रा. सहारा, 4 जनवरी 2008 : अगर बेनज़ीर भुट्टो जिंदा रहतीं तो भी अनेक सवाल उठते लेकिन उनकी हत्या के बाद अब कई पेचीदा सवालों का अंबार खड़ा हो गया है| पाकिस्तानी चुनाव पर और उसके बाद बननेवाली सरकार के भविष्य पर भी बेनज़ीर का साया मंडराता रहेगा|
सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि बेनज़ीर की हत्या हुई या उनकी मौत कार की छत के लीवर से टकराने के कारण हुई? मुशर्रफ-सरकार और उनके अफसरों के परस्पर-विरोधी बयानों ने फौजी हुकूमत की छवि तार-तार कर दी है| बेनज़ीर के शव को कब्र से निकालकर दुबारा जॉंचने की खबर ने पाकिस्तानियों के मन में सरकार के प्रति गहरा रोष पैदा कर दिया है| सरकार के साथ-साथ सत्तारूढ़ दल मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) को भी इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा| फौजी सरकार ने हत्या को ‘मौत’ का रंग देना इसलिए जरूरी समझा कि वह अपने पश्चिमी सरपरस्तों को यह समझा सके कि पाकिस्तान का आतंकवाद बेकाबू नहीं हुआ है और बेनज़ीर को सरकार ने पूरी सुरक्षा दे रखी थी| इसके अलावा हत्या के बजाय ‘मौत’ की दुर्घटना पर कोई शक भी नहीं कर सकता| जब हत्या ही नहीं हुई तो हत्यारा किसे कहा जाएगा? फौजी सरकार के ये दोनों इरादे सिर के बल खड़े हो गए हैं|
बेनज़ीर के पति आसिफ ज़रदारी ने साफ़-साफ़ कहा है कि बेनज़ीर की हत्या में तालिबान या अल-कायदा का हाथ नहीं है| उन्होंने कहा कि उन्हें फौजी सरकार पर भरोसा नहीं है, इसलिए हत्या की अंतरराष्ट्रीय जॉंच करवाई जाए| सरकार के लिए इससे बुरा प्रमाण-पत्र् क्या हो सकता है? यदि हत्या में आतंकवादियों का हाथ नहीं है तो फिर किसका है? क्या पाकिस्तानी मतदाता इस सवाल का जवाब खुद ही नहीं खोज लेंगे? लीवर से टकराकर मरने की बात को बेनज़ीर की सहेली नाहिद खान और शेरी रहमान ने भी रद्द किया है| वे कार में साथ थीं और उन्होंने शव-स्नान भी करवाया है| मियॉं नवाज़ शरीफ ने एक बार भी नहीं कहा कि बेनजीर की हत्या आतंकवादियों ने की है| वे बार-बार कह रहे हैं कि उन पर और बेनज़ीर पर हमला एक-साथ हुआ है| याने हमलावर एक ही है| कौन हो सकता है, वह ! सारी उंगलियॉं मुशर्रफ की तरफ उठाई जा रही हैं|
मुशर्रफ बेनज़ीर को मारने की साजिश करेंगे, यह बात गले नहीं उतरती| एक तो मुशर्रफ और बेनज़ीर दोनों अमेरिका को मार्गदर्शन में साथ-साथ कदम बढ़ा रहे थे| दूसरा, बेनज़ीर ने उनके साथ काफ़ी सहयोग किया था, खास तौर से उन्हें राष्ट्रपति का चुनाव जितवाने में| तीसरा, नवाज शरीफ के मुकाबले बेनज़ीर की जीत मुशर्रफ आसानी से हजम कर सकते थे, क्योंकि नवाज़ शरीफ 1999 के तख्ता-पलट का बदला लेने के लिए कमर कसे हुए हैं| इन तथ्यों के बावजूद बेनज़ीर की हत्या की तख्ती मुशर्रफ के गले में लटकाने की कोशिश की जा रही है| यह भी कहा जा रहा है कि बेनज़ीर अपनी हत्या की रात (27 दिसंबर) को अमेरिका से आए दो सांसदों को चुनाव में होनेवाली धांधली के प्रमाण देनेवाली थीं| चुनाव-अभियानों में इस तरह की पतंगें सभी देशों में उड़ाई जाती हैं| आम मतदाता तक जो भी दृष्टिकोण जल्दी और ज्यादा पहुंचाता है, वही लोकमत बन जाता है| कभी-कभी अफवाहें खबरों की छाती पर सवार हो जाती हैं|
क्या इसी आधार पर माना जा सकता है कि बेनज़ीर की पीपल्स पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा या वह अन्य पार्टियों का सूंपड़ा ही साफ़ कर देगी? यदि चुनाव 8 जनवरी को हों तो शायद यह संभव है, बिल्कुल वैसे ही जैसे इंदिरा गॉंधी या राजीव गॉंधी की हत्या के बाद हुआ था लेकिन चुनाव अगर अगले माह हुए तो न सिर्फ आसिफ जरदारी के बारे में तीखे सवाल उठेंगे बल्कि बेनज़ीर के अब तक के किरदार पर भी उंगलियॉं उठेंगी| ज़रदारी को पाकिस्तान में मिस्टर 10 परसेंट कहा जाता है याने बेनज़ीर के प्रधानमंत्रित्व के दौरान वे हर बड़े सौदे पर 10 प्रतिशत का कमीशन खाते थे| उन पर और बेनज़ीर पर लगभग 7 हजार करोड़ रूपये स्विजरलैंड में दबाकर रखने का आरोप है| ज़रदारी पिछले 8-9 वर्षो से जेल भी काटते रहे| इसके अलावा पीपल्स पार्टी के कई बड़े नेता और हजारों कार्यकर्त्ता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते| यद्यपि उन्होंने पार्टी उपाध्यक्ष मख्दूम फहीम को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है लेकिन सभी को पता है कि सत्ता के असली सूत्र्धार वहीं हैं| जरदारी का स्वास्थ्य भी काफी खराब है| वे बेनज़ीर की तरह दिन-रात चुनावी सभाऍं नहीं कर सकते|
इसके अलावा बेनज़ीर की अपनी छवि पर काफी प्रश्न-चिन्ह लग चुके थे| उन्हें अमेरिका का एजेन्ट कहा जाने लगा था| उन्हें फौज के साथ सांठ-गांठ करनेवाली सत्ताकामी नेता माना जाने लगा था| पाकिस्तान के बहुत-से नेता बेनज़ीर को काफी घमंडी और मुंहफट मानते थे| उनका कहना था कि वे लोकतंत्र् का दम भरती थीं लेकिन स्वभाव से वे सामंती थीं| उन्होंने खुद को पीपीपी का आजीवन अध्यक्ष क्यों घोषित कर रखा था? और अब मख्दूम फहीम या एतजाज अहसन जैसे दिग्गजों को किनारे सरकाकर पार्टी को जरदारी और बिलावल की जेब में क्यों डाल दिया गया है| बलूच नेता अकबर बुग्ती की हत्या और लाल मस्जिद पर भी बेनज़ीर के ढुलमुल रवैए की आलोचना हो रही है| चुनाव में देरी होने पर ये मुद्दे जरूर उठेंगे|
इनका सबसे ज्यादा फायदा नवाज़ शरीफ को होगा| नवाज़ को मुशर्रफ-विरोधी सारे तत्व तहे-दिल से मदद कर रहे हैं| पंजाब की जनता तो उनके साथ है ही, बलूचिस्तान और सरहदी सूबे में भी नवाज़ को बढ़त मिलेगी| जो क्षेत्रीय पार्टियॉं अब तक पीपीपी के साथ हुआ करती थीं, उन्होंने इस बार नवाज़ की मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिला लिया है| नवाज़ ने कभी चुनाव न लड़ने और कभी लड़ने की घोषणा करके अपनी छवि थोड़ी खराब की है लेकिन बेनज़ीर के मुकाबले उन्हें अन्य दलों के नेता राजनीतिक दृष्टि से ज्यादा ईमानदार समझते हैं, क्योंकि उन्होंने फौज से कोई सांठ-गांठ नहीं की और न ही वे अमेरिकी मोहरा बनने को तैयार हुए| पाकिस्तान की जनता यह भूली नहीं है कि राष्ट्रपति क्लिंटन के पॉंच बार फोन करने के बावजूद प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने परमाणु बम का विस्फोट किया| पाकिस्तान के जजों और वकीलों के आंदोलन का फायदा नवाज़ शरीफ को ही मिलेगा, क्योंकि उन्होंने उसका स्पष्ट समर्थन किया था| नवाज़ ने यह भी दो-टूक कह दिया है कि चुनाव के बाद उनकी पार्टी मुशर्रफ को एक मिनिट भी बर्दाश्त नहीं करेगी याने उनके विरूद्घ संसद में महाभियोग चलाया जाएगा| चुनाव अभियान के दौरान यदि बेनज़ीर की तरह नवाज़ का भी लोप हो गया तो और बात है, वरना लगता यही है कि नवाज़ की मुस्लिम लीग और जरदारी की पीपीपी मिलकर दो-तिहाई बहुमत जुटा लेंगी|
यदि नवाज़ को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो वे अपने सपनों पर अमल नहीं कर पाऍंगे| पाकिस्तानी राजनीति फौज और अमेरिका के नेतृत्व में यथास्थितिवादी रूप धारण कर लेगी| इस बीच यदि सेनापति परवेज़ कियानी ने तख्ता-पलट कर दिया तो पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा| इन समस्त संभावनाओं के बीच हमारे लिए सुनहरी किरण यही है कि पाकिस्तान के राजनीतिक दल या नेता या फौज भी इस समय भारत के विरूद्घ विष-वमन नहीं कर रहे हैं|
पाकिस्तान की राजनीति पर बेनज़ीर का साया
रा. सहारा, 4 जनवरी 2008 : अगर बेनज़ीर भुट्टो जिंदा रहतीं तो भी अनेक सवाल उठते लेकिन उनकी हत्या के बाद अब कई पेचीदा सवालों का अंबार खड़ा हो गया है| पाकिस्तानी चुनाव पर और उसके बाद बननेवाली सरकार के भविष्य पर भी बेनज़ीर का साया मंडराता रहेगा|
सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि बेनज़ीर की हत्या हुई या उनकी मौत कार की छत के लीवर से टकराने के कारण हुई? मुशर्रफ-सरकार और उनके अफसरों के परस्पर-विरोधी बयानों ने फौजी हुकूमत की छवि तार-तार कर दी है| बेनज़ीर के शव को कब्र से निकालकर दुबारा जॉंचने की खबर ने पाकिस्तानियों के मन में सरकार के प्रति गहरा रोष पैदा कर दिया है| सरकार के साथ-साथ सत्तारूढ़ दल मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) को भी इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा| फौजी सरकार ने हत्या को ‘मौत’ का रंग देना इसलिए जरूरी समझा कि वह अपने पश्चिमी सरपरस्तों को यह समझा सके कि पाकिस्तान का आतंकवाद बेकाबू नहीं हुआ है और बेनज़ीर को सरकार ने पूरी सुरक्षा दे रखी थी| इसके अलावा हत्या के बजाय ‘मौत’ की दुर्घटना पर कोई शक भी नहीं कर सकता| जब हत्या ही नहीं हुई तो हत्यारा किसे कहा जाएगा? फौजी सरकार के ये दोनों इरादे सिर के बल खड़े हो गए हैं|
बेनज़ीर के पति आसिफ ज़रदारी ने साफ़-साफ़ कहा है कि बेनज़ीर की हत्या में तालिबान या अल-कायदा का हाथ नहीं है| उन्होंने कहा कि उन्हें फौजी सरकार पर भरोसा नहीं है, इसलिए हत्या की अंतरराष्ट्रीय जॉंच करवाई जाए| सरकार के लिए इससे बुरा प्रमाण-पत्र् क्या हो सकता है? यदि हत्या में आतंकवादियों का हाथ नहीं है तो फिर किसका है? क्या पाकिस्तानी मतदाता इस सवाल का जवाब खुद ही नहीं खोज लेंगे? लीवर से टकराकर मरने की बात को बेनज़ीर की सहेली नाहिद खान और शेरी रहमान ने भी रद्द किया है| वे कार में साथ थीं और उन्होंने शव-स्नान भी करवाया है| मियॉं नवाज़ शरीफ ने एक बार भी नहीं कहा कि बेनजीर की हत्या आतंकवादियों ने की है| वे बार-बार कह रहे हैं कि उन पर और बेनज़ीर पर हमला एक-साथ हुआ है| याने हमलावर एक ही है| कौन हो सकता है, वह ! सारी उंगलियॉं मुशर्रफ की तरफ उठाई जा रही हैं|
मुशर्रफ बेनज़ीर को मारने की साजिश करेंगे, यह बात गले नहीं उतरती| एक तो मुशर्रफ और बेनज़ीर दोनों अमेरिका को मार्गदर्शन में साथ-साथ कदम बढ़ा रहे थे| दूसरा, बेनज़ीर ने उनके साथ काफ़ी सहयोग किया था, खास तौर से उन्हें राष्ट्रपति का चुनाव जितवाने में| तीसरा, नवाज शरीफ के मुकाबले बेनज़ीर की जीत मुशर्रफ आसानी से हजम कर सकते थे, क्योंकि नवाज़ शरीफ 1999 के तख्ता-पलट का बदला लेने के लिए कमर कसे हुए हैं| इन तथ्यों के बावजूद बेनज़ीर की हत्या की तख्ती मुशर्रफ के गले में लटकाने की कोशिश की जा रही है| यह भी कहा जा रहा है कि बेनज़ीर अपनी हत्या की रात (27 दिसंबर) को अमेरिका से आए दो सांसदों को चुनाव में होनेवाली धांधली के प्रमाण देनेवाली थीं| चुनाव-अभियानों में इस तरह की पतंगें सभी देशों में उड़ाई जाती हैं| आम मतदाता तक जो भी दृष्टिकोण जल्दी और ज्यादा पहुंचाता है, वही लोकमत बन जाता है| कभी-कभी अफवाहें खबरों की छाती पर सवार हो जाती हैं|
क्या इसी आधार पर माना जा सकता है कि बेनज़ीर की पीपल्स पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा या वह अन्य पार्टियों का सूंपड़ा ही साफ़ कर देगी? यदि चुनाव 8 जनवरी को हों तो शायद यह संभव है, बिल्कुल वैसे ही जैसे इंदिरा गॉंधी या राजीव गॉंधी की हत्या के बाद हुआ था लेकिन चुनाव अगर अगले माह हुए तो न सिर्फ आसिफ जरदारी के बारे में तीखे सवाल उठेंगे बल्कि बेनज़ीर के अब तक के किरदार पर भी उंगलियॉं उठेंगी| ज़रदारी को पाकिस्तान में मिस्टर 10 परसेंट कहा जाता है याने बेनज़ीर के प्रधानमंत्रित्व के दौरान वे हर बड़े सौदे पर 10 प्रतिशत का कमीशन खाते थे| उन पर और बेनज़ीर पर लगभग 7 हजार करोड़ रूपये स्विजरलैंड में दबाकर रखने का आरोप है| ज़रदारी पिछले 8-9 वर्षो से जेल भी काटते रहे| इसके अलावा पीपल्स पार्टी के कई बड़े नेता और हजारों कार्यकर्त्ता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते| यद्यपि उन्होंने पार्टी उपाध्यक्ष मख्दूम फहीम को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है लेकिन सभी को पता है कि सत्ता के असली सूत्र्धार वहीं हैं| जरदारी का स्वास्थ्य भी काफी खराब है| वे बेनज़ीर की तरह दिन-रात चुनावी सभाऍं नहीं कर सकते|
इसके अलावा बेनज़ीर की अपनी छवि पर काफी प्रश्न-चिन्ह लग चुके थे| उन्हें अमेरिका का एजेन्ट कहा जाने लगा था| उन्हें फौज के साथ सांठ-गांठ करनेवाली सत्ताकामी नेता माना जाने लगा था| पाकिस्तान के बहुत-से नेता बेनज़ीर को काफी घमंडी और मुंहफट मानते थे| उनका कहना था कि वे लोकतंत्र् का दम भरती थीं लेकिन स्वभाव से वे सामंती थीं| उन्होंने खुद को पीपीपी का आजीवन अध्यक्ष क्यों घोषित कर रखा था? और अब मख्दूम फहीम या एतजाज अहसन जैसे दिग्गजों को किनारे सरकाकर पार्टी को जरदारी और बिलावल की जेब में क्यों डाल दिया गया है| बलूच नेता अकबर बुग्ती की हत्या और लाल मस्जिद पर भी बेनज़ीर के ढुलमुल रवैए की आलोचना हो रही है| चुनाव में देरी होने पर ये मुद्दे जरूर उठेंगे|
इनका सबसे ज्यादा फायदा नवाज़ शरीफ को होगा| नवाज़ को मुशर्रफ-विरोधी सारे तत्व तहे-दिल से मदद कर रहे हैं| पंजाब की जनता तो उनके साथ है ही, बलूचिस्तान और सरहदी सूबे में भी नवाज़ को बढ़त मिलेगी| जो क्षेत्रीय पार्टियॉं अब तक पीपीपी के साथ हुआ करती थीं, उन्होंने इस बार नवाज़ की मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिला लिया है| नवाज़ ने कभी चुनाव न लड़ने और कभी लड़ने की घोषणा करके अपनी छवि थोड़ी खराब की है लेकिन बेनज़ीर के मुकाबले उन्हें अन्य दलों के नेता राजनीतिक दृष्टि से ज्यादा ईमानदार समझते हैं, क्योंकि उन्होंने फौज से कोई सांठ-गांठ नहीं की और न ही वे अमेरिकी मोहरा बनने को तैयार हुए| पाकिस्तान की जनता यह भूली नहीं है कि राष्ट्रपति क्लिंटन के पॉंच बार फोन करने के बावजूद प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने परमाणु बम का विस्फोट किया| पाकिस्तान के जजों और वकीलों के आंदोलन का फायदा नवाज़ शरीफ को ही मिलेगा, क्योंकि उन्होंने उसका स्पष्ट समर्थन किया था| नवाज़ ने यह भी दो-टूक कह दिया है कि चुनाव के बाद उनकी पार्टी मुशर्रफ को एक मिनिट भी बर्दाश्त नहीं करेगी याने उनके विरूद्घ संसद में महाभियोग चलाया जाएगा| चुनाव अभियान के दौरान यदि बेनज़ीर की तरह नवाज़ का भी लोप हो गया तो और बात है, वरना लगता यही है कि नवाज़ की मुस्लिम लीग और जरदारी की पीपीपी मिलकर दो-तिहाई बहुमत जुटा लेंगी|
यदि नवाज़ को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो वे अपने सपनों पर अमल नहीं कर पाऍंगे| पाकिस्तानी राजनीति फौज और अमेरिका के नेतृत्व में यथास्थितिवादी रूप धारण कर लेगी| इस बीच यदि सेनापति परवेज़ कियानी ने तख्ता-पलट कर दिया तो पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा| इन समस्त संभावनाओं के बीच हमारे लिए सुनहरी किरण यही है कि पाकिस्तान के राजनीतिक दल या नेता या फौज भी इस समय भारत के विरूद्घ विष-वमन नहीं कर रहे हैं|
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