दैनिक भास्कर, 16 नवंबर 2013 : आजकल चुनाव का मौसम है। इस मौसम में पार्टियों और नेताओं के पास नोटों की गड्डियों की झड़ी लगी रहती है। इस मौसम में यह बहस चलना एक सुखद संयोग है कि इन पार्टियों और नेताओं के पास यह पैसा कहां से आता है? उनका कहना है कि चंदे से आता है, लेकिन कोई नेता आज के जमाने में क्या कभी चंदा मांगता हुआ दिखाई पड़ता है? उल्टा ही होता है। आजकल जन-सभाओं और भीड़ में नेता ही नोट बांटते हुए दिखाई पड़ते हैं।
वे दिन गए जब महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल और सुभाष जैसे नेता भी सरेआम झोली फैलाते थे और जनता से चंदा मांगते थे। गांधीजी तो दस्तखत करने की भी इकन्नी मांगते थे और कहते थे कि इसी से ‘स्वराज-कोष’ बढ़ता चला जाएगा। इन महान नेताओं के भाषणों के बाद अक्सर देखा जाता था कि सभा में आईं महिलाएं इतनी भावुक हो जाती थीं कि वे अपनी चूडिय़ां, अगूठियां और यहां तक कि मंगलसूत्र भी उतारकर दान में दे डालती थीं।
जो पैसा चंदे में मिलता था, उसके उपयोग पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी। चंदे का हिसाब ठीक से नहीं मिलने पर गांधीजी ने एक बार उपवास भी कर डाला था, लेकिन पार्टियों के हिसाब का हाल बताने के लिए मैं एक कहावत आपको बताना चाहूंगा, जो अब से 20-25 साल पहले दिल्ली में अक्सर सुनी जाती थी। कहावत यह थी कि ‘न खाता न बही, जो केसरी कहे, वही सही!’ यानी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी के पास अकूत धन का अम्बार लगा रहता था।
कांग्रेस ही क्या, अब तो कोई दल ऐसा नहीं बचा है, जिसमें दस-पांच केसरी सक्रिय न हों। जिस बेशर्मी से उत्तरप्रदेश के कुछ शीर्ष नेता अपने कार्यकर्ताओं से चुनावी उम्मीदवारी के लिए पैसे मांगते हुए टीवी चैनलों पर दिखाए गए, वह बेशर्मी आजकल लगभग सभी पार्टियों में फैल गई है। विधानसभा के लिए चल रहे वर्तमान चुनावों में टिकिट पाने के लिए उम्मीदवारों ने अपने नेताओं को एक-एक करोड़ रुपए तक की रिश्वतें दी हैं। ये तथ्य कई उम्मीदवारों ने मुझे खुद बताए हैं।
पैसा इक_ा करने की ये तकनीक पुरानी पडऩे लगी है। हमारे आज के नेताओं के लिए हजारों-लाखों रुपए का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। उनके अपने और राजनीति के खर्चे करोड़ों, अरबों और खरबों में होने लगे हैं। इतना पैसा उन्हें एकमुश्त कैसे मिले? नेहरू और शास्त्री के बाद के नेताओं ने धीरे-धीरे एक नई तकनीक विकसित की। उन्होंने देखा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां कितने मजे से चलती हैं? रूस और चीन का पैसा उन्हें मिलता है और भारत में उन पर कोई उंगली उठानेवाला नहीं होता।
तो हम भी कोई विदेशी स्रोत क्यों न खोजें? विदेशी स्रोत के कई फायदे हैं। एक तो उसका पता लगाना मुश्किल होता है। दूसरा, पैसे देने वाला आपको रोज-रोज तंग करने की स्थिति में नहीं होता है। तीसरा, वह माले-मुफ्त होता है तो हम भी दिले-बेरहम हो सकते हैं। खूब खाओ और खर्च करो। कोई पूछनेवाला नहीं है। जब पैसा इक_ा करने का यह चलन चल निकला तो अब ऐसे गोपनीय दस्तावेज भी सामने आ रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत के कर्णधारों ने केजीबी (रूसी खुफिया तंत्र) और सीआईए (अमेरिकी खुफिया तंत्र) से भी पैसा उलीचने में कोई संकोच नहीं किया।
राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनने पर पता चला कि हमारे मंत्री, अफसर और सेना के अधिकारी भी नहीं चूकते। हर विदेशी सौदे पर वे कमीशन खाते हैं। यदि ऊपर के लोग हाथ साफ कर रहे हैं तो नीचे के लोग क्या अपनी उंगलियां भी न धोएं। राजीव तो निर्मल हृदय के मासूम व्यक्ति थे। उन्होंने इस प्रथा को खत्म करने का संकल्प लिया और अपने अनुभवी साथियों से परामर्श किया। खुर्राट कांग्रेसियों ने पूछा कि कांग्रेस जैसी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को चलाने के लिए आप पैसा कहां से लाएंगे? करोड़ों रुपए रोज का खर्च ‘चार आने के चंदे’ से कैसे चल पाएगा? राजीव ने नया रास्ता निकाला।
उन्होंने सीबीआई के तत्कालीन निदेशक एपी मुखर्जी को हिदायत दी कि अब विदेशी सौदों से जितना भी पैसा मिले, वह सब पार्टी कोष में जाना चाहिए, मंत्रियों और अफसरों की जेब में नहीं। उन्होंने भ्रष्टाचार के कैंसर को सीमित करने की कोशिश की, लेकिन दलाली की इस परंपरा ने भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया। अब दलाली लगभग वैधानिक-सी बन गई। सुरक्षित हो गई। उस पर एकाधिकार कायम हो गया।
जो हाथ यह दलाली करता था, वह इतना मजबूत था कि उस पर हाथ डालने की हिम्मत कौन कर सकता था। बोफोर्स के मामले में कुछ हिम्मत की गई, लेकिन कुछ नहीं निकला। दलाली ली गई और दी गई, यह तो सिद्ध हो गया, लेकिन लेनेवाला कौन था, यह आज तक सिद्ध नहीं हो पाया। यह जादू की छड़ी आजकल हर सत्तारूढ़ पार्टी घुमा रही है और पैसों की बरसात हो रही है। अब पैसे सिर्फ तोपों में ही नहीं खाए जा रहे हैं, पनडुब्बियों में, जहाजों में, टेलीफोनों और फौजियों के जूतों में भी खाए जा रहे हैं। अब 60-65 करोड़ को कौन पूछता है? अब लाखों-करोड़ यानी अरबों-खरबों में पैसा खाया जा रहा है।
विदेशी सौदों में तो केंद्र के नेता ही अपने हाथ साफ करते हैं, लेकिन प्रांतीय और स्थानीय नेता क्या करें? उन्हें भी चुनाव लडऩे के लिए करोड़ों रुपए चाहिए। वे अपने बड़े नेताओं का अनुकरण करते हैं। जब प्रधानमंत्री जैसे लोग दलाली करने में कोई शर्म महसूस नहीं करते तो वे क्यों चूकें? सारी पार्टियां आयकर विभाग और चुनाव आयोग को अपने आय-व्यय का सालाना हिसाब पेश करती हैं। इस बार सारे प्रमुख दलों की आय लगभग पांच हजार करोड़ रुपए बताई गई है। कांग्रेस की लगभग दो हजार करोड़ और भाजपा की लगभग एक हजार करोड़।
ये इन हाथियों के दिखाने के दांत हैं। उनके खाने के दांत तो दस-गुना बड़े होंगे। चुनावों में अरबों रुपए खर्च करने वाले ये दल अगले पांच साल तक क्या करते हैं? अपने पैसा देने वाले मेहरबान सेठों की सेवा करते हैं। जनता की सेवा भी करते हैं, लेकिन उसका नंबर दूसरा होता है। इन नेताओं से कोई नहीं पूछता कि यह पैसा कहां से आया?
सिर्फ 20 हजार रुपए से ज्यादा एकमुश्त कहीं से आएं तो उसका नाम बताना पड़ता है। इससे बचने के लिए वे 20 हजार रुपए से कम की लाखों फर्जी रसीदें जमा करा देते हैं। अब उन्हें कौन पकड़े? कांग्रेस और भाजपा मांग कर रही है कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी ‘आप’ को जो 19 करोड़ रुपए मिले हैं, उसकी जांच की जाए। क्या खूब! इस पार्टी ने तो अपने सारे चंदे को ‘वेबसाइट’ पर पहले से ही डाल दिया है, लेकिन आप तो बड़े हैं, पुराने हैं, आप वित्तीय स्वच्छता का कोई उदाहरण क्यों नहीं पेश करते?
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