दैनिक भास्कर, 23 अगस्त 2014: भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों की वार्ता स्थगित क्या हुई, देश के कई जाने-माने राजनेताओं और विशेषज्ञों को ऐसा लगा कि भारत-पाक संबंध दुबारा शीर्षासन की मुद्रा में आ गए हैं। उनके मन में घबराहट पैदा हो गई है कि अगले कुछ दिनों में कहीं फौजी मुठभेड़ की नौबत न आ जाए। दोनों परमाणु संपन्न पड़ोसी राष्ट्र अचानक पटरी से क्यों उतर गए? हुर्रियत से पाक-उच्चायुक्त का मिलना तो मामूली बात है। इधर अचानक कोई गंभीर बात हुई है, जिसके कारण हमें ऐसा फैसला लेना पड़ा है। वह गंभीर बात क्या हो सकती है, वह हम आगे बताएंगे।
भारत सरकार इस बात से सख्त नाराज हो गई है कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बसीत, सैयद अली शाह गिलानी सहित हुर्रियत के सभी नेताओं से मिलते रहे, इसके बावजूद कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने उन्हें ऐसा करने से मना किया था। वे दिल्ली में बैठकर भारत के दुश्मनों से कैसे मिल सकते हैं? यह सरकार मनमोहन सिंह की लूली-लंगड़ी सरकार नहीं है, जो ऐसी हिमाकत बर्दाश्त कर लेगी। यह सरकार मोदी की है, वाजपेयी या नरसिंह राव की नहीं। यह स्पष्ट बहुमत की सरकार है। इसका नेता आरएसएस का प्रचारक रहा है। वह कश्मीर को देश से अलग करने वालों को बर्दाश्त क्यों करेगा?
यदि राव, वाजपेयी और मनमोहन हुर्रियत को बर्दाश्त करते रहे तो वे उनकी जानें, मोदी उसे बर्दाश्त क्यों करें? हुर्रियत के कश्मीरी नेता पाकिस्तान की फौज के इशारों पर नाचते हैं, उन्हें भाव देने की जरूरत क्या है? यह ठीक है कि वे भारत आने वाले हर पाकिस्तानी नेता से खुलेआम मिलते रहे हैं। वे राष्ट्रपति फारूक लेघारी, राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ, प्रधानमंत्री शौकत अजीज़ और सरताज़ अजीज़ से भी मिलते रहे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ जब मोदी के शपथ-समारोह में आए तो हुर्रियत के नेता उनसे नहीं मिल सके, क्यों नहीं मिल सके? यह नई परंपरा पड़ी या नहीं?
इसके अलावा इस बार 25 अगस्त को कोई पाकिस्तानी नेता भारत नहीं आ रहा था। दोनों देशों के सिर्फ विदेश सचिव इस्लामाबाद में मिलने वाले थे। भारत का विदेश सचिव पाकिस्तान जाए, उसके पहले हुर्रियत नेताओं को पाकिस्तानी उच्चायुक्त से आखिर मिलना क्यों जरूरी था? हुर्रियत के नेता उच्चायुक्त के जरिये पाकिस्तान की सरकार को कौन-सा ताबीज पकड़ा देते, जिसे पहनकर वह भारत पर भारी पड़ जाती? यदि पाकिस्तानी उच्चायुक्त भारतीय विदेश मंत्रालय की बात मान लेता और कश्मीरी नेताओं को टाल जाता तो कौन-सा आसमान टूट जाता? हमारे कुछ नेताओं ने यह मांग भी कर डाली कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त बसीत को निकाल बाहर किया जाए।
उधर, बसीत ने अपने समर्थन में कई तर्क दे डाले। एक तो यही कि हुर्रियत से मुलाकात हमेशा की तरह बिल्कुल साधारण मुलाकात थी। यूं भी हर 23 मार्च को पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस पर जब भारत का कोई न कोई मंत्री मुख्य अतिथि बनकर पाक-दूतावास में आता है तो हुर्रियत के नेता भी वहां होते हैं। तब कोई एतराज़ क्यों नहीं जताया जाता? देश के बड़े से बड़े नेता, पत्रकार और विद्वान हुर्रियत के नेताओं से मिलते हैं, तब कोई उन पर उंगली क्यों नहीं उठाता? अटलजी के ज़माने में वे 12 बार पाकिस्तानी दूतावास गए। उन्हें भारत की सरकारों ने पासपोर्ट दिए। यदि वे इतने ही खतरनाक हैं तो उन्हें छुट्टा क्यों छोड़ रखा है? भारत सरकार उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेती? वह उनसे कभी-कभी सीधे और अक्सर चोर-दरवाज़े से बात क्यों करती है?
जो लोग सरकार के इस अचानक फैसले का विरोध कर रहे हैं, उनका तर्क यह भी है कि मोदी सरकार ने अधमरी हुर्रियत में जान डाल दी है। कश्मीर में हुर्रियत की दाल पतली होती जा रही थी। उसके चुनाव बहिष्कार की अपील पर जनता ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस बार मुस्लिम-बहुल घाटी में भी मतदान काफी अच्छा हुआ। आतंकवादी वारदातें भी घट गई हैं। हुर्रियत की सभाओं में भी हाजिरी कम हो गई है, लेकिन सरकार के इस फैसले ने हुर्रियत की डूबती नाव को तैरा दिया है।
पाकिस्तानी सरकार को भी पता है कि हुर्रियत का जलवा फीका पड़ गया है, लेकिन उसे भी अपनी ‘कश्मीर लाॅबी’ का मुंह बंद करना होता है, इसीलिए मिलने-जुलने के इस कर्मकांड को वह निभाए जाती है। यों भी इमरान खान और ताहिरुल कादिरी ने आजकल नवाज सरकार का दम फुला रखा है। विदेश सचिव वार्ता होती तो भी वह नक्कारखाने में तूती की तरह गुम हो जाती। पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा कि संप्रभु राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान किसी देश की आज्ञा मानने के लिए बाध्य नहीं है, इसलिए उसके उच्चायुक्त ने हफ्ते भर पहले से तय की गई भेंट को अंजाम दिया है। भारतीय विदेश मंत्रालय एन भेंट के वक्त फोन करे, और उसके हुक्म की तुरंत तामील हो जाए, यह कैसे हो सकता है?
कुछ भारतीय विश्लेषकों का कहना है कि विदेश सचिवों की इस भेंट का रद्द होना मोदी सरकार की विदेश नीति के दिवालिएपन का सूचक है, क्योंकि एक तरफ तो वह नवाज शरीफ को भारत बुलाती है, शाॅल और साड़ियां ली-दी जाती हैं और दूसरी तरफ इतना कमजोर बहाना बनाकर विदेश सचिवों की भेंट रद्द कर दी जाती है! हुर्रियत नेताओं से मिलना क्या हमारे जवानों के सिर काटने, क्या संसद पर हमले, क्या ताज होटल पर कब्जे, क्या हवाई जहाज के अपहरण जैसी कोई भयंकर घटना है, जिसके कारण वार्ता रद्द कर दी जाए? अब इस वार्ता के रद्द हो जाने के कारण क्या भारत-पाक संबंध अगले साल-दो साल तक अधर में नहीं लटक जाएंगे? क्या न्यूयॉर्क में सितंबर में अब मोदी-नवाज भेंट होगी? क्या नवंबर में काठमांडू के दक्षेस सम्मेलन में दोनों मिलेंगे? क्या दोनों देशों के बीच अब व्यापार-समझौता हो सकेगा? क्या मोदी की इस अचानक आक्रामकता का बुरा असर अन्य पड़ोसी देशों पर नहीं पड़ेगा?
ये सब प्रश्न सही होते, यदि मोदी सरकार का यह कदम सिर्फ विदेश नीति का होता। हुर्रियत विरोधी यह कदम शुद्ध घरेलू-नीति से संबंधित है। भाजपा हुर्रियत-विरोध की लहर पर सवार होकर जम्मू-कश्मीर में पहली बार अपनी सरकार बनाना चाहती है। संसदीय चुनाव में पहली बार उसे छह में से तीन सीटें मिली हैं। ये ही तीन संसदीय सीटें उसे विधानसभा में 41 सीटें दिला सकती हैं। चार लाख पंडितों के वोट मिल जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं कि उसे 44 सीटें मिल जाएं यानी 87 सदस्यों की सभा में पूर्ण बहुमत! इतने बड़े चमत्कार का इरादा रखने वाली मोदी सरकार ने अगर वार्ता-स्थगन का जो यह छोटा-सा दांव मारा है, उससे घबराने की जरूरत नहीं है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि उनके लिए कश्मीर विधानसभा का चुनाव अन्य सभी विधानसभा चुनावों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। कश्मीरी चुनाव के बाद हमारी पड़ोसी नीति फिर से पटरी पर आ जाएगी, लेकिन इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस चुनाव के बाद कश्मीर की घाटी और उसके अन्य इलाकों जम्मू और लद्दाख के बीच वैचारिक ध्रुवीकरण इतना तीव्र हो जाए कि लेने के देने पड़ जाएं।
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