3 Dec. 2002 : रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दूसरी बार भारत आए हैं| पिछली बार आने में और इस बार आने में काफी फर्क है| जब अक्तूबर 2000 में वे भारत आए थे, तब तक न न्यूयॉर्क का ट्रेड टॉवर गिरा था, न भारत की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था और न ही मास्को के थियेटर ने रक्त-स्नान किया था| पिछले दो वर्ष के अन्तराल में घटी इन तीन घटनाओं ने सारी दुनिया का परिदृश्य तो बदला ही है, असली प्रश्न यह है कि उन्होंने भारत-रूस संबंधों को भी नए धरातल पर पहुँचाया है या नहीं|
अपनी पिछली यात्रा के दौरान पुतिन ने बोरिस येल्तसिन से एक कदम आगे बढ़ाया लेकिन वे बुल्गानिन और ख्रुश्चौफ की हद तक नहीं जा सके| उन्होंने भारत-रूस मैत्री का गुणगान जमकर किया लेकिन कश्मीर, पाकिस्तान और सीमा-पार आतंकवाद पर वे दबी जुबान से बात करते रहे| वे उस हद को भी नहीं छू पाए, जिस हद पर खड़े होकर क्लिंटन ने पाकिस्तान को आड़े हाथों लिया था| पुतिन के छह माह पहले ही क्लिंटन भारत आए थे| पुतिन ने सीमा-पार के आतंकवाद के लिए पाकिस्तान का नामोल्लेख तक नहीं किया| जैसे भारतीय पत्नियाँ अपने पति का नाम बोलने में सकुचाती हैं, उसी तरह पुतिन इशारों में बात करते रहे और कश्मीर के सवाल पर उन्होंने वह जँवामर्दी नहीं दिखाई, जो अब से चालीस साल पहले ख्रुश्चौफ और बुल्गानिन ने दिखाई थी| कश्मीर के सवाल पर पुतिन के रूस का रवैया यही रहा है कि भारत और पाकिस्तान मिलकर उसे हल करें| जहाँ तक आतंकवाद के मुकाबले का सवाल है, क्लिंटन के मुकाबले पुतिन ने कुछ बेहतर सूचनाएँ दीं और उसके संगीन पहलुओं को उजागर किया लेकिन इस बार पुतिन ने जरा ज्यादा स्पष्टवादिता से काम लिया है|
भारत आने के पहले ही उन्होंने अखबारों और टी.वी. को दी गई भेंटवार्ताओं में इस बार पाकिस्तान का नामोल्लेख कर दिया है| पुतिन के बयानों पर पाकिस्तान सरकार बौखलाई हुई है| पुतिन ने मुशर्रफ के कुछ आतंकवाद-विरोधी कदमों की सराहना तो की लेकिन यह भी कह दिया कि पाकिस्तान में जो सर्वनाशी हथियार हैं, वे ‘गुण्डों और आतंकवादियों’ के हाथों में पहुँच सकते हैं| कुछ दिन पहले उन्होंने उसामा बिन लादेन के जिन्दा होने और पाकिस्तानी जमीन पर ही होने का संदेह भी व्यक्त किया था| उन्होंने उसामा को तालिबान और पाकिस्तान को जुड़ा हुआ भी बताया था| जाहिर है कि इस बार भारत आने के पहले पुतिन ने जो बातें कही हैं, वे उनके अनुभव से उपजी हैं, कोरे विदेश-नीति विश्लेषण से नहीं| जो बात भारत कल कह रहा था, वह रूस आज कह रहा है| मास्को के थिएटर में पुतिन की सरकार ने जबर्दस्त हिम्मत का परिचय दिया| उसने आतंकवादियों के आगे घुटने टेकने की बजाय उनकी कमर तोड़ दी लेकिन इस संघर्ष से यह संकल्प भी क्रेमलिन में उभरा है कि आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए हर राष्ट्र को अपनी कमर खुद कसनी होगी| अगर वे अमेरिका की बाट जोहते रहे तो उनके पास घुटने टेकने के अलावा कुछ रास्ता नहीं रह जाएगा| क्या भारत भी लगभग यही नहीं सोच रहा है ? आतंकवादियों से निपटने के लिए भारत और रूस को संयुक्त रणनीति बनानी होगी| भारत और रूस दोनों ही जिस तरह आतंकवाद के शिकार रहे हैं, अमेरिका और चीन नहीं रहे हैं| अमेरिका में तो एक अकेला बड़ा हादसा होकर रह गया और चीन के सिंक्यांग प्रांत में थोड़ा-बहुत इस्लामी आतंकवाद का उत्पात होता रहता है लेकिन भारत और रूस तो उस आतंकवाद के सीधे निशाने पर हैं, जिसकी पौधशाला पाकिस्तान में हैं और जिसकी शाखाएं फिलीपीन्स से इण्डोनेशिया होती हुई अफगानिस्तान और अरब देशों तक फैली हुई हैं| पाकिस्तान के प्रति भारत और रूस का रवैया न सिर्फ कठोर होना चाहिए बल्कि इन दोनों राष्ट्रों को मिलकर आतंकवाद के स्रोत पर प्रहार करने के लिए कोई दो-टूक सिद्घांत प्रतिपादित करना चाहिए| यदि इस मुहिम में वे चीन को भी जोड़ सकें तो सोने में सुहागा होगा|
जहाँ तक भारत, रूस और चीन के त्र्िाकोण का प्रश्न है, यह शुद्घ खयाली पुलाव है| यदि पुतिन ने तीनों देशों के आपसी संबंधों को अच्छा बता दिया और भावी सहयोग के नए आयामों पर उंगली रख दी तो इसका मतलब यह नहीं कि तीनों मिलकर किसी नए गुट का निर्माण करने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं| यह गलतफहमी इसलिए भी हो सकती है कि पुतिन चीन और भारत की यात्रा साथ-साथ कर रहे हैं| पुतिन ने अपनी पिछली भारत-यात्रा के दौरान इस आशंका का निराकरण स्पष्ट रूप से कर दिया था और इस बार भी कर रहे हैं| जो राष्ट्र पाकिस्तान जैसे छोटे-से देश की नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहता, वह अमेरिका को अपना दुश्मन कैसे बना सकता है ? सितम्बर में भारत, रूस और चीन के विदेशमंत्रियों की जो बैठक न्यूयॉर्क में हो गई थी, उसे लेकर भी तरह-तरह के अनुमान लगाए जाने लगे थे| ऐसी बैठकें भविष्य में भी होंगी और इतना ही नहीं, अगर इन तीनों देशों के शीर्ष नेता एक संयुक्त बैठक भी बुला लें तो भी वह कोई अमेरिका-विरोधी गुट बनाने की साजिश नहीं हो सकती| यदि ये तीनों राष्ट्र कोई अमेरिका-विरोधी गुट बनाएँगे तो उन्हें निजी तौर पर तो नुक्सान होगा ही, संयुक्त हानि भी होगी| तीनों राष्ट्र मध्यम शक्ति हैं, जबकि अमेरिका महत्तम शक्ति है| यदि अमेरिका केवल महाशक्ति होता,जैसा कि बि्रटेन या फ्रांस हैं तो निश्यच ही भारत, रूस और चीन उस पर भारी पड़ते| वास्तविकता तो यह है कि इन तीनों राष्ट्रों ने विपक्षीय स्तर पर अमेरिका से इतने गहरे आर्थिक संबंध बना रखे हैं कि वे इन्हें किसी भी क़ीमत पर आहत नहीं होने देंगे| इन तीनों राष्ट्रों के आपसी संबंध भी इतने गहरे नहीं हैं कि वे उनके अमेरिका के साथ जो संबंध हैं, उनका मुकाबला कर सकें| इसके अलावा अगर भारत, रूस और चीन मिलकर गुट बनाएँगे तो पाकिस्तान का क्या होगा ? तब शायद पाकिस्तान इस क्षेत्र का सबसे खतरनाक राष्ट्र बन जाएगा| अमेरिका की सारी ताकत पाकिस्तान की रक्षा में लग जाएगी और अमेरिका चाहेगा कि पाकिस्तान उसका ऐसा गुर्गा बन जाए जो तीनों राष्ट्रों की नाक में दम किए रखे| ज़रा याद करें, अब से 40-50 साल पुराना ज़माना| उस समय रूस और चीन एक ही खेमे में थे और भारत गुट-निरपेक्ष होते हुए भी लगभग उन्हीं के साथ था| इन तीनों राष्ट्रों ने मिलकर पाकिस्तान का क्या बिगाड़ लिया ? अब तो पाकिस्तान अमेरिका की नाक का बाल बना हुआ है| मुशर्रफ को अमेरिका में बुशर्रफ कहा जाता है| अमेरिका मानता है कि आतंकवाद-विरोधी लड़ाई में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा सिपहसालार है| यदि पाकिस्तान उसका साथ नहीं देता तो वह तालिबान और उसामा बिन लादेन को अफगानिस्तान से खदेड़ ही नहीं पाता| ऐसी स्थिति में अमेरिका-विरोधी गुट खड़ा करने का अर्थ है, पाकिस्तान को इस क्षेत्र का सबसे मजबूत राष्ट्र बनाना याने भारत के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द पैदा करना ! पाकिस्तान जितना भारत को नुकसान पहुँचाएगा, क्या रूस और चीन को पहुँचाएगा ? क्यों पहुँचाएगा ? इसलिए यदि रूस और चीन मिलकर कोई अमेरिका-विरोधी गुट बनाना चाहें तो भारत को उसमें शामिल नहीं होना चाहिए|
भारत चाहे तो इससे भी आगे जा सकता हैं उसका प्रयत्न यह होना चाहिए कि ये तीनों राष्ट्र मिलकर अमेरिका के नज़दीक जाएँ और उसे समझाएँ कि जब तक वह पाकिस्तान की इस पौधशाला में मठ्रठा नहीं डालेगा, आतंकवाद की जड़ें सदा हरी रहेंगी| भारत कश्मीर में, रूस चेचन्या मेें और चीन सिंक्यांग में आतंकवाद को दबाना चाहता है| अगर ये तीनों मिलकर पाकिस्तान को दबाएँ तो क्या अमेरिका उसका विरोध करेगा ? पेइचिंग में चीनी राष्ट्रपति च्यांग चे मिन और पुतिन ने आतंकवाद के विरुद्घ जो घोषणा की है, क्या अमेरिका उसका स्वागत नहीं करेगा ?
जहाँ तक भारत और रूस के द्विपक्षीय संबंधों का सवाल है, उनमें कोई चमत्कारी प्रगति हुई हो, ऐसा नहीं लगता| गत वर्ष प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी मास्को गए थे| उस समय आतंकवाद पर संयुक्त घोषणा हुई थी और संयुक्त सुरक्षा-व्यवस्था बनाने की बात भी हुई थी लेकिन उसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया| उसके बाद मास्को थियेटर और अक्षरधाम-रघुनाथ मंदिर आदि घटनाएँ हो गई लेकिन क्या कोई संयुक्त कार्रवाई हुई ? इधर भारत के साथ संयुक्त कार्रवाई की घोषणा है और उधर रूस ने पाकिस्तान के साथ आतंकवाद-विरोध के लिए संयुक्त कार्यदल का भी निर्माण कर रखा है| अगर पुतिन इधर आए हुए हैं तो वह कार्यदल उधर गया हुआ है| उनकी पिछली भारत-यात्रा के समय भी लगभग यही हुआ था| क्या रूस की इस तरह की दोमुँही नीति भारत को अपना परम मित्र बना सकती है ? बल्कि यों कहा जाए तो बेहतर होगा कि पाकिस्तान के प्रति अमेरिका जो बड़े पैमाने पर कर रहा है, रूस वही छोटे पैमाने पर कर रहा है| चीन का हाल तो बदतर है| उसने पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई है| उसे वह निरन्तर हथियार देता रहता है, जो भारत के विरुद्घ प्रयुक्त होते हैं| इसके अलावा चीन की कोशिश रहती है कि पाकिस्तान भारत के पाँव में फाँस की तरह गड़ा रहे| चीन कभी नहीं चाहेगा कि रूस पाकिस्तान का स्पष्ट विरोध करे| ऐसे में रूस और चीन की खातिर भारत अमेरिका के साथ अपने संबंध क्यों बिगाड़े ?
आज रूस के लिए जितना महत्व चीन का है, उतना भारत का नहीं है| भारत के साथ उसका व्यापार मुश्किल से सात-आठ हजार करोड़ रु. का है जबकि चीन के साथ 65-70 हजार करोड़ रु. का है| चीन के साथ रूस की हजारों मील की सीमा है और उसके विवाद भी हल हो चुके हैं| चीनी राष्ट्रपति ने रूस के साथ अनंत मैत्री की घोषणा की है| स्वयं रूस चाहता है कि अफगानिस्तान होकर जानेवाला उसका माल कराची बंदरगाह तक पहुँचे| पाकिस्तान को खुश रखे बिना यह कैसे संभव है ? इसीलिए भारत रूस से विमानवाहक गोर्शकोव पोत खरीदे या अपना व्यापार 25 हजार करोड़ तक बढ़ाए या आतंकवाद-विरोधी खाली-पीली घोषणाएँ करें, भारत रूस संबंधों में कोई बुनियादी परिवर्तन की संभावनाएँ कम ही दिखाई पड़ती हैं|
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