नया इंडिया, 7 जनवरी 2014 : लोकतांत्रिक देशों में संभवतः यह पहली घटना है कि किसी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी ने आम चुनाव का पूर्ण बहिष्कार कर दिया हो और उसके बावजूद चुनाव संपन्न हो गए हो और वहां सरकार बन गई हो। बांग्लादेश में इस रविवार यही हुआ है। खालिदा जिया की पार्टी-बांग्लादेश राष्ट्रवादी पार्टी और उसके गठबंधन की पार्टियों ने इसलिए इस दसवें आम चुनाव का बहिष्कार किया कि प्रधानमंत्री शेख हसीना चुनाव के दौरान कामचलाऊ सरकार को नियुक्त करने के लिए तैयार नहीं थी। खालिदा का मानना था कि शेख हसीना अत्यंत अलोकप्रिय हो गई हैं और यदि निष्पक्ष चुनाव हुए तो वे बुरी तरह से हारेंगी। शेख हसीना अपने आसन पर डटी रहीं और 5 जनवरी को चुनाव हो गए। कुल 300 सीटों में से 157 पर संघर्ष ही नहीं हुआ, क्योंकि उन पर कोई विरोधी उम्मीदवार ही नहीं था। कुल 147 सीटों पर संघर्ष हुआ। हसीना की अवामी लीग को 95 सीटें मिल गईं। शेष सीटें दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों में बंट गईं। अब सरकार तो बन गई लेकिन यह चलेगी कैसे?
चुनाव के दौरान ही दर्जनों लोग मारे गए। पुलिस के भारी बंदोबस्त के बावजूद सैकड़ों मतदान केंद्र तोड़ दिए गए, जला दिए गए और लूट लिए गए। चुनाव इतने विवादास्पद हो गए थे कि विदेशी पर्यवेक्षकों ने भी आने से मना कर दिया। लगभग नौ करोड़ मतदाताओं में से कितनों ने मतदान किया, यह भी अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि यदि घना कोहरा न होता तो मतदान बेहतर होता। पहले ही खालिदा ने 48 घंटे की हड़ताल का आह्वान किया था और अब उसे 48 घंटे और बढ़ा दिया है।
यह अतिवाद इसलिए भी फैला है कि शेख हसीना ने अपने पिता-शेख मुजीब के हत्यारों और पाकिस्तानी फौज के साथ सांठ-गांठ करनेवाले देशद्रोहियों को दंडित किया है। जमाते-इस्लामी के नेता, अब्दुल कादिर मुल्ला, को जो फांसी लगाई गई, उसे मुद्दा बनाकर खालिदा ने बांग्लादेश के इस्लामी तत्वों को भड़काया और सारे देश में उत्तेजना फैला दी। खालिदा के हाथ में हसीना के खिलाफ एक मजबूत हथियार आ गया। खालिदा ने भारत-विरोधी प्रचार करने में भी कोई कमी नहीं रखी लेकिन ऐसे वक्त में हसीना से यह उम्मीद करना गलत नहीं था कि वे कामचलाउ सरकार चलने देतीं। फिर भी यदि खालिदा पैंतरेबाजी करतीं तो सारा दोष उनके मत्थे ही आता लेकिन अब हसीना को शांतिपूर्ण शासन चलाने में बहुत दिक्कत होगी। उनकी सरकार की वैधता शंकास्पद हो गई है। जिस देश में दो राष्ट्रपतियों की हत्या हो चुकी हो और 43 साल में 19 बार तख्ता-पलट की कोशिश हो गई हो, उस राष्ट्र में लोकतंत्र को बचाकर रखना तलवार की धार पर चलने के बराबर है।
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