दैनिक भास्कर, 17 अप्रैल 2013 : सारे देश में यह माना जा रहा है कि जनता दल (यू) ने नरेंद्र मोदी के विरुद्घ शंखनाद कर दिया है| यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देगी तो यह गठबंधन टूट जाएगा| यह सोच सतही है और तर्क की तुला पर खरा नहीं उतरता|
सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि जनता दल ने अपने प्रस्ताव में भावी प्रधानमंत्री की अर्हताएं गिनाने में कोई संकोच नहीं किया लेकिन मोदी का नाम लेकर उनको रद्द करने में उसकी कलम क्यों कांप गई? कलम से ज्यादा लचीली जुबान होती है| लेकिन जुबान भी मोदी के नाम पर नहीं हिल पाई? नीतीश कुमार ने वे सब तर्क दिए जो मोदी पर तीर की तरह पड़े लेकिन उन्होंने नाम लेकर मोदी पर हमला क्यों नहीं किया? नाम लेकर वे मोदी पर हमला करते तो अपनी जगहंसाई करवाते| लोग कहते सूत न कपास और हवा में लठ्म-लट्ठा| अभी भाजपा ने ही मोदी का नाम घोषित नहीं किया तो जनता दल आ बैल सींग मार क्यों करे? जनता दल के अध्यक्ष शरद यादव ने इस निरर्थक बहस को नज़र अंदाज ही नहीं किया बल्कि उन्होंने गठबंधन को सुदृढ़ बनाने की वकालत भी की| नीतीश ने आक्रमण तो किया लेकिन ऐसी चतुराई दिखाई की सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे|
उन्होंने ऐसा तेवर दिखाया, जिससे बिहार में उनके अल्पसंख्यक वोट डिगें नहीं और गठबंधन भी बना रहे| उन्होंने अटलजी को आदर्श नेता बताया, पगड़ी के साथ ‘टोपी’ पहनना भी जरुरी माना और सर्वसमावेशी विकास का नारा लगाया लेकिन दिसंबर तक की मोहलत दे दी याने भाजपा से कहा कि इस वर्ष तक वह अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दे| राजनीति में आठ माह का समय बहुत लंबा होता है| यदि चुनाव दिसंबर के पहले ही हो गए तो सारा झगड़ा खत्म! बिना किसी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के ही चुनाव लड़ लिया जा सकता है| यों भी भाजपा के दूरंदेशी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पहले से ही भांप लिया था कि जनता दल (यू) मोदी का विरोध करने के लिए मजबूर है| इसीलिए उन्होंने पहले दिन ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का नाम घोषित करने से मना कर दिया था| मोदी के नाम की घोषणा से गठबंधन में तनाव का डर तो था ही, कई अन्य आशंकाएं भी थीं| जब घोषणा के बिना ही सर्वत्र् उस नाम की तूती बोल रही हो तो उसकी घोषणा क्यों की जाए? यों भी घोषणा से क्या फायदा है? लालकृष्ण आडवाणी का नाम पिछली बार जमकर घोषित किया गया था| क्या नतीजा निकला? वैसे भी संसदीय प्रणाली में भावी शासनाध्यक्ष के नाम की घोषणा करना कहां तक उचित है? ऐसी घोषणाएं तो अमेरिका-जैसी अध्यक्षात्मक (राष्ट्रपतीय) शासन-प्रणाली में होती है| संसदीय प्रणाली में चुनाव के बाद वही प्रधानमंत्री बनता है, जिसके नाम पर जीता हुआ संसदीय दल मुहर लगा देता है| कभी-कभी ऐसा भी होता है कि चुनाव-अभियान का नेता कोई होता है और चुनाव जीतने के बाद संसदीय दल का नेता (प्रधानमंत्री) कोई और बनता है| 1977 में जयप्रकाशजी के नाम पर चुनाव लड़ा गया और प्रधानमंत्री बने, मोरारजी और चरणसिंह| राम मंदिर आंदोलन के नेता आडवाणी थे और प्रधानमंत्री चुने गए, अटलबिहारी वाजपेयी|इसी प्रकार कांग्रेस के चुनाव-अभियान की नेता थीं, सोनिया गांधी लेकिन जीत के बाद सरकार के नेता बने, डॉ. मनमोहन सिंह! वोट डालनेवाली जनता प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं करती| वह केवल सांसद को चुनती है या सामूहिक रुप से किसी पार्टी को चुनती है और फिर वह पार्टी अपने प्रधानमंत्री को चुनती या नामजद करती है| इसीलिए भारत-जैसे संसदीय प्रणाली वाले देशों में यदि हमें सच्चा लोकतंत्र् कायम करना है तो हमारा जोर प्रधानमंत्री पद के नाम पर चुनाव लड़ने की बजाय सिद्घांतों, नीतियों और कार्यक्रमों पर चुनाव लड़ा जाना चाहिए| इसी आधार पर आशा की जाती है कि चुनाव के पहले किसी भी नाम की घोषणा नहीं की जाएगी| तो फिर गठबंधन के टूटने का सवाल ही कहां उठता है?
भाजपा तो इस गठबंधन को बिल्कुल नहीं तोड़ना चाहती| बल्कि वह इसे काफी बड़ा और मजबूत बनाना चाहती है| यदि वह नीतीश को जाने दे तो उसे ज्यादा नुकसान नहीं होगा| उसे लोकसभा में20-25 सीटें कम मिलेंगी| जनता दल का अस्तित्व बिहार के बाहर कहां है? यह सब जानते हैं कि जनता-दल का मोदी-विरोध सिद्घांत पर आधारित नहीं है| यदि मोदी इतने ही अछूत हैं तो नीतीश उस समय भाजपा की सरकार में मंत्र्ी क्यों बने रहे, जब गुजरात में रक्तपात हो रहा था? उस समय ही गठबंधन क्यों नहीं तोड़ दिया?सिद्घांत से बड़ी सत्ता है| बिहार में सत्ता में बने रहना है| इसीलिए अल्पसंख्यकों की खुशामद जरुरी है| यदि मोदी या भाजपा की लहर उठ गई और उसे आशातीत बहुमत मिल गया तो जो गठबंधन से हट जाएंगे, वे भी चुनाव के बाद बिना बुलाए ही सत्ता की चाशनी चखने के लिए लौट आएंगे|
नीतीश ने भावी प्रधानमंत्री की जो अर्हताएं बताई हैं, वे सब सही हैं| उन पर वे तो खरे उतरते हैं लेकिन संयोग है कि वे भाजपा में नहीं हैं| वे होते तो उनके नाम पर चुनाव के बाद झटपट सहमति हो सकती थी लेकिन प्रश्न यह भी है कि जो अर्हताएं उन्होंने बताई हैं, क्या वे काफी हैं? भारत-जैसे विशाल राष्ट्र के संचालन के लिए क्या प्रांतीय अनुभव काफी है? इसके अलावा कोई भी पार्टी अपने राष्ट्रीय नेताओं और संसदीय दल के नेताओं को एक ही झटके में बुहारकर अलग कैसे कर सकती है|
इसलिए अभी से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा अनावश्यक प्रतीत होती है| इसके अलावा अभी से किसी भी नेता के नाम की औपचारिक घोषणा पूरी पार्टी को ही पसोपेश में डाल सकती है, खासतौर से वह अगर किसी सरकारी पद पर विराजमान हो| आजकल हर पद सांसत में है| चाहे वह मंत्री का हो, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का! कब कौनसा घोटाला गला घोंट दे और कौनसा अदालती फैसला फांसी का फंदा बन जाए, किसे भी पता नहीं|इसीलिए सत्ता की यह दुकान बिना नामपट के चलती रहे, इसी में सबका फायदा है| जिसके नाम से सबसे ज्यादा माल बिकेगा, उसी के नाम का नामपट चुनाव के बाद दुकान पर अपने आप टंगजाएगा|
Leave a Reply