NavBharat Times, 7 Aug 2003 : लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हों, यह प्रस्ताव नया नहीं है| इसमें संदेह नहीं कि उप-राष्ट्रपति और उप-प्रधानमंत्री के समर्थन के कारण यह प्रस्ताव इधर मीडिया में उछाल खा गया है लेकिन इसे अब से 20 साल पहले खुद चुनाव आयोग ने जमकर आगे बढ़ाया था| चुनाव आयोग ने भी 15-20 साल तक अलग-अलग चुनावों की विभीषिका को भुगतने के बाद यह नतीजा निकाला था कि यदि समस्त राज्यों और केन्द्र में चुनाव एक ही समय हों तो खर्च, सुप्रशासन और दक्षता की दृष्टि से वे लाभकर होंगे| इस प्रस्ताव को सिर्फ इसलिए रद्द कर दिया जाए कि ये भाजपा नेताओं ने उछालें हैं, देशहितकारी कार्य नहीं होगा| इसमें संदेह नहीं कि यदि इस प्रस्ताव पर अमल हो गया और यदि अगले कुछ माह में दोनों चुनाव एक साथ सम्पन्न हो गए तो भाजपा निश्चित रूप से फायदे में रहेगी| भरपूर वर्षा, सोनिया बनाम अटलजी, सत्तारूढ़ गठबंधन बनाम विपक्षी विभ्रम आदि तत्वों का लाभ भाजपा को अवश्य मिलेगा| जिन राज्यों में उसकी स्थिति कमजोर है, वे भी उसकी अखिल भारतीय छवि से प्रभावित होंगे| भाजपा की पहल पर समानांतर चुनाव हो रहे हैं, इस तथ्य का लाभ भी भाजपा को मिलेगा| अच्छा है कि प्रमुख विरोधी दल कॉंग्रेस ने इस प्रस्ताव को एकदम रद्द नहीं किया है, हालॉंकि एक-साथ चुनाव में सबसे अधिक परेशानी उसे ही झेलनी पड़ेगी, क्योंकि जिन पार्टियों से राष्ट्रीय स्तर पर वह ताल-मेल करेंगी, वही पार्टियॉं प्रांतीय स्तर पर उसकी प्रतिद्घंद्घी हाेगी|
आखिर समानंार चुनाव में ऐसी कौनसी अच्छाई है कि आधी सदी से पकड़ी हुई लकीर को छोड़कर अब हम नई लीक पर चलें? सबसे पहली अच्छाई तो यह है कि अरबों का खर्च बचेगा| एक पंथ दो काज होंगे| भारत का चुनाव दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव होता है| संसद और राज्यों के चुनाव साथ में जुड़ जाने से सिर्फ मतपत्रों और मतपेटियों की संख्या बढ़ेगी, शेष लगभग सभी खर्च पहले-जैसे होंगे| दूसरी अच्छाई, हर चुनाव में कम से कम एक माह तक शासन और प्रशासन लगभग अधर में लटक जाता है| सरकारी फैसले टाल दिए जाते हैं| करोड़ों-अरबों रू. का नुक्सान रोज़ होता है| कभी-कभी चुनाव के बाद भी कई दिनों तक सरकार नहीं बन पाती| इसके अलावा सभी दलों के केंद्रीय नेता और अन्य राज्यों के नेता भी राज्यों के चुनाव में टूट पड़ते हैं| इससे केंद्र और अन्य राज्यों का प्रशासन भी प्रभावित होता है| यदि एक साथ चुनाव होंगे तो पॉंच साल में एक बार ही लोकतंत्र की जितनी क़ीमत चुकाना जरूरी है, उतनी चुकाई जाएगी| तीसरी अच्छाई, एक साथ चुनाव का मतलब है, पॉंच साल में केवल एक बार चुनाव ! कई राज्यों में तो पॉंच साल में दो-दो बार चुनाव हुए हैं और वहॉं हर चार-छह माह में चुनाव की तलवार सिर पर लटकने लगती है| अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों का ध्यान शासन-संचालन पर कम और चुनाव-संचालन पर ज्यादा रहता है| यदि चुनावी व्यवस्था बदलेगी तो राज्यों के शासन-संचालन में मुस्तैदी और स्थायित्व का समावेश होगा| चौथी अच्छाई यह है कि यदि संसद और राज्यों के चुनाव साथ-साथ होंगे तो राजनीति का एक सुघढ़ अखिल भारतीय रूप अपने आप ढलता चला जाएगा| क्षेत्रीय दलों की बजाय राष्ट्रीय दलों की पैठ बढ़ेगी| भारत का एकात्मक संघवाद सुद्दढ़ होगा|
आजकल जैसी चुनावी व्यवस्था है, देश में कहीं न कहीं, हर साल ही चुनाव होते रहते हैं| कभी दो-चार राज्य-विधानसभाओं में, कभी सैकड़ों नगरपालिकाओं में, कभी हजारों पंचायतों में, कभी राज्यसभा में, कभी लोकसभा में और कभी-कभी राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों पर चुनाव का तांता-सा लगा रहता है| पिछले 16 वर्षों में 107 चुनाव हुए| इस साल पॉंच विधानसभा चुनाव हुए और अब नवंबर तक दिल्ली, म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ में फिर चुनाव होंगे| याने चुनाव की हॉंडी हर साल बराबर खदबदाती रहेगी| लोकतंत्र के लिए चुनाव बेहद जरूरी हैं लेकिन सरकार, राजनीतिक दल और हमारे सारे नेतागण चुनावी मशीन के पुर्जे बनकर रह जाऍं, यह स्थिति लोकतंत्र के लिए कहॉं तक हितकारी है? यदि जनता के प्रतिनिधि पॉंच साल की अवधि तक निरापद काम कर सकें तो वे दूरगामी नीतियों को निर्माण और उन पर अमल बेहतर तरीक़े से कर सकेंगे| चुनाव तो वे तब भी जीतेंगे लेकिन चुनावी तलवार सदा सिर पर लटके रहने के कारण उन्हें जो कलाबाजियॉं करनी पड़ती हैं, उससे वे बाज़ आऍंगे|
इसका अर्थ यह नहीं कि जन-प्रतिनिधियों को पॉंच साल का पटृा दे दिया जाए और वे विधानसभा और लोकसभा में जाकर कुंभकर्ण बन जाऍ तो भी उन्हें कोई छू न सके| ऐसे विधायकों और सांसदों के विरूद्घ वापसी और जनमत-संग्रह की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए, जैसी कि श्री जयप्रकाश नारायण की मॉंग थी| डॉ. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि जिंदा कौमें पॉंच साल इंतजार नहीं करतीं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पॉंचों साल पूरा देश चुनावों के इन्तज़ार में ही काट दे| आजकल कितनी विधानसभाओं के मध्यावधि चुनाव जन-आंदोलन की वजह से होते हैं| क्या जनमत के दवाब में आकर कभी कोई विधानसभा आज तक भंग हुई है? असलियत तो यह है कि विधानसभाऍं सदन का विश्वास खोने के कारण कम भंग होती हैं, राज्यपालों की मनमानी के कारण ज्यादा भंग होती हैं| भंग विधानसभाओं के जो चुनाव होते हैं, वे जनता के प्रति उसके प्रतिनिधियों की जवाबदेही नहीं, नेताओं की पारस्परिक साजिशों के कारण होते हैं| दल-बदल या केंद्र-राज्य विवाद के कारण होते हैं| यदि पॉंच साल की स्थायी अवधि हमारी विधानपालिका को मिल गई तो राज्यपालों की तिकड़मों पर काफी हद तक लगाम लग जाएगी| केंद्र का सत्तारूढ़ दल राज्यों के विरोधी दलों की विधानसभाओं को भंग करके राज्यों की जनता का जो नुक्सान करता है, उससे बाज़ आएगा|
पॉंच साल की स्थायी अवधि का अर्थ यह नहीं कि कोई कितनी भी नाकारा सरकार हो, वह पॉंच साल तक चलती ही रहेगी, जैसे कि अमेरिका में चलती रहती है| अमेरिका में जैसे किसी भी राष्ट्रपति को ‘महा-अभियोग’ के द्घारा कभी भी हटाया जा सकता है, वैसे ही भारत के किसी भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री और उसकी सरकार को अविश्वास के मत द्घारा हटाया जा सकेगा| महाभियोग की तुलना में अविश्वास-मत अधिक आसान और कारगर है| इसके अलावा राष्ट्रपति और राज्यपाल का सरकारें भंग करने का विशेषाधिकार तो कायम रहेगा ही ! विधानसभाऍं सथायी होंगी, सरकारें नहीं| हटे हुए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की जगह उसी पार्टी का दूसरा व्यक्ति भी आ सकता है या दूसरी पार्टियों का बहुमत होने पर नई सत्तारूढ़ पार्टी भी आ सकती है| ऐसी व्यवस्था में हमें दल-बदल कानून पर दुबारा विचार करना पड़ेगा| जर्मनी-जैसी व्यवस्था भी हो सकती है अर्थात्र जब तक नई समुचित सरकार न बने, पुरानी सरकार चलती रहे| इस तरह के प्रावधान लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधन जरूरी होंगे| समानांतर चुनावों के लिए अगर संविधान-संशोधन होगा तो फिर स्त्र्िायों के प्रतिनिधित्व और सानुपातिक मतदान आदि के लिए भी नए रास्ते खुलेंगे|
जहॉं तक संसद और विधानसभाओं के चुनावों को अभी तक एक साथ कराने की बात है, उन्हें दो हिस्सों में बॉंटा जा सकता है| वर्तमान संसद के साथ उन सभी विधानसभाओं के चुनाव करवा लिए जाऍं, जिनकी उम्र ढाई वर्ष से ज्यादा है और जो बच जाऍं, अगली संसद के साथ उन सब विधानसभाओं के चुनाव करवा लिए जाऍं| यदि अगली संसद की अवधि थोड़ी कम भी करनी पड़े तो की जाए| इसके अलावा ऐसा भी किया जा सकता है कि संसद का चुनाव पहले हो जाए और राष्ट्रपति के अध्यादेश से समस्त नई और पुरानी विधानसभाओं के चुनाव डेढ़ से दो साल की अवधि में हो जाऍं और बाद के समानांतर चुनावों के लिए अमेरिकी चुनावों की तरह कुछ तिथियॉं तय कर दी जाऍं| इन पूरक प्रश्नों पर तो बाद में विचार हो सकता है, पहले यह जरूरी है कि समानांतर चुनावों के बारे में देश के प्रमुख राजनीतिक दल एक राय बनाऍं|
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