R Sahara, Oct 2003 : स्विस महिला राजनयिक के साथ हुए बलात्कार की जितनी निन्दा की जाए कम है लेकिन यह भी विचारणीय है कि क्या इस तरह की खबरें मुखपृष्ठ पर आठ-आठ कॉलम में छापी जानी चाहिए| उस दिन के दिल्ली के कुछ अखबार देखकर ऐसा लग रहा था मानो दिल्ली पर कोई पाकिस्तानी बम गिर गया हो| क्या वह बलात्कार इसीलिए इतना खबरीला बन गया कि वह एक गोरी महिला के साथ हुआ है और वह भी एक राजनयिक महिला के साथ ! इसके पहले भी और उस दिन भी बलात्कार की अन्य घटनाऍं हुई हैं लेकिन उन्हें इतना नाटकीय नहीं बनाया गया| बलात्कार तो बलात्कार है, चाहे वह किसी के साथ भी हो| दिल्ली जैसे महानगरों में इस तरह की घटनाऍं ज्यादा हो रही हैं, यह शासन की चिन्ता का विषय है लेकिन समाज की चिन्ता शासन से अधिक गंभीर होनी चाहिए| हम ऐसा समाज क्यों बनने दे रहे हैं, जिसमें बलात्कार इतनी आसानी से हो जाते हैं| क्या इसमें दूर-संचार के साधनों की भूमिका कुछ भी नहीं है ? महानगरों से निकलनेवाले अंग्रेजी अखबार और टी.वी. की केबल-चालित चैनलें क्या करती रहती हैं ? क्या वे अपने पाठकों और दर्शकों को प्रतिदिन बलात्कारी बनने के लिए प्रोत्साहित नहीं करतीं ? पूरे साल ये सूचना-माध्यम बलात्कार की तैयारी करवाते रहते हैं और जब बलात्कार हो जाता है तो इतना स्यापा मचाते हैं कि मानो कोई परमाणु बम फट गया हो| ये दोनों प्रवृत्तियॉं ही घातक हैं| सिर्फ अखबार बेचने और अपने चैनल को लोकपि्रय बनाने के लिए राष्ट्रीय चरित्र को खोखला करना कहॉं तक उचित है ?
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बालेश्वरअग्रवालकातप
किसी एक व्यक्ति का संकल्प और परिश्रम कितना सार्थक हो सकता है, इसकी मिसाल हैं, श्री बालेश्वर अग्रवाल| बालेश्वरजी ने अब से 25 साल पहले अन्तरराष्ट्रीय सहयोग परिषद् नामक संस्था की स्थापना की| इस संस्था का रजत-जयंती समारोह राजधानी में मनाया गया| मुख्य अतिथि थे, उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी| अध्यक्ष थे, राजदूत लखन मेहरोत्रा, जो कि विदेश मंत्रालय के सचिव भी रह चुके हैं| अब से 25 साल पहले जब बालेश्वरजी ने इस संस्था की स्थापना की तो किसी को यह अन्दाज़ भी नहीं था कि प्रवासी भारतीयों का डंका सारी दुनिया में इस क़दर बजने लगेगा| इस संस्था का मुख्य लक्ष्य दुनिया के प्रवासी भारतीयों को आपस में जोड़ना, उनके दुख-दर्दों में काम आना और उन्हें भारतभक्त बनाए रखना था| इस लक्ष्य में परिषद्र काफी हद तक सफल रही है| उसने प्रवासी भारतीय सांसदों, उद्योगपतियों, समाजसेवियों और व्यावसायिकों के अनेक सम्मेलन किए हैं, जिनमें सभी महाद्वीपों में बसे प्रवासियों ने भाग लिया है| प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने कई अधिवेशनों का स्वयं उद्घाटन किया है| उन्होंने परिषद्र द्वारा प्रस्तावित प्रवासी भवन की नींव भी रखी है| यद्यपि परिषद की अध्यक्षता धर्मवीर, सरोजिनी महिषी, महाराजकृष्ण रसगोत्र, लखन मेहरोत्रा जैसे विख्यात लोग करते रहे हैं लेकिन सारा बोझ तो बालेश्वरजी ही उठाते हैं| 82 वर्ष की अवस्था में भी वे नौजवानों की तरह सकि्रय रहते हैं| उन्होंने दर्जनों देशों में घूम-घूमकर संगठन खड़ा किया और उसकी शाखाऍं भारत के अनेक प्रांतों में भी फैलाईं| भारत सरकार द्वारा आयोजित विश्व-स्तरीय प्रवासी मेला की नींव में भी बालेश्वरजी जैसे लोगों का ही कंधा लगा हुआ है| परिषद प्रारंभ करने के पहले बालेश्वरजी ने ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक हिन्दी की समाचार समिति की स्थापना की थी| अंग्रेजी की पी.टी.आई. और यू.एन.आई. के मुकाबले हिन्दी की समाचार समिति खड़ी करना उस समय बड़े साहस और सूझ-बूझ का काम था| देश के अनेक आदर्शवादी नौजवान उस समय बहुत कम वेतन लेकर ‘हिन्दुस्थान समाचार’ में काम करते रहे और देश के हिन्दी अखबारों की सेवा करते रहे| आपात्काल के दिनों में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ और ‘समाचार भारती’ पर सरकार की गाज गिरी और उन्हें ‘समाचार’ नामक सरकारी एजेन्सी में मिला दिया गया| हिन्दी की स्वतंत्र एजेन्सियॉं अंग्रेजी एजेन्सियों की गुलाम हो गईं| उस समय मैं ‘हिन्दुस्थान समाचार’ का डायरेक्टर था और बालेश्वरजी प्रधान सम्पादक ! अध्यक्षा थीं, डॉ. सरोजिनी महिषी ! मैंने ‘समाचार’ में विलय का डटकर विरोध किया लेकिन मैं अकेला था| बालेश्वरजी क्या करते ? मजबूरन विलय हो गया| उस दिन का दिन था और आज का दिन है कि अब तक हिन्दी की कोई स्वतंत्र समाचार समिति नहीं बन सकी| उसी निराशा की वेला में बालेश्वरजी ने परिषद्र का सूत्रपात्र किया और आज वह वटव्रक्ष बनती जा रही है| प्रवासियों को दोहरी नागरिकता, पी आई ओ कार्ड वगैरह दिलवाने में तो बालेश्वरजी का यथेष्ट योगदान है ही, उन्होंने ‘गोपियो’ ;ग्लोबल आर्गेनाइजेशन ऑफ पीपल्स ऑफ इंडियन ओरिजिनद्घ की भी स्थापना की| पुरानी ‘गोपियो’ के मुकाबले यह समानांतर ‘गोपियो’ अधिक सफल रही है| मोरिशस के प्रसिद्घ समाजसेवी श्री धनदेव बहादुर इस ‘गोपियो’ के अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष हैं| इन दोनों संस्थाओं के कर्णधार बालेश्वरजी ही हैं| वे अविवाहित हैं| उन्होंने देश-सेवा में अपना पूरा जीवन खपा दिया है| राज्यसभा में नामजदगी के लिए अगर कोई सुपात्र हो सकता था तो वे बालेश्वरजी ही थे| लेकिन इस तरह के लोग किसी नेता के आगे दुम हिलाने के आदि नहीं होते| वे अपना काम सतत करते चले जाते हैं| स्तुति या निन्दा की वे परवाह नहीं करते| राज्य उनका मूल्यांकन करे या न करे, समाज तो करता ही है| वे शतायु हों|
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नरेंद्रमोहनपरडाक-टिकिट
स्वर्गीय श्री नरेन्द्र मोहन पर प्रधानमंत्री ने हाल ही में डाक-टिकिट जारी किया| डाक-टिकिट की खबर सुनकर मेरे जैसे मित्र खुश हुए लेकिन बहुतों ने मुझसे पूछा कि ये नरेन्द्र मोहन कौन थे और इन पर डाक-टिकिट किस उपलक्ष्य में जारी किया गया ? देश के सिद्घ पत्रकार उन्हें बढि़या पत्रकार मानने को तैयार नहीं और सिद्घ कवि उन्हें कवि-मात्र मानने को भी तैयार नहीं| ऐसा क्या केवल इसलिए कि वे एक अखबार के मालिक थे और धीरे-धीरे पैसेवाले भी बन गए थे ? स्वयं प्रधानमंत्री ने डाक-टिकिट जारी करते समय कहा कि अखबार में उनकी कविता को देखते ही वे आगे बढ़ जाते थे लेकिन अब उनके संकलन को ध्यान से पढ़ने पर महसूस होता है कि उनकी कविता में काफी दम है| ऐसा नहीं है कि डाक-टिकिट केवल पत्रकारिता या केवल कविता के कारण जारी किया गया होगा| यदि यही आधार होता तो सैकड़ों लोग कतार में उनसे आगे होते| ‘जागरण’ को हिन्दी के सबसे अधिक प्रसारित अखबारों की श्रेणी में ले जाना भी कोई कम बड़ी बात नहीं है| ये बात अलग है कि उस अभियान के मूल में पत्रकारिता से अधिक पैसे की प्रेरणा रही होगी, जैसी कि आजकल हर अखबार-मालिक की होती है| यदि प्रसारण के कारण डाक-टिकिट निकला है तो इस समय हिन्दी और अंग्रेजी के कुछ अन्य अखबार-मालिकों का दावा नरेन्द्र मोहनजी से भी अधिक मजबूत हो जाता है| लेकिन ये अखबार-मालिक न तो भाजपा के सांसद हैं और न ही विश्व हिन्दू परिषद के पदाधिकारी ! नेतागण अगर कोई सही निर्णय करते हैं तो भी उसमें जनता गुण-अवगुण का मानदंड नहीं देखती| वह यही देखती है कि नेता केवल अपना स्वार्थ देखता है| कैसी विडम्बना है ?
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दीमकोंकाभोजन
‘द फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स’ के नए अध्यक्ष श्री आनंद भूषण के सम्मान में टी.पी. झुनझुनवाला प्रतिष्ठान की ओर से प्रीति-भोज रखा गया| भोज की आयोजिका श्रीमती शीला झुनझुनवाला ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया| उन्होंने भोज के पहले पूछ लिया कि “हिन्दी की किताबें दुकानों पर क्यों नहीं मिलतीं ? पाठकों तक क्यों नहीं पहॅुंचतीं?” डॉ. गौरीशंकर राजहंस और लेखिका कमल कुमार ने इस प्रश्न को और तीखा कर दिया| देश के नामी-गिरामी प्रकाशक वहॉं बैठे थे| वे बगले झॉंकने लगे| किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि हिन्दी के प्रकाशक अपनी किताबें पाठकों के लिए नहीं, दीमकों के लिए छापते हैं| पाठक लागत मूल्य से दस गुना कैसे खर्च करेगा ? दीमकों को तो कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता| सरकारी खरीद की सीढ़ी पर चढ़कर पुस्तकें उन तक मुफ्त में ही पहॅुच जाती हैं|
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