NavBharat Times, 25 सितंबर 2008 : अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी को कल वाशिंगटन में यह दिलासा दिया है कि अमेरिका पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं करेगा| यह दिलासा कूटनीतिक दिखावे के अलावा क्या है ? भोले पाकिस्तानियों के दिलों पर कुछ देर के लिए मरहम छिड़कने के अलावा यह दिलासा क्या कर सकता है ? जो अमेरिका क्यूबा को घेर सकता है, लातानी अमेरिकी देशों में जब चाहे अपनी फौजे दौड़ा सकता है, वियतनाम और एराक की छाती पर सवार हो सकता है, नाटो देशों की फौजों को अपने इशारों पर नचा सकता है, पाकिस्तान-जैसे दर्जनों देशों में अपने स्वतंत्र् सैनिक अड्डे कायम कर सकता है, वह पाकिसतान के कबाइलियों पर सीधे हमले नहीं करेगा, यह मानना वैसा ही है, जैसा कि सौ-सौ चहे मारने वाली बिल्ली हज को चली हो| और देशों की बात जाने दें, इसी पाकिस्तान में पहले भी अफगानिस्तान में स्थित अमेरिकी सेना ने कई सीमापार हमले किए हैं| मुशर्रफ के ज़माने में अगर उसने कुल मिलाकर 36 बार सीमा लांघी थी तो अभी नई सरकार के कुछ ही हफ्तों में वह 24 बार लांघ चुकी है| पहले सिर्फ हवाई हमले होते थे अब पैदली हमले भी हो रहे हैं|
आखिर ये हमले क्यों हो रहे हैं ? इतने ज्यादा क्यों हो रहे हैं ? इसीलिए हो रहे है कि अमेरिकी प्रशासन नई सरकार के प्रति आश्वस्त नहीं है| उसे पता है कि मुशर्रफ जिस जवाँमर्दी के साथ फौज को अपने साथ ले सकते थे, पीपीपी सरकार नहीं ले सकती| कबाइली और तालिबान छापामारों ने पहले ही फौज का दम फुला रखा है| कुछ हफ्ते पहले उन्होंने डेढ़ सौ फौजियों को गिरफ्तार कर लिया था| गैर-फौजी सरकार आतंकवादियों के समले पर कोरा जबानी जमा-खर्च करती है| कार्रवाई के नाम पर वह शून्य है| अमेरिका को डर है कि अफगान-सीमा से लगे पाकिस्तानी कबाइली इलाके पर शीघ्र काबू नहीं किया गया तो तालिबान आतंकवादी जलालबाद और काबुल पर कब्जा कर लेंगे| नाटों फौजों के लिए इससे अधिक शर्मनाक बात क्या होगी ? इसके अलावा बुश अपने अंतिम दिनों में ‘आतंक-विरोधी जलवा’ भी पैदा करना चाहते हैं| इसीलिए उन्होंने सीमा-पार हमलों के लिए गुप्त अनुमति भी दे दी है| जाहिर है कि इन अमेरिकी हमलों से अफगान सरकार बेहद खुश है| हामिद करजई सरकार का मनोबल बढ़ाने के लिए बुश ने अपने रक्षा मंत्री गेट्रस को काबुल भेजा और सेनापति मुलन को इस्लामाबाद भेजा ताकि वह पाकिस्तानी सेनापति कयानी को समझा-बुझा सकें|
पाकिस्तान के राजनीतिक विचारकों की सोच है कि ये सीमा-पार अमेरिकी हमले पाकिस्तान की संप्रभुता का हनन तो करते ही हैं, इनके कारण पाकिस्तानी जनता और विशेषकर कबाइली लोग भी अमेरिका से घृणा करने लगेंगे| आतंकवाद घटेगा नहीं, बढ़ेगा| अमेरिकी कहते हैं कि हमे क्या फर्क पड़ना है ? हमे पाकिस्तानी जनता के वोटे थोड़े ही लेने हैं, जो हम उसकी राय की परवाह करें| हमें पाकिस्तान से न तो डॉलर लेने हैं, न हथियार ! इन सब चीजों के लिए पाकिस्तान ही हमारे आगे झोली पसारे रहता है| हमारा एकमात्र् लक्ष्य है, आतंकवाद का उन्मूलन लेकिन इस काम में पाकिस्तान एकदम विफल हो गया है| इसलिए हमें आतंकवाद की जड़ पर सीधा प्रहार करना पड़ रहा है| यह सच्चाई है| इसे पाकिस्तानी संप्रभुता का उल्लंघन कैसे कहा जा सकता है ? यदि ये प्रहार पाकिस्तान के विरूद्घ होंद्व उसके हितों के विरूद्घ हों, उसके लक्ष्यों के विरूद्घ हो तो निश्चय ही वे उसकी संप्रभुता का उल्लंघन माने जाएंगे|
अमेरिकियों का दोष सिर्फ यह है कि सीमा-पार झपट्रटा मारने के पहले पाकिस्तानी सरकार या फौज की अनुमति नहीं ले रहे हैं| यह तकनीकी उल्लंघन जरूर है लेकिन अमेरिकियों का तर्क यह है कि वे पाकिस्तानी सरकार को कोई भी अगि्रम सुराग नहीं देना चाहते, क्योंकि पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान में तालिबानी घुसपैठ इतनी गहरी है कि उन्हें हर बात तुरंत मालूम पड़ जाती है| हमलों की गोपनीयता भंग हो जाती है| वास्तव में अमेरिकियों ने सीमा-पार हमले पाकिस्तान की संप्रभुता को परिपुष्ट करते हैं, न कि उसका उल्लंघन करते हैं| यों भी अंतरराष्ट्रीय कानून में ‘पीछा करने का अधिकार’ सर्वमान्य है|
पाकिस्तान की जनता इस मुद्दे पर जो भी राय रखे, जहां तक पाकिस्तानी हुक्मरानों का सवाल है, उनके मुंह से संप्रभुता की बात शोभा नहीं देती| पाकिस्तान के लिए सच्ची संप्रभुता अब भी एक सपना है| संप्रभुता की परिभाषा करते हुए प्रसिद्घ फ्रांसीसी विचारक ज्यां बोदां ने कहा था कि जब कोई सरकार आंतरिक मामलों में सर्वोच्च् और बाह्रय मामलों में स्वतंत्र् होती है तो उसे संप्रभु सरकार माना जा सकता है| क्या ऐसी सरकार पाकिस्तान में कभी रही है ? जिन्ना और लियाकत अली के बाद पाकिस्तान में आज तक जितनी सरकारें बनी हैं, वे या तो फौज की कठपुतलियां रही हैं या अमेरिका की ! जब-जब उन्होंने संप्रभु बनने की कोशिश की, फौज ने उन्हें धक्का मारकर बाहर निकाल दिया|
पाकिस्तान में फौज ही नहीं, गुप्तचर संगठन (आईएसआई) भी स्वायत्त है| पिछले दिनों उसे गृह मंत्रलय के मातहत लेने की कोशिश की गई लेकिन सरकार को मुंह की खानी पड़ी| पाकिस्तान की संप्रभुता का हाल तो यह है कि उसके पश्चिमी सीमांत के बड़े हिस्से को ‘इलाका-ए-गैर’ कहा जाता है, जहां उसकी सरकार का कानून नहीं चलता| मस्जिदें, मदरसेऔर खानकाहें भी कानून की गिरफ्त के बाहर हैं| अफीम-उत्पादक और तस्करों को सरकार छू नहीं सकती| इस सरकार को कौन सरकार कहेगा ? कौन उसे संप्रभु मानेगा ? और अमेरिका क्यों माने ? स्वयं अमेरिकियों और पाकिस्तानियों ने जब कारमल, नजीब और रब्बानी की सरकारों के वक्त अफगानिस्ता में घुसकर हमले किए थे तो इस्लामाबाद को अफगानिस्तान की संप्रभुता की याद क्यों नहीं आई ? पाकिस्तान को अब अपने ही बोए हुए बीज काटने पड़ रहे हैं| संप्रभुता का ढोंग रचाने के बजाय पाकिस्तान सरकार को चाहिए कि वह अमेरिकी फौजों को खुले-आम निमंत्र्ण दे और संयुक्त फौजी मोर्चा कायम करके अपनी संप्रभुता की रक्षा करें|
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