नवभारत टाइम्स, 15 जनवरी 2002 : डेढ़ हजार प्रवासियों का तीन दिन तक एक ही जगह डटे रहना, भाषण-भोजन, मेल-जोल, गहमागहमी सब कुछ अपूर्व था| अपूर्वत्व का प्रारंभ बिस्मिल्लाह खान और रविशंकर की जुगलबंदी से हुआ| दो देशों के प्रधानमंत्री, दो नोबेल विजताओं, अनेक मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रवासी मंत्रिायों, सांसदों, विद्वानों, कलाकारों, व्यापारियों ने इस मेले में चार चाँद लगा दिए| प्रवासी भारतीयों के इस प्रथम सम्मेलन का पहला संदेश तो यही है कि भारत का रवैया बदल रहा है| भारत अब नेहरूवादी कठघरे से बाहर निकल रहा है| वह अब यह नहीं कहता कि प्रवासी भारतीयों से हमें कोई मतलब नहीं| वे अपने मामलों से खुद निपटें| नेहरू ने यह तब कहा था, जब 1963 में केन्या आज़ाद हुआ था| वहाँ भारतवंशियों पर काले अफ्रीकी ही तलवार भाँजने लगे थे| भारत सरकार के निर्मम रवैए ने लाखों भारतवंशियों को प्रेरित किया कि वे भारत आने की बजाय बि्रटिश राष्ट्रकुल के नागरिक बन जाएँ| 1970 में यही इतिहास उगांडा में भी दोहराया गया| इस बीच ऐसा क्या हुआ कि अब भारत का रवैया बदल गया|
प्रवासी भारतीयों के प्रति भारत सरकार का रवैया बदलने के पीछे तीन प्रमुख कारण हैं| पहला तो यह कि तीस साल पहले तक जो भारतीय विदेशों में रह रहे थे, वे या तो बन्धुआ मज़दूरों की तरह गए थे या उनके पीछे-पीछे कुछ लोग व्यापारियों-उद्यमियों की तरह गए थे| जो गए थे, वे बस चले ही गए थे| उनके लौटने की संभावना नगण्य हो गई थी| भारत से उनका भौतिक सम्पर्क भी लगभग टूट गया था| उनके लिए भारत केवल भावना-पुंज रह गया था| स्वतंत्र भारत की सरकार उन्हें अपने लिए खास उपयोगी नहीं पाती थी | लेकिन पिछले 30 वर्षों में ये ही लोग अपने-अपने देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बन गए, सम्पन्न और सुशिक्षित हो गए तथा अन्तरराष्ट्रीय समाज में उनकी थोड़ी-बहुत पहचान भी बन गई| इसीलिए भारत ने भी इन्हें पहचानना शुरू कर दिया| दूसरा, खाड़ी तथा उसके आस-पास के कई अन्य देशों में भारतीयों की जो दूसरी लहर पहुँची, उसमें लगभग 30-35 लाख मज़दूरों के अलावा व्यापारियों, उद्योगपतियों, विशेषज्ञों आदि ने लाखों डॉलर प्रतिदिन भारत भेजना शुरू कर दिया| ये लोग प्रवासी तो हुए लेकिन भारतवासी भी बने रहे| इन्होंने अपनी नागरिकता भारतीय ही रखी| भारत सरकार इनकी तरफ से आँख कैसे फेर सकती थी ? तीसरा, भारत के सुशिक्षित मध्यम वर्ग की तीसरी लहर, जो अमेरिका, केनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और यूरोपीय देशों में पहुँची, उसमें ज्यादातर लोग उन देशों की नागरिकता जरूर ले रहे हैं लेकिन वे भारतीयों से भी अधिक भारतीय हैं| फीजी और मोरिशस जानेवाले लोगों के पास न शिक्षा थी और न पैसा| उनके पास फोन और इंटरनेट भी नहीं था| वे हर साल भारत भी नहीं आ सकते थे| लेकिन जो आधुनिक प्रवासी हैं, वे परदेस में रहते हुए भी भारत की राजनीति और अर्थ-व्यवस्था को सीधे प्रभावित करते हैं| जिन देशों में वे रहते हैं, वहाँ वे मुख्यमंत्री, सांसद, विपक्ष के नेता, मंत्री, बैंकों के अध्यक्ष, विश्वविद्यालयों के कुलपति, बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक आदि बन गए हैं| याने भारतीय विदेश नीति के लिए भी उनकी उपयोगिता बढ़ गई है| भला, भारत सरकार उनकी उपेक्षा कैसे कर सकती थी ? इसीलिए नेहरू की बात को उलटते हुए वाजपेयी ने कहा कि प्रवासियों, तुम्हारे लिए भारत के द्वार सदा खुले हुए हैं| यों भी अटलजी ने अब से 25 साल पहले, जब वे विदेशमंत्री थे, प्रवासियों को भारत से जोड़ने की तीव्र इच्छा व्यक्त की थी| प्रवासी भारतीयों के प्रथम सम्मेलन का श्रेय वाजपेयी सरकार को तो है ही, डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, राजदूत जगदीश शर्मा तथा फिक्की के अधिकारियों को भी है, जिन्होंने महात्मा गांधी, पं. बनारसीदास चतुर्वेदी तथा पं. प्रकाशवीर शास्त्री के सपनों को साकार करने के लिए पहला कदम बढ़ाया|
प्रधानमंत्री ने प्रवासियों को दोहरी नागरिकता का तोहफा भी दे दिया लेकिन यह सिर्फ अमेरिका, केनाडा, बि्रटेन और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में रहनेवाले प्रवासियों को ही मिलेगी, क्योंकि केवल इन्हीं देशों में दोहरी नागरिकता का प्रावधान है| अर्थात्र फीजी, मोरिशस, त्रिानिदाद, गयाना, सूरिनाम, बर्मा आदि में रहनेवाले लगभग एक-सवा करोड़ भारतवंशियों का इस तोहफे से कुछ भी लेना-देना नहीं है| इसी प्रकार खाड़ी तथा उसके आस-पास के लगभग 40 लाख प्रवासियों के लिए भी दोहरी नागरिकता निरर्थक है, क्योंकि वे तो भारत के नागरिक पहले से ही हैं| जिन लोगों को दोहरी नागरिकता दी जा रही है, उन्हें भी भारत में न तो मताधिकार होगा, न वे चुनाव लड़ पाएँगे और न ही नौकरियाँ कर पाएँगे| तो फिर दोहरी नागरिकता का फायदा क्या है ? यही कि वे भारत में सम्पत्ति खरीद सकेंगे, व्यापार कर सकेंगे और उन्हें वीज़ा की जरूरत नहीं होगी| इसके अलावा वे संविधानप्रदत्त सभी मूलभूत अधिकारों का उपभोग कर सकेंगे ? वित्तमंत्री जसवन्तसिंह ने उनके लिए अन्य कुछ वित्तीय सुविधाओं की घोषणा भी की है लेकिन प्रश्न यह है कि कितने लोग भारत की दोहरी नागरिकता लेना पसंद करेंगे ? भारतमूलक कार्ड (पी.आई.ओ.कार्ड.) को चले चार साल हो गए लेकिन उसकी संख्या अभी केवल सैकड़ों में है| यदि दोहरी नागरिकता का शुल्क भी एक हजार डॉलर या ज्यादा होगा तो उसे भी कौन लेना चाहेगा ? खतरा यह भी है कि दोहरी नागरिकता की आड़ में ऐसे लोग भी भारत में घुस सकते हैं जो अन्य देशों के एजेन्ट हों| दक्षिण अफ्रीका के एक सांसद और एक विदुषी ने तो दोहरी नागरिकता की यह कहकर निन्दा की है कि हमें आप दोहरी देशभक्ति के जंजाल में क्यों फँसा रहे हैं| जिस देश में हमारा दाना-पानी है, उसमें हमें संदेह का विषय क्यों बना रहे हैं ? सच्चाई तो यह है कि 21वीं सदी में राज्य नामक संस्था इतनी कमजोर पड़ जानेवाली है कि लोगों के पास दर्जन-दर्जन भर देशों की नागरिकताएँ रहेंगी, चाहे उनका नाम कुछ और ही हो| ऐसी स्थिति में दोहरी नागरिकता से घबराने की जरूरत नहीं है| यह असंभव नहीं कि दोहरी नागरिकता अन्ततोगत्वा विश्व नागरिकता का मार्ग प्रशस्त करे|
दोहरी नागरिकता से श्रीमंत और शक्तिमंत प्रवासी प्रसन्न होंगे| असली काम तो है- प्रवासी मज़दूरों को अनेकविध सुरक्षा प्रदान करना| इस संबंध में प्रधानमंत्री के आश्वासन स्वागत योग्य हैं लेकिन प्रधानमंत्री के आश्वासनों को लागू करने के लिए सरकार के पास क्या कोई समर्थ तन्त्र है ? जाहिर है कि विदेश मंत्रालय पर पहले से ही काफी बोझ लदा हुआ है| हमारे दूतावास भारतवंशियों को यों ही नहीं संभाल पाते| अब वे उनकी विशेष जिम्मेदारियाँ कैसे उठाएँगे ? यदि हम चाहते हैं कि प्रवासी सम्मेलन सिर्फ मेला-ठेला बनकर न रह जाए तो यह जरूरी है कि या तो प्रवासियों के लिए अलग मंत्रालय कायम किया जाए या उसके समतुल्य कोई स्वायत्त निदेशालय या आयोग बनाया जाए, जिसका काम समग्र प्रवासी नीति का निर्माण और क्रियान्वयन हो|
सम्मेलन में जो भाषण और आश्वासन दिए गए हैं, वे रेवडि़याँ हैं, भोज नहीं| पेट भर भोजन नहीं| रेवडि़यों से पेट नहीं भरता| अगर भारत के पास कोई समग्र प्रवासी नीति होती तो क्या फीजी में जार्ज स्पैट प्रधानमंत्री महेन्द्र चौधरी को गिरफ्तार कर सकता था और चौधरी के साथ जो अन्याय अभी हो रहा है, क्या वह हो सकता था ? फीजी और सूरिनाम के हजारों लोगों को अपना वतन क्यों छोड़ना पड़ता ? भारत सरकार प्रवासियों के साथ अंग्रेजी में व्यवहार करके उनकी संस्कृति को अनजाने ही नष्ट क्यों करती ? भारत के मालदार प्रवासी भारत की बजाय चीन में अपनी पूँजी लगाने को बेताब क्यों होते ? यह सब इसलिए हो रहा है कि भारत के पास अपनी कोई प्रवासी नीति नहीं है| जब तक मानव अधिकार, लोकतंत्र, वंशभेदरहित समाज तथा समृद्घि में भागीदारी जैसे आदर्शों को संपूर्ण प्रवासी आंदोलन की आधारभूमि नहीं बनाया जाएगा, डर यह है कि इस तरह के सम्मेलन राजनीतिक पटाखेबाजी और रेवड़ी-वितरण समारोह बनकर रह जाएँगे|
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