रा. सहारा, 12 जून 2008 : प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को अभी चीन गए, छह माह भी नहीं हुए थे कि प्रणव मुखर्जी चीन चले गए| क्यों गए, यह समझ में नहीं आया| कोई मंत्री, खासतौर से विदेश मंत्री, जब किसी देश की यात्रi करता है तो उसके साथ कई उच्च अधिकारियों और सहायकों का लाव-लवाजिमा जाता है| वे हवाई जहाज की प्रथम श्रेणी में यात्रi करते हैं और पॉंच-सितारा होटलों में ठहरते हैं| खाने और पीने की दावतें भी करनी पड़ती है| कहने का मतलब यह कि लाखों रूपए खर्च होते हैं| जितने दिनों तक मंत्रीजी बाहर रहते हैं, इधर विदेश मंत्रलय के काम-काज पर असर पड़ता है, उधर हमारे दूतावास के अन्य सब काम-काज लगभग ठप हो जाते हैं| ऐसी यात्रओं की अगर कोई ठोस उपलब्धि नहीं हो या होने के संकेत भी न मिले तो देश के करदाताओं को चिंता होनी चाहिए|
यहॉं यह नहीं कहा जा रहा है कि प्रणव मुखर्जी ने चीन में चार दिन तक पिकनिक मनाई| उन्होंने कम से कम तीन उल्लेखनीय काम किए| एक तो गुआंगजाऊ में भारतीय वाणिज्य दूतावास का उदघाटन किया| दूसरा, सिचुआन जाकर बाढ़ग्रस्त चीनियों को सहायता चेक दिया और तीसरा, पेइचिंग में उन्होंने महान प्राच्यविद ची सियानलिन को पदमभूषण प्रदान किया| इसमें शक नहीं कि इन कामों ने चीनी जनता की भावना को छुआ होगा| वाणिज्य-वृदि्रध की दृष्टि से गुआंगजाऊ में जो कि चीन की व्यापारिक राजधानी है, दूतावास खोलना भी परम आवश्यक था लेकिन ये सब काम कोई अफसर या राजदूत भी कर सकता था| जो काम सिर्फ मंत्री ही कर सकते हैं, वे काम कहॉं तक हुए, हुए या नहीं हुए और अगर हुए तो कैसे हुए-यह देखना संसद और खबरतंत्र् का काम है|
जून में चीन जानेवाले विदेशमंत्री से आशा की जा रही थी कि जनवरी में प्रधानमंत्री जो सूत्र् वहॉं छोड़ आए थे, उन्हें वे आगे बढ़ाएंगे| क्या-क्या थे, वे सूत्र्? सबसे पहले तो सुरक्षा-परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए चीन का समर्थन मिलना चाहिए था| जो बात चीनियों ने मनमोहन सिंह से कही, वहीं उन्होंने मुखर्जी से कह दी| फिर से बासी कढ़ी परोस दी| याने चीन भारत की इस इच्छा का सम्मान करता है कि वह विश्व-संस्था में बड़ी भूमिका निभाना चाहता है| चीन को खुले-आम यह कहने में संकोच क्यों है कि वह भारत की सदस्यता का समर्थन करता है| यह बात रूस, फ्रंास और बि्रटेन कह चुके हैं| चीन उसी तरह कंजूसी बरत रहा है, जैसे अमेरिका बरतता है| आश्चर्य तो इस बात पर है कि पिछले माह ब्राजील, रूस, चीन और भारत के विदेश मंत्रियों की संयुक्त बैठक में सब राष्ट्रों ने भारत का स्पष्ट समर्थन किया था लेकिन अब जबकि भारतीय विदेश मंत्री खुद चीन गए तो द्विपक्षीय विज्ञप्ति में चीन पीछे खिसक गया| क्यों खिसक गया? उसे पता है कि उसकी उस हरकत पर भारत नाराज नहीं होगा| यदि चीन जाने से पहले मुखर्जी इस संबंध में स्पष्ट आश्वासन ले लेते तो उनकी यात्र सफल होती|
दूसरा, तिब्बत के सवाल पर चीनी विदेश मंत्री ने भारत की काफी प्रशंसा कर दी| क्या प्रशंसा की? वाह, आपने प्रदर्शनकारी तिब्बतियों और दलाई लामा पर कितनी कड़ी लगाम लगाई| ओलंपिक ज्योति सही सलामत पेइचिंग पहुंच गई| इसे प्रशंसा कहे या निंदा? यह भारत के लोकतंत्र् की कैसी उपलब्धि है? भारत का विरोध करनेवालों को भारत में स्वतंत्र्ता है लेकिन चीन का विरोध करनेवालों को हम बेडि़यों में जकड़ देते है| नगा, मिजो, कश्मीरी और अन्य अलगावादी खुले-आम प्रदर्शन करते है लेकिन तिब्बतियों पर हमने ताला ठोक दिया है| वास्तव में तिब्बत पर उठे संसार-व्यापी ज्वार का लाभ उठाने में हमारी सरकारी पिछड़ गई| इस मौके पर चीन से हम मांग कर सकते थे कि वह अरूणाचल पर अपना दावा छोड़ें| तिब्बत को भारत-सरकार ने चीन का हिस्सा मान ही लिया है लेकिन वह तिब्बत में मानव अधिकारों की रक्षा की बात तो कर ही सकती थी| बेचारे प्रणव मुखर्जी में इतनी हिम्मत कहॉं है?
तीसरा, चलो तिब्बत की बात जाने दें, सिक्किम तो 2003 में पूरी तरह सुलझ गया था न ! अब उस पर भी चीनी चोंच गड़ा रहे हैं| ‘फिंगर एरिया’ नामक भारतीय क्षेत्र् में खड़े किए गए पत्थर के निशानों को वे गिरा रहे हैं| लगभग 2 वर्ग किमी के क्षेत्र् को वे कब्जाना चाहते हैं| पता चला है कि भारतीय विदेश मंत्री ने यह मुद्दा ही नहीं उठाया| यह मुद्दा चीनियों ने उठाया| अगर यह सच है तो मानना पड़ेगा कि दब्बूपन की हद हो गई है| कोई कारण नहीं है कि ईमान की बात कहने में भी भारत को हकलाना पड़े| मुखर्जी को चाहिए था कि वे सिक्किम का मामला तो उठाते ही, तिब्बत की राजधानी ल्हासा में वाणिज्य दूतावास खोलने का भी प्रस्ताव रखते| वे चाहते तो चीन से न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भी भारत के समर्थन का वायदा लेते|
चौथा, सीमा-विवाद भी जहां का तहां खड़ा है| मुखर्जी ने पेइचिंग विश्वविद्यालय के अपने भाषण में सलाह दी कि इस विवाद को हल करने में धैर्य का परिचय दें| प्रणव दा ने यह नहीं बताया कि कौन दे? भारत दे या चीन दे? जिसकी ज़मीन छिनी हुई है, वह ही कह रहा है कि धैर्य का परिचय दीजिए ! धन्य है, हमारी विदेशी नीति !
पॉंचवा, प्रधानमंत्री ने चीनी नेताओं को आश्वस्त किया था कि भारत किसी भी चीन-विरोधी गठजोड़ में शामिल नहीं होगा| मुखर्जी ने यह मंत्र् भी देाहराया लेकिन एशियाई सुरक्षा का नया शिगूफा भी छोड़ा| यह क्या है? यह क्या ब्रेझनेव-प्रस्ताव जैसी कोई चाल है? प्रश्न हो सकता है कि एशियाई सुरक्षा किससे? क्या अमेरिका से? क्या चीन से? एशियाई सुरक्षा का विचार अभी अधकचरा है और उसका समय नहीं आया है| जब तक एशियाई राष्ट्रों में आपसी सुरक्षा का भाव पैदा नहीं होता और जब तक उनके क्षेत्रीय समीकरण ठीक नहीं होते, उन्हें किसी महाद्वीपीय गठबंधन में बांधने की कोशिश के परिणाम काफी उल्टे हो सकते हैं|
फिलहाल तो यही जरूरी है कि चीन और पाकिस्तान के साथ हमारे द्विपक्षीय संबंध सहज हों और उन पर छाए हुए संदेह के बादल दूर हों|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष है)
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