दैनिक भास्कर, 10 अगस्त 2013 : भारत पाक सीमांत पर मारे गए हमारे पांच जवानों को लेकर भारत सरकार की इतनी ज्यादा भद्द पिट गई है कि लोग अब यह सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि सरकार का कोई मुखिया है भी या नहीं? कहीं यह बिना कप्तान का जहाज तो नहीं है? रक्षा मंत्री एके एंटनी ने जो पल्टियां खाई हैं, वे इसलिए नहीं कि वे रक्षा-नीति या विदेश नीति के मामले में अनाड़ी हैं। उन्होंने पल्टी इसलिए खाई की संसद और पूरा देश सरकार पर उबल पड़ा था। अगर इस सरकार का मुखिया कोई वास्तविक नेता होता तो स्थिति इतनी बिगडऩे नहीं देता। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि यह सरकार बाबुओं की सरकार बन गई है। नेता बड़े बाबू हैं और नौकरशाह छोटे बाबू! बाबुओं में हिम्मत कहां? जऱा-सी फटकार लगी नहीं कि वे दुम दबाकर बैठ जाते हैं।
इस मामले में भी यही हुआ है। एंटनी ने पहले दिन जो कहा, असलियत वही है। 21 बिहार रेजिमेंट ने पुंछ के पुलिस थाने में 6 अगस्त को जो रपट दर्ज करवाई है (एफआईआर नं. 113/2013), उसमें साफ-साफ लिखा है कि आतंकवादियों ने हमारी सीमा में घुसकर जवानों को मारा है। रक्षामंत्री एंटनी ने इसे ज्यों का त्यों संसद के सामने रख दिया, लेकिन उसे शायद अंदाज नहीं था कि एक दिन पहले से टीवी चैनलों ने हंगामा खड़ा कर रखा था। सांसदों को भी लगा कि पाकिस्तान दादागीरी पर उतर आया है। मियां नवाज शरीफ कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं या फौज उनके बूते के बाहर है। पाकिस्तान को सबक सिखाना जरूरी है। इसीलिए उन्होंने मांग की कि पहले तो सितंबर में होनेवाली दोनों प्रधानमंत्रियों की वार्ता को रद्द किया जाए और दूसरा पाकिस्तान के कुछ फौजियों को मारकर बदला लिया जाए। इस बीच दिल्ली में जहां-तहां पाकिस्तान-विरोधी प्रदर्शन भी हो गए। उनका होना स्वाभाविक था। पाकिस्तान से बदला लेने की मांग में भी काफी दम था। यदि सचमुच यह पाकिस्तानी फौज की हरकत थी तो उनके फौजियों को सबक सिखाना हमारी सरकार का कर्तव्य था। पर सरकार की घिग्घी बंध गई थी। सरकार यह बोलने की स्थिति में भी नहीं रही कि सितंबर-वार्ता होगी या नहीं। उसने अपने सेना-प्रमुख को सीमा पर भेजा और रक्षा मंत्री ने उनसे सलाह करके शीर्षासन कर दिया।
अब रक्षा मंत्री ने कहा है कि पांच जवानों की हत्या पाकिस्तानी सेना की एक विशेष टुकड़ी ने की है। उनके इस बयान से भाजपा संतुष्ट हो गई है। यह भी ठीक है कि भाजपा विरोधी पार्टी है, इस नाते सरकार को दुविधा में डालना उसका धर्म है । हालंकि उसे यह भी पता होना चाहिए कि यह शाब्दिक युद्ध-पिपासा बड़े युद्ध का रूप भी धारण कर सकती है। पांच जवानों की हत्या का स्थानीय मामला पूर्ण युद्ध का उद्दीपक कारण भी बन सकता है।
प्रथम विश्वयुद्ध आखिर कैसे शुरू हुआ? 1914 में सरोयेवा में आस्ट्रो-हंगेरियन राजकुमार फ्रांज फर्डीनेंड की हत्या ने सारे यूरोप को युद्ध की भ_ी में झोंक दिया था। और फिर भारत-पाकिस्तान, दोनों ही पड़ोसी हैं और परमाणु शक्ति संपन्न भी हैं। अब एंटनी ने कह दिया कि पाकिस्तानी फौज दोषी है तो बताइए भाजपा या सपा जैसे विरोधी दलों का क्या कहना है? एक सिर के बदले सौ सिर काट लाइए या पांच के बदले पचास तो लाइए। क्या ऐसा करना ठीक होगा, खास तौर से तब जबकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मियां नवाज़ ने ‘खेदÓ व्यक्त किया और नियंत्रण-रेखा के आर-पार स्थानीय फौजी व्यवस्था को बेहतर बनाने की वकालत की है ताकि ऐसी घटनाएं रोकी जा सके। अभी हमारी सरकार को ठीक से यह पता ही नहीं है कि जवानों को किसने मारा है और हम अतिवादी कदम उठाने की मांग करने लगे हैं।
फौज में आमने-सामने लडऩे की ट्रेनिंग दी जाती है, लेकिन सीमा पार से आए आतंकवादी या आतंकियों के वेश में आए पाकिस्तानी फौजी घात लगाकर हमला करते हैं। ऐसे हमलों में हमारे फौजियों का मारा जाना तो किसी भी सरकार के लिए शर्म की बात होनी चाहिए। दूसरी बात हमें यह ध्यान में रखनी चाहिए कि आतंकवाद से जितने हम त्रस्त हैं, उससे कई गुना ज्यादा पाकिस्तान त्रस्त है। नवाज शरीफ के शासन में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता है जबकि पाकिस्तान में कहीं न कहीं आतंकवादियों ने हमला न किया हो। ऐसे मेंं शरीफ की सरकार और भारत सरकार को मिलकर आतंकवादी शत्रु का मुकाबला करना चाहिए या आपस में लड़ मरना चाहिए? शत्रु का शत्रु मित्र, क्या चाणक्य के इस सिद्धांत को हम भूल गए? भूले तो नहीं हैं, लेकिन इसे लागू करने के लिए देश में इंदिरा गांधी या अटलबिहारी वाजपेयी की तरह कोई बड़ा नेता तो हो? सरकार को बड़े बाबू और छोटे बाबू मिलकर चला रहे हैं और इन बाबुओं को विरोधी दलों के नेता कठपुतलियों की तरह नचा रहे हैं। देश ठगा-सा इस तमाशे को देख रहा है।
हम यह न भूलें कि आज पाकिस्तान भारत से युद्ध करने की स्थिति में नहीं है। उसकी फौज का जलवा पैंदे में बैठा हुआ है। ओसामा बिन लादेन की हत्या, अकबर बुग्ती की मौत, लाल-मस्जिद कांड, कराची के नौसैनिक अड्डे पर कब्जा और अमेरिकी ड्रोन हमलों ने पाकिस्तानी फौज को जनता की नजर में नीचा कर दिया है। इसके अलावा अगले माह तक जनरल कयानी की जगह नया सेना-प्रमुख आनेवाला है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति भी खराब है। इसके बावजूद यदि उसकी फौज भड़काने वाली कार्रवाई करे और सरकार को यह समझ में ही नहीं आए कि इस चुनौती से कैसे निपटा जाए तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। यदि भारत में अधकचरी खबरों के आधार पर युद्धोन्माद का माहौल बनता रहा तो नवाज शरीफ की भारत-नीति विफल हो जाएगी। हमारे विदेश नीति-निर्माताओं को सोचना चाहिए कि वे किसके हाथ मजबूत करें? नवाज़ शरीफ़ के या आतंकवादियों के?
इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि हम अपने जवानों की हत्या के मामलों में चुप्पी साध लें। हम बोलें और जोर से बोलें लेकिन उनकी भी सुनें यानी बात करें और बातों से मामले सुलझाएं। जब इन स्थानीय मामलों के लिए बात बंद करना ठीक नहीं तो सितंबर में होनेवाली बड़ी बात को बंद करने की क्या तुक है?
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