नया इंडिया, 25 अगस्त 2013: मुंबई की बलात्कार पीडि़ता को ज्यों ही होश आया, उसने अपनी मां से कहा कि उन बलात्कारियों को आजन्म कारावास होना चाहिए। आजन्म कारावास का प्रावधान कानून में तो है और अबसे पहले कई बार कइयों को ऐसे कारावास हो चुके हैं लेकिन इससे फर्क क्या पड़ा है? बलात्कार की घटनाएं बढ़ती ही चली जा रही हैं। वे लोग तो बलात्कार करते ही हैं, जो असभ्य हैं, अशिक्षित हैं, हताश हैं, नशेड़ी हैं, अनैतिक धंधों में लगे हुए हैं लेकिन अब तो तथाकथित साधु-संतों, महात्माओं, गुरुओं और संन्यासियों के द्वारा किए जा रहे नृशंस बलात्कारों की खबरें देश में जब-तब गूंजती रहती हैं।
पिछले दिनों जब चलती बस में ‘निर्भया’ के बलात्कार की खबर उछली थी तो दिल्ली ही नहीं, पूरा देश दहल उठा था। लेकिन हुआ क्या? दूसरे-तीसरे दिन ही हमने, बिहार, पंजाब और दिल्ली में अन्य बलात्कारों की खबरें पढ़ीं। याने बलात्कारी न तो जन-आक्रोश से डरते हैं और न ही सजा का डर उन्हें दुष्कर्म से रोक पाता है। तो समाज आखिर करे क्या? सबसे पहली बात तो यह है कि बचपन से ही बच्चों को मर्यादा में रहने का संस्कार दिया जाए लेकिन जिन परिवारों में मां-बाप खुद ही संस्कारहीन और अशिक्षित हों, वे अपने बच्चों को संस्कार क्या देंगे? इसका एक इलाज यह हो सकता है कि भारत में शिक्षा अनिवार्य हो। जो भी अपने बच्चों को स्कूल में न भेजें, उन माता-पिता को दंडित किया जाए। और स्कूलों में बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा अनिवार्य हो। दूसरा, हमारे फिल्मों और टीवी चैनलों पर चलने वाली अश्लीलता पर कड़ा प्रतिबंध हो। तीसरा, कानूनी कार्रवाई ज़रा जल्दी हो और अत्यंत कठोर हो।
बलात्कारियों को सजा होने में इतनी देर लग जाती है कि लोगों को याद ही नहीं रहता कि दो-चार साल पहले क्या हुआ था। चोट तब मारी जानी चाहिए, जब लोहा गरम हो। अपराधियों को सजा मिल जाती है लेकिन समाज पर उसका जो असर होना चाहिए, वह नहीं होता। यदि अपराध होने के आठ-पंद्रह दिन में ही सजा मिलने लगे तो भावी बलात्कारियों की रुह मंे कुछ कंपकंपी जरुर चढ़ेगी। यदि हम चाहते हैं कि लोग सचमुच बलात्कार करने से डरने लगें तो सजा भी उतनी ही नाटकीय और कठोर होनी चाहिए, जितना कि बलात्कार होता है। सिर्फ आजन्म कारावास क्यों? फांसी की सजा क्यों नहीं? और वह भी जेल में क्यों? फांसी लाल किले, विजय चौक या इंडिया गेट पर क्यों नहीं दी जाती? सभी टीवी और रेडियो चैनलों पर उसका जीवंत-प्रसारण भी क्यों नहीं हो? जो जितना बड़ा आदमी होने का ढोंग करे, उसी उतनी बड़ी सजा मिलनी चाहिए। मनुस्मृति की भी यही व्यवस्था है। यदि कोई साधु, नेता, गुरु और विख्यात व्यक्ति बलात्कार का अपराधी हो तो उसे बहु-प्रचारित फांसी ही न दी जाए बल्कि उसकी लाश को कुत्तों से नुचवाने का प्रबंध भी किया जाए। जिस राक्षस ने किसी युवती को जीते-जी लाश में परिणत कर दिया हो, उसकी लाश का अंतिम-संस्कार करने की जरुरत क्या है? मेरी यह दवा कड़वी तो है लेकिन किसी को एक बार पिलाकर तो देखिए!
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