नया इंडिया, 24 अगस्त 2014 : अब सर्वोच्च न्यायालय और सरकार में मुठभेड़ के लक्षण साफ़-साफ़ नजर आ रहे हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में जब ये दोनों टकराएंगे, तब टकराएंगे, अभी तो लोकपाल की नियुक्ति को लेकर दोनों के बीच ऐसा कानूनी विवाद छिड़ गया है, जिसका राजनीतिक महत्व बहुत ज्यादा है। लोकपाल को लेकर देश में काफी बड़ा आंदोलन चला था। कांग्रेस-सरकार ने उसके दबाव में ही लोकपाल कानून बनाया था लेकिन उस लोकपाल की नियुक्ति अभी तक अधर में लटकी हुई है। न तो कांग्रेस सरकार उसे नियुक्त कर सकी और यह सरकार भी उसे इसलिए नियुक्त नहीं कर पा रही है क्योंकि उसके नियोक्ता-मंडल में प्रतिपक्ष के नेता का होना जरुरी है। नई संसद बने तीन माह पूरे हो रहे हैं, लेकिन अभी तक यही तय नहीं हुआ है कि प्रतिपक्ष का नेता कौन बनेगा?
प्रतिपक्ष के नेता बनने के लिए संसद की कुल सदस्य संख्या का कम से कम 10 प्रतिशत किसी पार्टी के पास जरुर होना चाहिए याने 543 सदस्यों में से 55 सदस्य तो होने चाहिए लेकिन कांग्रेस के पास सिर्फ 44 सदस्य हैं।
यह ठीक है कि प्रतिपक्षियों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन उसके पास न्यूनतम संख्या भी नहीं है। उसने किन्हीं अन्य पार्टियों के साथ मिलकर ऐसा एकरुप गठबंधन भी अभी तक खड़ा नहीं किया है, जो अपनी संख्या-बल दिखा सके। भाजपा का कहना है कि संसद के पहले 17 वर्षों में प्रतिपक्ष का कोई नेता ही नहीं था, क्योंकि कोई प्रतिपक्षी पार्टी के पास 10 प्रतिशत सदस्य-संख्या नहीं थी।
1969 में कांग्रेस (सं) के नेता डा. रामसुभगसिंह पहले प्रतिपक्ष के नेता मान्य किए गए। उसके बाद 1980 से 1989 तक भी कांग्रेस राज के दौरान कोई प्रतिपक्ष का नेता नहीं रहा। तो अब क्यों हो? यह तर्क अपनी जगह ठीक है लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए प्रतिपक्षी नेता का होना जरुरी है। इससे भी ज्यादा जरुरी इसलिए है कि लोकपाल ही नहीं, अन्य कई संवैधानिक पदों- जैसे न्यायाधीशों, निर्वाचन आयोग, निगरानी आयोग आदि की नियुक्तियां भी प्रतिपक्षी नेता या सबसे बड़े प्रतिपक्षी दल के नेता के बिना नहीं हो सकती।
अब सरकार चाहे तो अध्यादेश जारी करके इन सब नियुक्तियों में से प्रतिपक्ष के नेता की भूमिका समाप्त कर दे। अदालत ने सरकार को सिर्फ दो सप्ताह का समय दिया है। इस अवधि में वह कानून तो पास कर ही नहीं सकती।
जाहिर है कि अदालत सरकार की काफी रगड़ाई करेगी। अगर इस मुठभेड़ को टालना हो तो सरकार के पास अब एक ही विकल्प है कि वह कांग्रेस को अधिकारिक प्रतिपक्ष घोषित करे। प्रतिपक्ष के नेता की नियुक्ति को तकनीकी मामला बताकर लोकसभा अध्यक्ष के मत्थे मढ़ना बिल्कुल गलत है।
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