंध में एक ठोस योजना भी सुझाई थी| पाकिस्तान के शांतिवादियों को चाहिए कि वे भारत की इस पहल का डटकर समर्थन करें| यदि पाकिस्तानी सरकार अपनी टेक पर डटी रहेगी तो उसका अर्थ यह होगा कि कश्मीरियों के निजी दुख-दर्द से उसका कुछ लेना-देना नहीं है| उसे तो सिर्फ अपनी राजनीतिक चक्की पीसनी है| कश्मीरियों का चूरा होता रहे तो होता रहे| श्रीनगर-मुजफ्रफराबाद मार्ग अगर खुल जाए तो श्रीनगर-रावलपिंडी मार्ग भी खुलेगा| यह मॉंग दोनों कश्मीरी नेता बरसों से उठा रहे हैं| भारत ने यह पहल इसीलिए की है कि श्रीनगर की मुफ्रती सरकार ने इस पर जमकर जोर दिया होगा| पाकिस्तानी नेताओं को भारतीय पारपत्र से ज्यादा घबराहट है तो उन्हें एक अन्य मार्ग भी सुझाया जा सकता है| दोनों कश्मीरों की राज्य-सरकारों को यह अधिकार दे दिया जाए कि वे अपने-अपने नागरिकों को पहचान-पत्र दे दें| कहने का अर्थ यह है कि संयुक्तराष्ट्र को बीच में घसीटे बिना भी कई ऐसे रास्ते निकाले जा सकते हैं, जिनके जरिए दोनों कश्मीरों की जनता को आवागमन, संचार और मेल-मिलाप में सुविधा हो| पाकिस्तान का सबसे ज्यादा फायदा इसी में है कि दोनों कश्मीरों में सीधा मेल-मिलाप शुरू न हो| मेल-मिलाप अगर बढ़ गया तो कलई खुल जाएगी| पाकिस्तान के कश्मीरियों को पता चल जाएगा कि भारतीय कश्मीर में चल रहा आतंकवाद कितना असली है और कितना पाकिस्तान का पठाया हुआ है ? वे यह भी जान जाऍंगे कि उनके ‘आज़ाद कश्मीर’ में कितनी आज़ादी है ? इसके अलावा पाकिस्तान को सबसे बड़ा खतरा यह भी है कि कहीं दोनों हिस्से मिलकर ‘स्वतंत्र कश्मीर’ की रट न लगाने लगें| इस मामले में भारत के मुकाबले पाकिस्तान कहीं अधिक नाज़ुकमिजाज है| इसीलिए यह मानकर चलना चाहिए कि श्रीनगर-मुजफ्रफराबाद और श्रीनगर-रावलपिंडी के मार्ग अभी कुछ वर्षों तक नहीं खुल पाऍंगे| न खुलें तो न खुलें, भारत के प्रस्ताव के कारण पाकिस्तान की पोल तो खुल ही गई है|
भारतीय प्रस्तावों का जवाब देते हुए पाक विदेश सचिव रियाज़ खोकर ने कुछ मामलों में नहले पर दहला मारने की कोशिश की है| उन्होंने कहा है कि यदि पाकिस्तान के 20 बच्चों का भारत में मुफ्रत इलाज़ होगा तो 20 भारतीय बच्चों का कराची में मुफ्रत इलाज़ होगा| इसका क्या मतलब हुआ ? क्या आज तक कोई भारतीय बच्चा इलाज़ के लिए पाकिस्तान गया है ? क्यों जाएगा वह ? वह सिर्फ इसलिए जाए कि पाकिस्तानी सरकार की नाक नीची हो रही है| उसे भारत की बराबरी करनी है? कैसा क्रूर मजाक है, यह ? मानवीय आवश्यकताओं और सहज मानवीय भावनाओं के साथ किया जा रहा यह राजनीतिक खिलवाड़ क्या शोभाजनक है ? इसका सर्वाधिक अशोभनीय पहलू तो रियाज़ खोकर की इस बात से उजागर होता है कि पाकिस्तान कश्मीर की विधवाओं, बलात्कारग्रस्त महिलाओं और सुरक्षाकर्मियों द्वारा अपंग किए गए कश्मीरियों की मदद और इलाज़ का इन्तजाम करेगा| रियाज़ खोकर जब भारत में उच्चायुक्त थे तो गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण के विरुद्घ काफी जुबान चलाते थे लेकिन अब वे विदेश सचिव हैं| उनसे काफी शाइस्तगी की उम्मीद की जाती है| क्या वे कश्मीरी विधवाओं को उनके पति लौटा देंगे ? क्या बलात्कृत महिलाओं को उनकी पूर्व-स्थिति में लौटाने की किसी तरकीब का पाकिस्तान ने आविष्कार कर लिया है ? किसी भी कश्मीरी महिला पर हुआ अत्याचार प्रत्येक भारतीय के लिए चिंता और लज्जा का विषय है| खोकर की बात ने इस गंभीर मसले को मज़ाक का विषय बना दिया है|
इनके अलावा जो दस अन्य मुद्दे हैं, उन्हें कमो-बेश या हीले-हवाले के साथ पाकिस्तान ने स्वीकार कर ही लिया है| आशा है कि उन पर धीरे-धीरे काम शुरू हो जाएगा| रेल, बस, जहाज और पैदल आवागमन की सुविधा, वीज़ा में उदारता, मुंबई-कराची जल-यात्रा, मछुआरों के प्रति मानवीय व्यवहार आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिन सबके पट जाने पर भी आखिरकार नतीजा क्या निकलेगा ? यही न, कि दिसंबर 2001 से पहले भारत और पाकिस्तान के संबंधों की जो स्थिति थी, वह बहाल हो जाएगी याने घर के बुद्घू घर को आए ! संसद पर हुए आतंकवादी हमले के जवाब में हमने जो भी कदम उठाए और उनसे हमें जो भी नुकसान हो रहा है, वह होना बंद हो जाएगा| हवाई मार्ग बंद होने के कारण हमें लाखों रुपए का नुकसान रोज हो रहा है और अफगानिस्तान से भी हमारा सीधा आवागमन भंगप्राय: है| यह नुक्सान बंद होगा| इसके लिए भारत सरकार को बधाई लेकिन पाक-सीमान्त पर फौजें तैनात करके हमारी सरकार ने जो 20 हजार करोड़ रुपए का नुक्सान किया और सैकड़ों जवान मारे गए, उसकी भरपाई कैसे होगी ? इन सब गुस्से में उठाए हुए कदमों का फायदा क्या हुआ ? क्या सीमा-पार आतंकवाद जरा-भी घटा ? क्या पाकिस्तान के दिल में कोई दहशत पैदा हुई ? बिल्कुल उल्टा हुआ| इस साल संयुक्तराष्ट्र में पाकिस्तान ने कश्मीर का नाटक जरा ज्यादा जोर से खेला| अब भी वह ‘कश्मीर मुख्य मुद्दा है’, यह रट लगाए हुए है| अमेरिकी दबाव में आकर उसने भारतीय प्रस्ताव रद्रद नहीं किए और रियाज़ खोखर ने अपनी आदत के मुताबिक भारत पर तेज़ाब नहीं उड़ेला| इसका मतलब यह नहीं कि भारत-पाक संबंध-सुधार का युग प्रारंभ हो गया है| इस तरह की कोई संभावना फिलहाल दिखाई नहीं पड़ रही|
यह ठीक है कि भारत ने अपने शांति-प्रस्ताव आगे बढ़ाकर अपनी ‘भूल-सुधार’ टिप्पणी प्रकाशित कर दी है लेकिन यह जरूरी है कि वह इस समय एक सुदृढ़ और दूरगामी पाकिस्तान-नीति बनाने पर ध्यान दे| कश्मीर के सवाल को दरी के नीचे सरकाने से कोई फायदा नहीं है| जैसे अब उप-प्रधानमंत्री को सीधे हुर्रियत तथा अन्य तत्वों से बात करने के लिए कहा गया है, वैसे ही सीधे पाकिस्तान से भी बात करने के लिए कहा जाना चाहिए| बातचीत को दो हिस्सों में बॉंटा जाना चाहिए| एक हिस्सा तो आपसी संबंध-सुधार का हो और दूसरा हिस्सा सिर्फ कश्मीर पर बात का हो| यदि चीन से इसी आधार पर बात की जा सकती है तो पाकिस्तान से क्यों नहीं की जा सकती ? आखिर चीन हमसे सीमा के बारे में अलग से बात कर रहा है या नहीं ? इसी तरह हम कश्मीर के बारे में पाकिस्तान से अलग बात क्यों नहीं कर सकते ? एक तरफ आपसी संबंध बढ़ते जाऍं और कश्मीर पर बात भी होती रहे तो उस बात को किसी मुकाम पर पहुंचने में ज्यादा आसानी होगी लेकिन हम कोप-भवन में जा बैठें और सीमा-पार आतंकवाद पर हमारी सुई अटक जाए तो हमारा राग कोई सुननेवाला नहीं है| कश्मीर पर हम बात करेंगे, इसका मतलब यह नहीं है कि कश्मीर पर हमारा दावा कमजोर हो जाएगा और इसका मतलब यह भी नहीं है कि बंदूक पर से हमारा हाथ हट जाएगा| सच्चाई तो यह है कि बातचीत के दौरान अगर जरूरत पड़े तो बंदूक का घोड़ा काफी जोर से दबाया जा सकता है|
बात शुरू होने पर ज्यादा से ज्यादा क्या नुक्सान हो सकता है ? बात टूट सकती है| टूट जाए ! टूटने पर दुबारा शुरू होने का विकल्प भी खुल सकता है और सीधी सैन्य कार्रवाई का औचित्य भी तैयार हो सकता है| दोनों स्थितियों में भारत का फायदा है| यदि यह मानसिक तैयारी नहीं होगी तो नुक्सान ही नुक्सान होगा, जैसा कि पिछले पॉंच वर्षों में हुआ है| हमने पॉंच परमाणु परीक्षण किए तो पाकिस्तान ने सात कर दिए| हमने पहले मुशर्रफ को अन्तरराष्ट्रीय अछूत घोषित किया और फिर अचानक अपना दामाद बना लिया| आगरा बुलाया और मात खा गए| हमारी वजह से मुशर्रफ सेनापति से राष्ट्रपति बन गए| इसके पहले हमारे जहाज का अपहरण हो गया और हमें कंधार में नाक रगड़नी पड़ी| जब 13 दिसंबर 2001 को हमारी संसद पर हमला हुआ तो हम बगलें झॉंकने लगे| पाकिस्तान को हम सबक सिखाते, उसकी बजाय हमने अपना ही मुंह नोंच लिया, अपने ही कपड़े फाड़ लिए, अपनी ही जेब काट ली| यह नपुंसक शौर्य जितना निरर्थक था उतनी ही निरर्थक है, अब दिखाई जा रही नपुंसक उदारता ! शौर्य और उदारता वही शोभनीय होती है, जिसके पीछे पुंसत्व हो, ठोस बल हो| पुंसत्ववान पाकिस्तान-नीति के लिए तो अगला एक साल ही काफी है, पिछले पॉंच सालों के मुकाबले ! यदि वह नीति सफल होती है तो भारतीय उप-महाद्वीप में आपसी सहयोग के नए युग का सूत्रपात हो जाएगा और सफल नहीं होती है तो कश्मीर पर पाकिस्तान की बोलती हमेशा के लिए बंद की जा सकेगी|
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