नया इंडिया, 23 जनवरी 2014: भारत के जैन समाज को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा मिल गया, इस पर बहुत-से हिंदू तो नाखुश होंगे ही, अनेक अल्पसंख्यक भी दुखी होंगे। हिंदू दुखी आत्माएं कहेंगी कि जैनों को अल्पसंख्यक की मान्यता देकर कांग्रेस सरकार ने हिंदुओं की एकता को भंग कर दिया है और कुल हिंदू जनसंख्या को कम कर दिया है। इस तरह से यदि अन्य हिंदू संप्रदायों को भी अल्पसंख्यक मान्यता दे दी गईं तो एक दिन हिंदू समुदाय ही अल्पसंख्यक बन जाएगा। हिंदुओं के इस भय के पीछे जो तर्क हैं, वे सही दिखाई पड़ते हैं लेकिन वो पूरी तरह सही नहीं हैं। पहली बात तो यह कि जैन संप्रदाय हिंदू ही है बल्कि मैं यह कहूं कि वह हिंदुओं से भी बड़ा हिंदू है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी अब से 2500 साल पहले हुए। तब हिंदू धर्म नाम की कोई चीज़ भारत में नहीं थी। जिसे आज हिंदू धर्म के नाम से हम जानते हैं, उसके मंदिर, मूर्तियां, पूजा-स्थल दो हजार साल से ज्यादा पुराने कहीं नहीं मिलते। याने जैन संप्रदाय हिंदू संप्रदाय से कम से कम 500 साल पुराना है। इसके अलावा मूर्तिपूजक भारतीयों को ‘हिंदू’ नाम भी अरबों और मुगलों ने दिया है। वे ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ करते हैं। सिंधु नदी के पार स्थित देश को वे हिंद देश कहते थे और उसके निवासियों को हिंदू। यदि भारत के मूल धर्मों की एकता में हमारा विश्वास नहीं है तो भारत की एकता में भी हमारा विश्वास नहीं हो सकता। यह सिद्धांत बौद्ध, सिख, आर्यसमाज, ब्राह्म समाज आदि सभी संप्रदायों पर भी लागू होता है। यदि नहीं तो हिंदू समाज में शैव, शाक्त, वैष्णव जैसे हजारों संप्रदाय हैं, जो परस्पर विरोध भी करते हैं और इन सैद्धांतिक भिन्नताओं के कारण हम सबको पृथक मान्यता देनी होगी। वे सब पृथक होते हुए भी मूलतः एक ही है।
वास्तव में संख्या के आधार पर किसी सांप्रदाय को कोई दर्जा देना ‘सांप्रदायिक आरक्षण’ देने के बराबर ही है और यह वोट कबाड़ने का सबसे सस्ता तरीका है। यह लोकतांत्रिक भावना के भी विरुद्ध है। जहां तक वोट का सवाल है, जैन लोग भेड़चाल नहीं चलते। हर व्यक्ति अपना निर्णय स्वयं करता है। कांग्रेस ने यदि थोक वोट के लालच में यह कदम उठाया है तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी, क्योंकि जैनों की संख्या एक करोड़ भी नहीं है और उनमें से कितने वोट डालने जाते हैं?
तो फिर जैनों ने क्यों पृथक पहचान की मांग पर जोर दिया? सिर्फ इसलिए कि अल्पसंख्यक होने के नाते अब उनके स्कूल-कालेजों, अस्पतालों, धर्मशालाओं, अनाथालयों, वृद्धाश्रमों आदि को स्वायत्ता मिल जाएगी। सरकारी हस्तक्षेप कम से कम होगा। सरकारी प्रावधान के अनुसार उनकी हर योजना पर 15 प्रतिशत सरकारी मदद मिलेगी। इस मदद को जैन-संस्थाएं स्वीकार करेंगी या नहीं, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि जैन समुदाय देश का सबसे अधिक उद्यमी और स्वाभिमानी समुदाय है। उसमें शिक्षितों की भी कमी नहीं है। जैन किसी की भी मदद के मोहताज़ नहीं है। वे अपने इस नए दर्जे से उत्साहित होकर परोपकारी कार्यों के लिए अब ज्यादा दान देंगे और ज्यादा उत्साह से काम करेंगे। उन्हें 11 राज्यों में पहले से ही अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है। अब राष्ट्रीय मान्यता मिल जाने से मणिपुर, नागालैंड और कश्मीर जैसे सुदूर क्षेत्रों में रहनेवाले जैन लोग भी प्रोत्साहित होंगे। जहां तक अलगाव की बात है, जब यह दर्जा प्राप्त करने के बावजूद बौद्ध और सिख लोगों में जरा भी अलगाव नहीं दिखा तो जैन समुदाय पर यह संदेह करने का कोई कारण नहीं है। अन्य अल्पसंख्यकों के भी दुखी होने का कोई कारण नहीं है। जैन लोग उन अल्पसंख्यकों को मिलनेवाली मदद में से शायद ही अपने लिए कुछ मांगेंगे। उन्हें अपने आपको ‘अल्पसंख्यक’ कहलाने की कोई जरुरत नहीं थी लेकिन उन्होंने सोचा कि बहती गंगा में वे भी अपने हाथ-पांव क्यों न धोलें?
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