दैनिक भास्कर, 1 अक्टूबर 2002 : वह दिन पता नहीं कब आएगा, जब भारत और अमेरिका के बीच कोई तीसरा न होगा| दोनों महान लोकतंत्र सदा तीसरे की बाधा से ग्रस्त रहे हैं| भारत और अमेरिका जब भी मिलते हैं, पाकिस्तान या तो सशरीर उपस्थित होता है या मिलन-मंडप पर प्रेत की तरह मँडराता रहता है| ऐसा नहीं है कि सिर्फ बुश और वाजपेयी की मिलन-वेला में ऐसा हुआ है| चाहे नेहरू और केनेडी हों, चाहे इंदिरा और जॉन्सन हो, चाहे मोरारजी या कार्टर हों, चाहे राजीव और रेगन हों, चाहे नरसिंहराव और क्लिंटन हों, चाहें अटल और बुश हों, उनके बीच कभी कोई अयूब, कोई भुट्टो, कोई जि़या, कोई बेनज़ीर, कोई नवाज़ और कोई मुशर्रफ सदा आ धमकता है| इस बार जब प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी अमेरिका गए तो पिछले साल की तरह पाकिस्तान के ‘राष्ट्रपति’ परवेज़ मुशर्रफ वहाँ पहले से ही आसन जमाए हुए थे| दोनों को संयुक्तराष्ट्र महासभा में बोलना था और दोनों को 11 सितंबरी शोक-सभा में शामिल होना था| इसीलिए ये यात्राएँ शुद्घ रूप से द्विपक्षीय नहीं हो सकती थीं| जिन सन्दर्भों में ये यात्राएँ हुईं, उनका फलितार्थ त्रिाकोणात्मक ही होना था, जैसा कि वह हुआ है|
जाहिर है कि इस बार जनरल मुशर्रफ को अमेरिका ने अपनी पलकों पर नहीं बैठाया| गत वर्ष की तरह इस साल उसे अफगानिस्तान फतेह नहीं करना था लेकिन अब भी अल-क़ायदा के तम्बू को उखाड़ने का काम बाक़ी है और मध्य एशिया की सम्पदा को पाकिस्तान के सहारे ही हिंद महासागर तक लाने का सपना उसे पूरा करना है| ऐसी स्थिति में भला बुश पाकिस्तान को भला-बुरा कैसे कह सकते थे ? प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र ने यह दावा जरूर किया कि बुश ने मुशर्रफ को फटकार लगाई लेकिन पाकिस्तान ने तुंरत इस दावे का खंडन कर दिया| बुश ने मुशर्रफ को यह जरूर कहा है कि वह सीमा-पार आतंकवाद पर लगाम लगाए और कश्मीरी चुनावों में टाँग न अड़ाए| उन्होंने प्राथमिक शाला के माट्रस्साब की तरह मुशर्रफ को लोकतंत्र का महत्त्व भी समझाया लेकिन असली सवाल यह है कि इससे भारत को क्या मिला ? कुछ भी नहीं| ये सब बातें मुशर्रफ को बुश न कहते तो भी क्या फर्क पड़ता ? मिलने पर भी वे ही बातें हुई, जो न मिलने पर भी कही जाती रही हैं| अमेरिकी प्रशासन पर भारत के कहे का कोई असर दिखाई नहीं पड़ा|
भारत चाहता था कि मुशर्रफ को सद्दाम का दर्जा दिया जाए| आतंवाद का फंदा सद्दाम नहीं, मुशर्रफ के गले में डाला जाए| पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित किया जाए| उसे एफ-16 लड़ाकू विमान न दिए जाएँ और उसका हुक्का-पानी बंद किया जाए| लेकिन अमेरिका ने क्या किया ? भारत की बात ध्यान से सुनी और अपना वार्षिक कर्मकांड सम्पन्न कर दिया याने अमेरिकी सीनेटरों और काँगे्रसमेनों को खुश करने के लिए लोकतंत्र-समर्थक बयान दे दिए और अपना पल्ला झाड़ लिया| यहाँ संतोष की बात यही है कि कश्मीरी चुनावों के बारे में इस बार अमेरिकी प्रशासन ने पाकिस्तान की हाँ में हाँ नहीं मिलाई| सबसे पहले तो उसने हुर्रियत के इस सुझाव को गलत बताया कि चुनाव स्थगित कर दिए जाएँ और दूसरा, अमेरिका ने कश्मीर में हुए पहले मतदान को प्रामाणिक और आशाजनक बताया| उसने इस पाकिस्तानी दावे को रद्द कर दिया कि कश्मीरी चुनाव ढोंग है| तीसरा, भारत स्थित अमेरिकी राजदूत रॉबर्ट ब्लेकविल ने दिल्ली में साफ़-साफ़ कह दिया कि चुनाव के दौरान आतंकवादी घुसपैठ में बढ़ोतरी हुई है| इससे पाकिस्तान को धक्का जरूर लगा है लेकिन अमेरिका साथ-साथ यह भी कहता जा रहा है कि चुनाव अन्तिम समाधान नहीं है| याने कश्मीर के बारे में अमेरिका का कुछ अपना सोच है, जो शायद भारत और पाकिस्तान, दोनों के सोच से अलग हो| दूसरे शब्दों में फिलहाल भारत को अपनी छाछ भी फूँक-फूँककर पीनी होगी|
यों भी भारत कोई लार नहीं टपका रहा है| पिछले साल की बात ही कुछ और थी| 11 सितंबर की वजह से पाकिस्तान अचानक लपका और अमेरिका के कंधे पर जा बैठा| वह पाकिस्तान, जिससे करगिल और नवाज़ शरीफ के बाद अमेरिका हाथ मिलाने में भी संकोच कर रहा था| याद करें, क्लिंटन की पाकिस्तान-यात्रा और बुश के प्रारंभिक बयान ! पचास साल में पहली बार पाकिस्तान अनाथ-सा महसूस करने लगा था लेकिन इन्हीं दिनों अमेरिका पर अफगानिस्तान फतेह करने का ऐसा बुख़ार चढ़ा कि पाकिस्तान रातों-रात कम्पाउण्डर से डॉक्टर बन बैठा| भारत को डर लगा कि वह कहीं पीछे छूटा जा रहा है इसीलिए उसने अमेरिका को लुभाने के लिए ‘नेशनल मिसाइल डिफेंस’ योजना का तत्काल और पूर्ण समर्थन कर दिया, जबकि उसके यूरोपीय मित्र हकलाते रहे| भारत की चिंता यही थी कि आतंकवाद की लड़ाई में जहाँ भारत को खड़ा होना था, वहाँ पाकिस्तान जा पहुँचा है और इसका नतीजा यह होगा कि भारत-विरोधी आतंकवाद पर कोई ध्यान नहीं देगा| एक सीमा तक यही हुआ लेकिन अब ज्यों-ज्यों अफगानिस्तान का बुखार उतरता जा रहा है, अमेरिका और यूरोप की नज़रें कश्मीर की तरफ फिर से मुड़ने लगी हैं|
इसका एक नतीजा यह भी है कि भारत भी अब थोड़ा खुल रहा है| उसने इस बार एराक पर अमेरिका का वैसा समर्थन नहीं किया, जैसा कि ‘नेशनल मिसाइल डिफेंस’ पर कर दिया था| प्रधानमंत्री वाजपेयी ने यह स्पष्ट कर दिया कि एराक ही नहीं, ‘बुराई की दूसरी जड़’ ईरान से भी भारत का घनिष्ट संबंध हैं और अपने आयातित तेल की ही नहीं, पश्चिम एशिया में रह रहे लगभग 30 लाख भारतीय नागरिकों की भी उसे चिंता है| इसीलिए अमेरिका युद्घ छेड़ने के पहले सुरक्षा परिषद्र की अनुमति ले और एराक संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों को खुली छूट दे ताकि वे परमाणु या जैविक या रासायनिक हथियारों की खोज-पड़ताल कर सकें| इतना ही नहीं, भारतीय विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा की यह पहल काबिले-तारीफ है कि रूस, चीन और भारत के विदेश मंत्रियों ने अमेरिका की नाक के नीचे ही संयुक्त प्रीति-भोज किया| यह प्रीति-भोज नहीं, विकल्प-भोज था| इस भोज में से ठोस क्या निकला, कुछ पता नहीं लेकिन यह संदेश जरूर उभरा कि विश्व की एक मात्र महत्तम शक्ति अमेरिका के चारों तरफ गणेश-परिक्रमा करने के अलावा भी कुछ विकल्प हैं| इस त्रिपक्षीय भोज में पाकिस्तान का शामिल न किया जाना भी पर्याप्त अर्थगर्भित है| भारत, एशिया के तीन बड़ों में से एक है| वह पाकिस्तान की तरह किसी महाशक्ति का दुमछल्ला नहीं बन सकता| पाकिस्तान अपने शस्त्रास्त्रों के लिए अमेरिका पर निर्भर है, भारत नहीं| यदि भारत को मिलनेवाले इस्राइलीं हथियारों के रास्ते में अमेरिका टाँग अड़ाएगा तो भारत के पास रूस और अन्य यूरोपीय राष्ट्रों के विकल्प भी हैं| भारत के इस खुद्दार रवैए का असर अमेरिका पर पड़े बिना नहीं रहेगा|
इसीलिए दोनों तरफ से इस बार एक नया सुर भी उभरा है| वह यह कि पाकिस्तान की छाया नहीं मँडराने देंगे याने भारत-अमेरिका संबंधों पर तीसरे की बाधा का प्रकोप नहीं होगा| यह सुर जितना नया है, उतना ही क्षीण भी है|आशा की किरण बुश का यह बयान भी है कि आतंकवाद को ‘स्वाधीनता संग्राम’ कहना गलत है| बुश का यह बयान मुशर्रफ के भाषण की सीधी काट करता है| अटलजी ने भी यही कहा लेकिन जब बुश ने उसे दोहराया तो उन शब्दों में पंख लग गए| कुछ जादुई असर पैदा हो गया| अगर दोनों देशों के बीच यही जुगलबंदी बनी रहे और बढ़ती रहे तो पाकिस्तान को शीघ्र ही अपनी कश्मीर नीति पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है| यह पता नहीं कि कश्मीर के हल के बाद भी पाकिस्तानी प्रेत अपनी माँद में लौटेगा या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि दुनिया के ये दोनों महान लोकतंत्र अब एक ऐसे आकाश में विचरण के संकेत दे रहे हैं, जो तीसरे की बाधा से मुक्त हो| इसीलिए इस बार अंतरिक्ष, विज्ञान, ऊर्जा, व्यापार और सामरिक क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग के अनेक नए आयामों की खोज चलती रही| अमेरिकी विदेश मंत्री कोलिन पॉवेल और भारतीय विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा के बीच उभरे मधुर समीकरणों ने न केवल श्री जसवंतसिंह की कमी को पूरा किया बल्कि यह भी सिद्घ किया कि पात्रों के बदल जाने के बावजूद नाटक जारी रहता है, और कभी-कभी बेहतर भी हो जाता है|
अनेक एकांकी नाटकों का रस इस बार भी दर्शकों को लबालब मिला| मुशर्रफ और वाजपेयी ने हवा में जमकर घूँसे चलाए| गत्ते की तलवारें और कागज के मुगदर दोनों ने खूब घुमाए| एक ने कहा, ‘ब्लेकमेल करते हो’ तो दूसरे ने कहा ‘झूठ बोलने में हद पार करते हो’| पहले शब्द था – ‘सीमा-पार आतंकवाद’ और अब नया शब्द उभरा,’सीमा-पार झूठ’ याने सीमा के पार से आया झूठ और सीमा को पार करनेवाला झूठ भी ! अटल जी हिंदी में बोले तो खुद भी हँसे और लोगों को भी हँसाया| अपने राजदूत और अपने विदेशमंत्री पर भी फब्तियाँ कसीं| जब भारत-पाक सीमाओं पर फौजी मुक्का तना हुआ हो तो नेताओं की ये प्रहसनात्मक मुद्राएँ तनाव-शैथिल्य में सहायक होती है| चीखों-चिल्लाहटों से भरे प्रेत-बाधाओं के आकाश में खिलखिलाहट, गुनगुनाहट और ठहाकों का कौन स्वागत नहीं करेगा ?
Leave a Reply