नवभारत टाइम्स, 09.1.2003 : स्वतंत्र भारत का यह पहला प्रवासी सम्मेलन है| आरंभ शुभ हो| ऐसा नहीं है कि प्रवासी लोग सिर्फ भारत से ही गए हों| दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना प्रवासी देश तो इस्राइल है| पूरा का पूरा देश ही प्रवासी हो गया था, दो हजार साल पहले| दर्जनों देशों में फैले यहूदी अब भी अपने मूल देश लौटने की हसरत पाले हुए हैं| इस्राइल और यहूदी अपवाद हैं| वे भारत की तरह नहीं हैं| भारत के मूल लोग हजारों वर्षों से विदेश जाते रहे हैं और वहाँ स्थायी तौर पर बसते रहे हैं| मध्य एशिया, पूर्वी यूरोप, आग्नेय एशिया और यहाँ तक कि लातीनी अमेरिका की अनेक प्राचीन बस्तियाँ, भाषाएँ, भूषाएँ और भोजन-भजन इसके प्रमाण हैं| इन प्राचीन प्रवासियों का भारत से कोई जीवंत सम्पर्क अब शेष नहीं रहा लेकिन पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में जो भारतीय विदेशों में बस गए हैं, इस सम्मेलन का संबंध उन्हीं से है|
ये भारतीय कौन हैं और कितने हैं ? इनकी संख्या लगभग दो करोड़ है याने भारत की जनसंख्या का कुल दो प्रतिशत| दो करोड़ की संख्या अपने आप में बड़ी है लेकिन इसकी तुलना दो सौ साल पुराने यूरोप से करें और सोचें कि यूरोप से गए लोगों ने अमेरिका, केनाडा, आस्टे्रलिया और न्यूजीलैंड जैसे देश बना दिए तो लगेगा कि भारत से बहुत कम लोग बाहर गए| आज दुनिया के यूरोपीय प्रवासियों की संख्या लगभग उतनी ही है जितनी कि खुद यूरोपीय लोगों की है| गुलामी के दिनों में भारत से लोग स्वयं नहीं गए, प्राय: ले जाए गए| अफ्रीका, लातीनी अमेरिका और प्रशांत महासागर में अंग्रेजों ने जो उपनिवेश बनाए, उनमें गुलामों-मज़दूरों की तरह हजारों भारतीय ले जाए गए| इन भारतीय मजदूरों ने फीजी, मोरिशस, दक्षिण अफ्रीका, सूरिनाम, टि्रनिडाड, गयाना आदि देशों का अपने खून-पसीने से जैसा रूपान्तरण किया है, वह देखने लायक है| मजबूरी में गए मजदूरों के अलावा उस दौर में अनेक भारतीय व्यापारी, डाक्टर, वकील, विद्वान, छात्र और क्रांतिकारी लोग भी विदेश गए और वहाँ रहे| मोहनदास कर्मचंद गाँधी, भवानीदयाल संन्यासी, श्यामजीकृष्ण वर्मा, वि.दा. सावरकर, बरकतुल्लाह, राजा महेन्द्रप्रताप आदि अनेक स्वनामधन्य महापुरुषों ने न केवल प्रवासियों के जीवन में रोशनी भर दी बल्कि भारतीय स्वाधीनता संगा्रम की नींव भी डाली|
आज़ादी के बाद प्रवासियों की दूसरी लहर खाड़ी और उसके आस-पास के देशों में पहुँची| तेल की कमाई ने इस पिछड़े इलाके को अपार आर्थिक संभावनाओं का क्षेत्र बना दिया| पिछले 30 वर्षों में तीस लाख से अधिक भारतीय इन देशों में जा बसे| ये लोग अब भी तकनीकी दृष्टि से भारतीय नागरिक ही हैं लेकिन अब वे इन देशों के अभिन्न अंग बन गए हैं| मजदूर, व्यापारी और व्यावसायिक के तौर पर गए इन भारतीय लोगों की दूसरी पीढ़ी भी अब वहीं तैयार हो रही है| तीसरी लहर वह है, जो अमेरिका, केनाडा, आस्टे्रलिया और यूरोप आदि पर छाती जा रही है| पिछले 15-20 वर्षों में लगभग 30 लाख भारतीय इन देशों में पहुँच गए हैं| इनमें से ज्यादातर वैज्ञानिक, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, कम्प्यूटर-विशेषज्ञ, शिक्षक आदि लोग हैं| इनमें से जिन्हें स्थानीय नागरिकता या स्थायी निवास की सुविधा मिल रही है, वे उसे सहर्ष ले रहे हैं|
इन तीन लहरों में गए लगभग दो करोड़ भारतीय दुनिया के डेढ़-सौ से अधिक देशों में फैल गए हैं| अब से लगभग 35 साल पहले दुनिया के कई देशों में घूमते हुए मुझे हफ्तों किसी भारतीय के दर्शन नहीं होते थे और हिन्दी का एक शब्द बोलने के लिए भी हफ्तों तरसना पड़ता था लेकिन अब छोटे-मोटे देशों के गाँवों में भी भारतीय दनदनाते हुए दिखाई पड़ते हैं| दुनिया के लगभग 50 देशों में 10 हजार से जयादा भारतीय रहते हैं और 11 देश ऐसे हैं, जिनमें उनकी संख्या पाँच लाख से भी ज्यादा है| अमेरिका, बि्रटेन, बर्मा, मलेशिया, सउदी अरब और दक्षिण अफ्रीका में उनकी संख्या 10 लाख से 20 लाख तक है| दुनिया का कौनसा कोना है, जहाँ भारतीय नहीं हैं ? किसी ज़माने में कहा जाता था कि बि्रटिश साम्राज्य पर सूर्य कभी अस्त नहीं होता| अब यही बात प्रवासी भारत के लिए कही जा सकती है| फीजी से गयाना तक फैले प्रवासी भारत पर सूर्य अस्त नहीं होता, यह अलंकारिक सत्य है लेकिन राजनीतिक सच्चाई यह है कि प्रवासी भारत ने अनेक देशों को भारतीय सूर्य प्रदान किए हैं| मोरिशस, फीजी, गयाना, टि्रनिडाड और सूरिनाम आदि देशों में अनेक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भारतीय मूल के लोग बने हैं| सर शिवसागर रामगुलाम, छेदी जगन, वासुदेव पांडे, महेन्द्र चौधरी, सभापति जगन्नाथ, अनिरुद्घ जगन्नाथ, नवीन रामगुलाम आदि प्रवासी भारतीय नेताओं के नाम किसने नहीं सुने हैं| भारतीय मूल के लोग आज केनाडा में मुख्यमंत्री हैं, कई राष्ट्रों तथा बि्रटेेन की संसद के दोनों सदनों के सदस्य हैं, दक्षिण अफ्रीका, सिंगापुर, मलेशिया और अफ़गानिस्तान जैसे देशों में मंत्री-पद पर रहते आए हैं और अनेक यूरोपीय और अमेरिकी शहरों के महापौर आदि रहे हैं| ध्यान रहे कि दक्षिण एशिया के देशों याने नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि के भारतीय मूल के लोगों को ‘प्रवासी’ नहीं माना गया है| अगर उन्हें मान लिया जाए तो उनकी कुल संख्या दो करोड़ नहीं, लगभग 30 करोड़ हो जाएगी और दर्जनों पड़ौसी प्रधानमंत्र्िायों को हमें ‘भारतमूलक’ कहना होगा| भारतमूलक या भारतवंशीय लोग अब तक उन देशों के प्रधानमंत्री बने हैं, जिनमें उनकी बहुसंख्या है लेकिन वह दिन दूर नहीं जब अमेरिका और केनाडा जैसे देशों में भी हमारे लोग शीर्ष पर पहुँचेंगे| उसका आधार संख्या-बल नहीं, बुद्घि-बल होगा, चरित्र-बल होगा| आज भी अमेरिका और केनाडा में भारतवंशीय लोगों की प्रतिष्ठा और समृद्घि सबसे अधिक है| अमेरिका को सूचना महाशक्ति बनाने में सबसे बड़ा योगदान भारतीयों का ही है|
प्रवासी भारतीय सम्मेलन का असली मुद्दा क्या है ? क्या यह नहीं कि प्रवासी भारत से क्या चाहते हैं और भारत प्रवासियों से क्या चाहता है ? प्रवासी भी अलग-अलग तरह के हैं, इसलिए उनकी माँगें भी अलग-अलग हैं| खाड़ी के मज़दूर चाहते हैं कि मेज़बान देश में उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो, अमेरिका और केनाडा में बसे व्यावसायिक चाहते हैं कि उन्हें दोहरी नागरिकता मिले और भारतवंशी राष्ट्रों के नेता चाहते हैं कि जरूरत पड़ने पर भारत उन्हें राजनीतिक और सैनिक समर्थन प्रदान करे| फीजी के प्रधानमंत्री महेन्द्र चौधरी बहुत दुखी हैं कि जब उन पर संकट आया तो भारत सरकार जबानी जमा-खर्च करती रही और मोरिशस के लोग शंकाकुल हैं कि जब इस वर्ष सितंबर में फ्रांसीसी मूल के पॉल बेरांजे प्रधानमंत्री बनेंगे तो कहीं वहाँ फीजी तो नहीं दोहराया जाएगा| इनमें से कुछ प्रश्नों के समाधान तो ‘प्रवासी भारत कमेटी’ की उस सुलिखित रपट में हैं, जो डॉ. सिंघवी, राजदूत जगदीश शर्मा और कुछ अन्य सदस्यों ने मिलकर तैयार की है लेकिन जहाँ तक राजनीतिक और सैन्य-समर्थन का प्रश्न है, यह सवाल काफी उलझा हुआ है और फिर उसके लिए बड़ा दम-गुर्दा चाहिए| जिस सरकार को कंधार में घुटने टेकने पड़ते हैं और संसद पर हमले के वक्त बगलें झाँकनी पड़ती हैं, उससे यह उम्मीद करना कि वह 15 हजार कि.मी. दूर बैठे भारतवंशीयों के लिए छतरी तानेगी, जरा ज्यादती है| यह सवाल इस तथ्य से भी जुड़ा हुआ है कि विदेशों में बैठे भारतीय और भारतवंशी भारत के लिए क्या करते हैं ? अपने घरवालों को पैसा भेजने के अलावा उनका क्या योगदान है ? क्या प्रवासी चीनियों की तरह वे राष्ट्रोत्थान के लिए अरबों डॉलर स्वदेश में झोंकते हैं ? क्या संकट के समय वे कुर्बानी करते हैं ? यदि नहीं तो इस सम्मेलन में उन्हें कुछ ठोस संकल्प करने होंगे|
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