R Sahara 21 Sept 2003 : सारी दुनिया में शेर अपनी पूंछ को हिलाता है लेकिन पश्चिम एशिया में पूंछ अपने शेर को हिला रही है| पूंछ है, इस्राइल और शेर है, अमेरिका | सुरक्षा परिषद में जब यासर अराफात की हत्या के विरुद्घ प्रस्ताव आया तो अमेरिका ने उस पर वीटो (निषेधाधिकार) का प्रयोग किया| किसी भी अन्य राष्ट्र की हिम्मत नहीं पड़ी कि उस अरब-प्रस्ताव का विरोध करे| 15 में से 11 राष्ट्रों ने उस प्रस्ताव का समर्थन किया| केवल जर्मनी, बि्रटेन और बल्गारिया ने समर्थन नहीं किया लेकिन उन्होंने परिवर्जन (एब्सटेन) किया| यदि विरोध किया तो केवल अमेरिका ने| याने अमेरिका ने वह किया, जो इस्राइल स्वयं करता| इस्राइल को अमेरिका डॉंट पिलाता, यासर अराफात की हत्या के इरादे को जघन्य बताता, अन्तरराष्ट्रीय कानून के संभावित उल्लंघन की निन्दा करता, इसके बजाय उसने जो किया, उससे ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका कोई न्यायप्रेमी महाशक्ति है| वह महाशक्ति नहीं, महाकमजोरी बन गया है| उसका तर्क कितना बोदा है| संयुक्तराष्ट्र में अमेरिकी प्रतिनिधि ने कहा कि हम इसलिए वीटो कर रहे हैं कि इस अरब-प्रस्ताव में फलस्तीनी आतंकवाद की निन्दा नहीं की गई है| निन्दा होती तो सही होता लेकिन अरब राष्ट्र यह कैसे करते? अमेरिका अपनी यह आपत्ति दर्ज करवाकर भी इस प्रस्ताव का समर्थन कर सकता था| महाशक्ति और मध्यस्थ के नाते अमेरिका की इज्जत बढ़ती लेकिन उसे इज्जत की परवाह कहॉं है? अगर होती तो वह एराक़ में क्यों घुसता? वास्तव में अमेरिका का बर्ताव बड़ा तर्कसंगत है| जिस तर्क से वह एराक़ में घुसा है, वही तर्क वह फलस्तीन पर लागू कर रहा है| यदि अमेरिका सद्रदाम हुसैन को मारने के लिए कटिबद्घ है तो इस्राइल अराफात को मारने की घोषणा क्यों न करे? यह समझ में नहीं आता कि कौन गुरू है और कौन चेला? क्या यह सच नहीं कि दूसरे राष्ट्रों के नेताओं पर प्रहार करने का पाठ अमेरिका ने इस्राइली किताब से पढ़ा है? जैसा रवैया अराफात के प्रति इस्राइल ने अपनाया है, वैसा मुशर्रफ के प्रति भारत ने अपनाया होता तो क्या अमेरिका उसका समर्थन करता?
इस्राइली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन की अच्छी-भली भारत-यात्रा पर अवसाद की छाया मंडराने लगी है| भारत-यात्रा के बीच में से ही वे लौटे और उनकी सरकार ने अराफात की हत्या का संकल्प घोषित किया| अराफात एक राष्ट्राध्यक्ष हैं| प्रचंड बहुमत से चुने हुए नेता हैं| फलस्तीनी आजादी के प्रतीक हैं| संयुक्तराष्ट्र एवं सारी दुनिया से मान्यता-प्राप्त हैं| पिछले डेढ़-दो वर्षों से उन्हें अपने मुख्यालय में ही कैद करके रख दिया गया है | इस्राइल ने उन्हें घेर रखा है| यद्यपि उनकी हत्या की घोषणा इस्राइल ने वापस ले ली है लेकिन इस्राइल और उसके अमेरिकी आका जानते हैं कि यदि अराफात को कुछ हो गया तो इस्राइल और अमेरिका की खैर नहीं है| अराफात सद्रदाम नहीं हैं| अराफात की हत्या की क़ीमत चुकाना अमेरिका और इस्राइल को बहुत भारी पड़ेगा| यों भी इस्राइली घोषणा और उसका प्रकारान्तर से अमेरिकी समर्थन, दोनों राष्ट्रों की छवि विकृत कर रहा है| शेरोन की भारत-यात्रा के समय अमेरिका, इस्राइल और भारत के त्रिगुट बनने का जो हल्का-सा धुऑं उठा था, वह अब गहरे काले बादलों में बदल गया है| क्या भारत अमेरिका और इस्राइल की हॉं में हॉं मिलाएगा? क्या उसकी भूमिका चाटुकार और विदूषक की होगी ? नहीं होगी, नहीं हो सकती| इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्री को तुर्की में अराफात और एराक़, दोनों मामलों पर अपनी स्वतंत्र राय प्रकट करनी पड़ी| अराफात पर इस्राइली प्रहार का कूटनीतिक समर्थन करके अमेरिका ने एराक में अपनी दुर्दशा कर ली है| अमेरिका के प्रति अब किस एशियाई या अफ्रीकी राष्ट्र की सहानुभूति रह जाएगी? इस्राइल और फलस्तीन के बीच चल रही अमेरिकी मध्यस्थता की दुकान का माल अब कौन खरीदेगा? दस साल पहले अराफात और इस्राइली प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन के बीच सम्पन्न ओस्लो-समझौते के ताबूत पर अब अमेरिका ने मजबूत कीलें ठोक दी हैं| 1994 में शांति का नोबेल पुरस्कार अराफात और राबिन को संयुक्त रूप से मिला था| राबिन की हत्या इस्राइलियों ने ही कर दी थी| अब वे अराफात की हत्या पर आमादा हैं| पिछले दो साल से अमेरिका की कोशिश है कि अराफात इस्तीफा दे दें, कहीं चले जाऍं, संन्यास ले लें, चुनाव हार जाऍं| लेकिन 74 साल की आयु में भी अराफात एक नौजवान की तरह डटे हुए हैं| पिछले दिनों शांति का नक्शा पेश करते हुए अमेरिका ने महमूद अब्बास को अराफात पर थोपवा दिया था| प्रधानमंत्री के तौर पर अब्बास कुछ नहीं कर पाए| अमेरिकियों की गोटियॉं खेलते रहे और आखिरकार चलते बने| जब तक इस्राइल सहज राज्य की तरह पेश नहीं आएगा, फलस्तीनी इलाकों को खाली नहीं करेगा, अपनी दुर्दान्त आक्रामकता से बाज़ नहीं आएगा, पश्चिमी एशिया में शांति स्थापित नहीं होगी| यदि यहूदी दो हजार साल तक लड़ सकते हैं तो फलस्तीनी चार हजार साल तक क्यों नहीं लड़ सकते?
मोरिशसमेंगोराप्रधानमंत्री
मोरिशस में क्या चल रहा है, इसका पता हम लोगों को बहुत कम होता है, क्योंकि वहॉं न तो हमारे किसी अखबार का प्रतिनिधि है और न ही समाचार समिति का| मोरिशस की खबरें हमारे अखबारों को पेरिस की ‘एजान्स फ्रांस’ से मिलती है| मोरिशस से फ्रांसीसियों को विदा हुए लगभग 200 साल हो गए लेकिन अब भी उस देश पर फ्रांसीसी भाषा और संस्कृति की जबर्दस्त पकड़ है| अब 30 सितंबर को मोरिशस में जो होने जा रहा है, वह ऐतिहासिक है, अपूर्व है| पहली बार एक गैर-भारतीय और एक गैर-हिन्दू मोरिशस का प्रधानमंत्री बनेगा| उसका नाम है – पॉल बेरांजे (अंग्रेजी में बेरेन्जर)! मोरिशस में गोरी चमड़ेवाले फ्रांसीसी मूल के लोगों की संख्या मुश्किल से दस हजार है लेकिन दस-बारह लाख भूरे-काले लोगों के देश में अब एक गोरा प्रधानमंत्री होगा| यह चमत्कार कैसे हो रहा है? सितंबर 2000 में जो आम-चुनाव हुए थे, उसमें बेरांजे की पार्टी ‘मूअमा मिलितॉं मोरिस्यें’ और अनिरुद्घ जगन्नाथ की पार्टी, ‘मूअमा सोस्यालिस्त मोरिस्यें’ में यह समझौता हुआ था कि अगर उनका गठबंधन सत्तारूढ़ हुआ तो तीन साल तक जगन्नाथजी राज करेंगे और दो साल तक पॉल बेरांजे| इसी समझौते के आधार पर बेरांजे 30 सितंबर को प्रधानमंत्री बन रहे हैं | जगन्नाथजी राष्ट्रपति बनेंगे और उनका बेटा प्रवीन जगन्नाथ उप-प्रधानमंत्री| राष्ट्रपति कार्ल उफमान इस्तीफा दे रहे हैं| बेरांजे के प्रधानमंत्री बनने से मोरिशस के भारतीयों में भारी घबराहट है| उन्हें डर है कि कहीं मोरिशस का हाल भी फीजी-जैसा नहीं हो जाए| यह डर बिल्कुल निराधार है| खुद बेरांजे की पार्टी में भारतीयों का बहुमत है| इसके अलावा राष्ट्रपति और उप-प्रधानमंत्री भारतीय पिता-पुत्र हैं| मोरिशस की संसद में भारतीयों का प्रचंड बहुमत है| मोरिशस की फौज और पुलिस भी भारतीयों के हाथ में है| यह ठीक है कि मोरिशस के चीनी-उद्योग और वस्त्र-उत्पादन पर फ्रांसीसियों का वर्चस्व है लेकिन गन्ना-उत्पादन और खेरची व्यापार भारतीयों के हाथ में ही है| इसके अलावा पॉल बेरांजे स्वयं कट्रटर लोकतांत्र्िाक नेता हैं | वे कई बार चुनाव जीते हैं और हारे हैं| वे कई बार वित्तमंत्री और उप-प्रधानमंत्री रहे हैं| आजकल भी वे उप-प्रधानमंत्री हैं| यह संयोग की बात है कि वे बीसियों वर्षों से मेरे निजी मित्र हैं| वे जब भी भारत की सरकारी यात्रा पर आते हैं, दिल्ली में मेरे घर आना नहीं भूलते| गत वर्ष उन्होंने इच्छा प्रकट की बिल्कुल मेरी तरह वे कुर्ता-धोती पहनना चाहते हैं| मेरे दर्जी ने उन्हें तत्काल कुर्ते-पाजामे के दो जोड़े सीकर दिए| मैंने कहा, धोती बाद में| रेशमी कुर्ता उन्होंने उसी समय पहना और बच्चों की तरह किलकने लगे| उन्होंने कहा कि अब वे हिन्दी भी सीखेंगे| उनके राज्याभिषेक में उपस्थित रहना है, यह वचन उन्होंने दो वर्ष पहले ही ले लिया था | सो, अब मैं और वेदवतीजी मोरिशस रवाना हो रहे हैं|
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