R Sahara, 3 Aug 2003 : जब से सुपर्ण (बेटा) दुबई में रहने लगा है, अमेरिका या यूरोप या अरब देशों में जाते या आते समय मुझे दुबई रूकना ही होता है| गत वर्ष वहॉं विदेश नीति पर इतने व्याख्यान हुए और अखबारों ने उन्हें इतने अच्छे ढंग से छापा कि संयुक्त अरब अमारात (अमीरात नहीं) में अब मित्रों की कमी नहीं है| इस छोटे-से देश में कई हफ्ते रहना हो तो भी दिन-रात व्यस्तता बनी रहती है| अमारात के महत्वपूर्ण शासकों, मालदार शेखों, सफल भारतीय उद्यमियों और अनेक मज़दूर मित्रों के अलावा बेनज़ीर भुट्टो और अफगानिस्तान के भी कई नामी गिरामी नेताओं और उद्योगपतियों से भेंट हो जाती है|
पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो पिछले कुछ वर्षों से दुबई में ही रहती हैं| उनके तीनों बच्चे वहीं पढ़ते हैं| उनकी मौसेरी बहन लालेहा भी अपने बच्चों के साथ वहीं रहती हैं| दोनों जुमैरा नामक प्रतिष्ठित बस्ती में रहती हैं| दोनों ने किराए के बॅगले ले रखे हैं| अभी तक विदेशियों को वहॉं मकान खरीदने या बनाने की अनुमति नहीं थी| स्थानीय अरबों की आमदनी के दो बड़े स्रोत हैं| एक तो किराए की आमदनी और दूसरा विदेशियों के व्यापार-व्यवसाय में होनेवाली अनिवार्य भागीदारी की आमदनी| कोई भी विदेशी किसी स्थानीय अरब को अपना भागीदार बनाए बिना कोई काम-धंधा नहीं खोल सकता| कहा जाता है कि भारतीय उप-महाद्घीप के कई बड़े नेताओं ने अपना पैसा इसी प्रावधान की आड़ लेकर दुबई में लगा रखा है| बेनज़ीर भुट्टो कहती हैं कि वे दुबई में पैसे की वज़ह से नहीं, पास की वज़ह से रहती हैं| पाकिस्तान पास है, इसलिए बच्चों को आने-जाने में सुविधा होती है| पैसों की किल्लत का जिक्र वे अक्सर करती हैं| पिछले छह-सात साल से उनके पति आसिफ ज़रदारी पाकिस्तान में गिरफ्तार हैं| बेनज़ीर को भी पाकिस्तान गए अब चार साल हो रहे हैं| प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की लाहौर-यात्रा के एक हफ्ते पहले इस्लामाबाद और लाहौर में बेनज़ीरजी से तीन लंबी मुलाकातें हुई थीं| उसके बाद उनसे अक्सर दुबई, भारत या संयोगवश किसी पश्चिमी देश में ही भेंट होती है| इस बार मैं जैसे ही अमेरिका से दुबई पहुंचा, मालूम पड़ा कि वे काठमांडो गई हुई हैं| जिस शाम मैं भारत आनेवाला था, वे नेपाल से लौटीं और उसी रात रोम जानेवाली थीं| इस बार भोजन का समय ही नहीं था| अन्यथा दुबई में भोजन के बहाने अक्सर चार-छह घंटे की बैठक हो जाती है| फिर भी इस बार बेनज़ीरजी ने कहा कि भारत ने एराक़ में फौज नहीं भेजकर अच्छा किया, दिल्ली-लाहौर बस के दुबारा चल पड़ने पर खुशी जाहिर की और अपने पति आसिफजी के बारे में ताज़ा हाल बताती रहीं| यह कैसे हो सकता था कि नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के बारे में बात न हो| भोजन के लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया, खासकर वेदवतीजी के लिए कुछ निरामिष पकवान बनाने का लालच भी दिया लेकिन हमें आठ बजे तक हवाई अड्रडे पहुंचना था|
इस बार दुबई का प्रवास संक्षिप्त रहा लेकिन उसके दौरान कुछ अच्छे काम भी हुए| शेख नाह्रयान मुबारक तथा शेख मजरूई को यह विचार बहुत पसंद आया कि पश्चिम एशिया के अरब नौजवानों को खेरची व्यापार का प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे सिर्फ किराए और भागीदारी के भरोसे अपना जीवन न चलाऍं| इस योजना पर अमारात सरकार के उच्चाधिकारी पिल पड़े हैं| शीध्र ही कोई बड़ा संस्थान कायम होने जा रहा है| इसी प्रकार अबू धाबी में एक ऐसा अकादमिक केंद्र बनाने का सुझाव भी सत्ताधारी शेखों को पसंद आया, जो दुनिया के प्रमुख विवादों को हल करवाने में सकि्रय भूमिका अदा करे| इस कार्य में दुनिया के बड़े-बड़े नेता, कूटनीतिज्ञ और पत्रकार उनका सहयोग सहर्ष करेंगे| इस महान कार्य को सम्पन्न करने के लिए ‘अमारात’ से बढि़या कौन देश हो सकता है| उसका किसी देश के साथ कोई विवाद नहीं, उसे महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा नहीं, मुस्लिम देश होने के साथ-साथ पश्चिमी दुनिया में वह सुप्रतिष्ठित है तथा उसके पास भरपूर पैसा है| यदि ‘अमारात’ में कोई ऐसा संस्थान बन गया तो उससे इस्लाम की छवि भी निखरेगी| वह इस्लाम को आतंकवाद से अलग करेगी और उसे विश्व शांति के सन्निकट करेगी|
दुबई अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र तो बन ही गया है, वह सूचना और समाचार का केंद्र भी बनने जा रहा है| दुबई शहर की सीमा पर सैकड़ों एकड़ के विशाल परिसर में ‘नॉलेज विलेज’ ‘मीडिया सिटी’ और ‘इन्टरनेट सिटी’ की स्थापना की गई है| दुनिया की बड़ी-बड़ी इन्टरनेट कम्पनियॉ, समाचार समितियॉं और अखबार अपने दफ्तर वहॉं खोल रहे हैं| हॉंगकॉंग एशिया की सूचना-शक्ति का केंद्र माना जाता है| यह केंद्र अब खिसककर दुबई पहुंच रहा है| अनेक भारतीय लोग अब इस सुविधा का फायदा उठाकर अमेरिका और यूरोप के लिए ‘आउटसोर्सिंग’ का धन्धा बड़े पैमाने पर शुरू कर रहे हैं|
डेढ़ माह के प्रवास के बाद भारत लौटकर बहुत अच्छा लग रहा है| बरसात ने देश और दिल्ली की रंगत बदल दी है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर संघ चालक प्रो. राजेन्द्रसिंहजी के निधन की खबर सुनकर धक्का लगा| वे विज्ञान के पंडित होते हुए हिन्दी के महान प्रेमी थे| उनसे प्रथम सम्पर्क लगभग 20 साल पहले हुआ, जब आगरा से उनका फोन आया| उन्होंने अपना कोई पूर्वापर परिचय नहीं दिया और कहा कि ”मुझे आपकी पुस्तक ‘अंग्रेजी हटाओ क्यों और कैसे?’ की 300 प्रतियॉं चाहिए| ” जो सज्जन आगरा से पुस्तकें लेने आए, उन्होंने बताया कि ”वे रज्जू भैया हैं और वे खुद एक-एक करके आपकी यह पुस्तक बेचते और बॉंटते हैं|” उनके दिल्ली आने पर सम्पर्क निरंतर घनिष्ठ होता गया| वे अत्यंत विचारशील और साधु स्वभाव के व्यक्ति थे| जब भी भोजन करने बुलाते, संघ के विशाल भोजन-कक्ष में बराबरी से आसन लगवाते, सादे संघ-भोज को स्वादिष्ट बनवाने के लिए बाजार से मिठाइयॉं मॅंगवाते| वे जब भी इंदौर जाते, मेरे घर अवश्य जाते| पॉंच-छह माह पहले जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने मेरा प्रबंध-लेख ‘हिन्दुत्व भारतीयता नहीं’, छापा तो उसकी टंकित प्रति पढ़कर रज्जू भैया बोले ”आपने सावरकरजी के थीसिस पर खुलकर मंथन किया है| विचारशील लोगों में मतभेद तो होता ही है| इसे छपने दीजिए| इस पर बहस जरूरी है|” .रज्जू भैया, आपको हार्दिक श्रद्घांजलि !
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