Nav Bharat Times, 2 July 2003 : पाकिस्तान अमेरिका का पट्ठा है और भारत का दोस्त, यह जनरल परवेज़ मुशर्रफ की अमेरिका-यात्रा ने सिद्घ कर दिया है| अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने जनरल मुशर्रफ का न केवल केम्प डेविड नामक अपने निजी नंदनवन में स्वागत किया, जो कि किसी भी एशियाई नेता के लिए दुर्लभ सम्मान है बल्कि उन्हें तीन अरब डॉलर की सहायता भी दी है| इस तीन अरब के पहले पिछले पौने दो साल में पाकिस्तान को लगभग साढ़े चार अरब डॉलर की सहायता अमेरिका किसी न किसी रूप में दे चुका है| इतनी बड़ी सहायता इतनी कम अवधि में उसे उस वक़्त भी नहीं मिली, जबकि वह सीटो और सेन्टो नामक अमेरिकी सैन्य-गठबंधनों का सदस्य था| अपने सारे कानून-क़ायदे ढीले करके अमेरिका ने पाकिस्तान को यह छूट भी दे दी है कि वह अपने साढ़े बारह अरब डालर के कज़र् को चुकाने की जल्दी न करे| यह सब पाकिस्तान को आखिर क्यों दिया जा रहा है? सिर्फ इसीलिए कि पाकिस्तान अमेरिका का पट्रठा बन चुका है| अमेरिकी नीति-निर्माताओं की यह धारणा है कि अगर पाकिस्तान साथ नहीं देता तो वे अफगानिस्तान से तालिबान को भगा नहीं पाते| यह ठीक है कि जनरल मुशर्रफ के पैंतरा-बदल से उस समय घबराए हुए अमेरिकियों को काफी दिलासा मिला लेकिन कोई यह तो पूछे कि आखिर पाकिस्तानियों ने अमेरिकी की कौनसी ठोस मदद की? क्या पाकिस्तानी सैनिकों ने अफगानिस्तान के अंदर जाकर तालिबान से दो-दो हाथ किए, क्या उन्होंने तालिबान ठिकानों पर बम-वर्षा की, क्या उन्होंने तालिबान-विरोधी रब्बानी के जवानों को कोई मदद दी? यह ठीक है कि पाकिस्तान के हवाई अड्रडों से कुछ अमेरिकी जहाजों ने उड़ानें भरीं लेकिन ये उड़ानें तो नाम-मात्र की थीं| यदि ये सुविधा अमेरिका वायु-सेना को नहीं भी मिलतीं तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि असली उड़ानें तो ओमान से और उन जंगी बेड़ों से भरी गई थीं, जो अरब सागर में पहले से लाकर टिका दिए गए थे| तालिबान के विरूद्घ जहॉं तक राजनीतिक समर्थन का सवाल है, जैसा समर्थन भारत ने दिया, वैसा पाकिस्तान ने नहीं दिया| अभी पाकिस्तान असमंजस में ही पड़ा था कि भारत ने अमेरिकियों को पूर्ण समर्थन भी देने की घोषणा कर दी| यदि अमेरिका को जरूरत होती तो भारत सैन्य-समर्थन भी देता| भारत के मुकाबले पाकिस्तान ने क्या दिया? सारे सरहदी सूबे में पठानों ने अमेरिका-विरोधी प्रदर्शनों की झड़ी लगा दी| इसी का परिणाम है कि वहॉं चुनावों में पहली बार कठमुल्ला तत्वों ने इतनी बड़ी फतेह हासिल की| इतना ही नहीं, स्वयं जनरल मुशर्रफ ने सितम्बर 2001 में राष्ट्र के नाम अपना जो संदेश प्रसारित किया था, उसमें साफ़-साफ़ कहा कि उन्होंने तब तक तालिबान की जमकर मदद की थी लेकिन अब उनको नुक्सान पहुंचाए बिना वे पाकिस्तानी जहाज को इस अमेरिकी तूफान से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं| उन्होंने उर्दू में प्रसारित अपने संदेश में यह भी कहा था कि इस तरह का आपात्कालीन पैंतरा स्वयं पैग़म्बर मुहम्मद को भी अपनाना पड़ा था| उन्होंने यहूदियों से समझौता किया था| तात्पर्य यह कि मुशर्रफ ने एक तरफ अपने देश के कटृर-पंथियों की खुशामद की और दूसरी तरफ भोले अमेरिकियों को अपने जाल में फॅंसा लिया|
मुशर्रफ की यह नीति आज भी जस की तस चली आ रही है और वह सफल है| कोई अफगान राष्ट्रपति हामिद करज़ई से पूछे कि तालिबान का कितना सफाया हुआ है? तालिबान काबुल से तो हट गए हैं लेकिन अब पेशावर उनकी राजधानी है| पाकिस्तान के सरहदी सूबे और इलाका-ए-ग़ैर में तालिबान के गढ़ बन हुए हैं| गुलबदीन हिकमतयार खुले तौर पर सकि्रय है और अल-कायदा खुफिया तौर पर ! तालिबान-मुखिया मुल्ला उमर और उसामा बिन लादेन आज़ जक नहीं पकड़े गए हैं| क्या पाकिस्तान के हुक्मरानों को यह पता नहीं कि कौन कहॉं छिपा हुआ है? लेकिन वे अमेरिकियों को भ्रमित करते रहते हैं| जब तंग आकर अमेरिकियों ने अपने गुप्तचर पाकिस्तान में उतार दिए और उन्होंने अल-कायदा के ठोस प्रमाण दिए तो पाकिस्तानी पुलिस को मजबूरन कुछ लोग गिरफ्तार करने पड़े| इसके बावजूद पाकिस्तान को अमेरिका सात अरब से भी ज्यादा डॉलर देने की घोषणा कर चुका है|
यदि अमेरिका पर भारत का दबाव नहीं होता और भारतवंशी अमेरिकी नागरिक शोर नहीं मचाते तो शायद जॉर्ज बुश मुशर्रफ पर वे शर्तें भी नहीं लगाते जो उन्होंने यहॉं तीन अरब डॉलर की घोषणा करते समय लगाई है? वे शर्तें क्या हैं? पहली यह कि पाकिस्तान आतंकवाद-विरोधी अभियान में अमेरिका का सकि्रय सहयोग करेगा| दूसरी, वह परमाणु तकनीक और सामग्री किसी अन्य राष्ट्र को नहीं देगा और तीसरी अपने देश में लोकतंत्र की तरफ बढ़ेगा| ये तीनों शर्तें इस अर्थ में कठोर हैं कि इनका पालन हो रहा है या नहीं, इसकी सालाना जॉंच के बाद ही अमेरिका अगले पॉंच साल तक पाकिस्तान को प्रति वर्ष साठ करोड़ डॉलर देगा| यहॉं सवाल यह है कि पिछले पौने दो साल में इससे डेढ़ी मदद देते हुए क्या अमेरिका ने पाक-सरकार की कान-खिंचाई की? इस बीच पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियॉं लगातार जारी हैं, उत्तरी कोरिया को पाकिस्तानी परमाणु मदद मिली है और लोकतंत्र के नाम पर कठपुतली सरकार खड़ी कर दी गई है| सम्पूर्ण सत्ता के केन्द्र अब भी मुशर्रफ और फौज बने हुए हैं| इसके अलावा जहॉं तक आतंकवाद का सवाल है, अमेरिका को सिर्फ उस आतंकवाद से मतलब है, जिसका संबंध अफगानिस्तान से है, न कि उससे जिसका संबंध कश्मीर से है| दूसरे शब्दों में आतंकवाद-विरोध की शर्त से भारत को कोई फायदा नहीं है| यदि अमेरिका भारत की हितों के प्रति जरा भी सजग होता तो वह ऐसा निगरानी-प्रबंध करता कि कश्मीरी आतंकवादी अड्रडों को बंद करने की मासिक रपट तैयार होती, आतंकवादियों की गिरफ्तारी का तांता लग जाता और कश्मीरी जनता को हिंसा से राहत मिलती| इस तरह का कोई भी वादा करने की बजाय मुशर्रफ ने अमेरिका जाने के पहले करगिल को उचित बताया और भारत को धमकी भी दी| इसका अर्थ क्या यह नहीं कि पाकिस्तान को जैसे ही अमेरिका की शै मिलती है, बिल्ली शेर बनने लगती है? भारत इसी गलतफहमी में जिए चला जा रहा है कि अमेरिका मुशर्रफ को दबाएगा| क्यों दबाएगा? उसे क्या फायदा है? भारत को अमेरिका अपना दोस्त जरूर बनाना चाहता है लेकिन दोस्त और पट्रठे में फर्क होता है या नहीं ! शीत-युद्घ के ज़माने में पाकिस्तान अमेरिका के प्रतिद्घंद्घी सोवियत रूस पर भौंकता रहता था और अब वह आतंकवाद पर जबानी जमा-खर्च कर रहा है| पाकिस्तान खुद आतंकवाद का अड्रड बन चुका है| इस अड्रडे को मजबूत बनाने के लिए अमेरिका अब तक साढ़े सात अरब डॉलर दे चुका है जबकि आतंकवाद के सबसे बड़े शिकार अफगानिस्तान को उसने आधा बिलियन डॉलर भी नहीं दिया है| पाकिस्तान को मिलनेवाले तीन अरब डॉलर में से डेढ़ अरब डॉलर फौज के लिए हैं याने अमेरिकी डॉलरों से पाकिस्तान दुबारा करगिल रचा सकता है, कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा सकता है और भारत पर सीधा हमला भी बोल सकता है| पाकिस्तानी फौज का इस्तेमाल क्या भारत के अलावा कभी किसी अन्य देश के विरूद्घ भी हुआ है? अर्थात्र अमेरिकी सहायता शुद्घ भारत-विरोधी है| ऐसे में क्या भारत को अमेरिकी-समर्थन के प्रति यथार्थवादी दृष्टि नहीं अपनानी चाहिए? भारत के खातिर अमेरिका पाकिस्तान को नाराज़ क्यों करेगा? क्या पाकिस्तान की तरह भारत अमेरिका किसी देश का पट्रठा या पिछलग्गू बन सकता है? वह दोस्त बन सकता है लेकिन दोस्त बनने के तकाज़े कुछ दूसरे ही होते हैं|
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