Nav Bharat, 12 Sept. 2002 : एराक पर अमेरिका हमला करे या न करे, उसने अपनी साख पर तो हमला बुलवा ही लिया है| दुनिया का कौनसा कोना है, जहाँ से अमेरिका पर हमला नहीं हो रहा है| अमेरिका के मित्र राष्ट्र भी कह रहे हैं कि राष्ट्रपति बुश ताकत के नशे में चूर हैं| वे अपने बाप का बदला लेना चाहते हैं| उनके पिता अब से 12 साल पहले जहाँ फिसल गए थे, वहाँ वे तनकर खड़े होना चाहते हैं| उनके पिता ने सद्दाम हुसैन से कुवैत तो खाली करवा लिया था लेकिन उन्हें वे बगदाद से अपदस्थ नहीं कर पाए थे| सद्दाम हुसैन की हत्या की भी कोशिशें नाकाम होती रहीं| तब बहाना कुवैत था और अब सर्वनाशी हथियार हैं| अब अपने पिता के सच्चे सपूत राष्ट्रपति बुश का कहना है कि सद्दाम हुसैन परमाणु और जैविक हथियारों का जखीरा खड़ा कर रहा है और यह अमेरिका की सुरक्षा को सीधा खतरा है| इसीलिए अमेरिका का कोई साथ दे या न दे, अमेरिका सद्दाम हो हटाएगा और उसकी जगह एराक में लोकतांत्रिक शासन कायम करेगा| यह वही सद्दाम है, जिसे ईरान के विरुद्घ दैत्याकार बनाने में अमेरिका ने कोई कसर न छोड़ी थी| खुद 75 प्रतिशत अमेरिकियों को पल्ले नहीं पड़ रहा कि बुश सद्दाम के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ गए हैं| अभी उसामा पकड़ा नहीं गया, कश्मीर अब भी उबल रहा है, फलस्तीन की लपटें शांत नहीं हुई हैं और बुश हैं कि एराक में आ बैल सींग मार में जुटे हुए हैं|
अमेरिका का साथ कोई भी राष्ट्र नहीं देना चाहता| यहाँ तक कि बि्रटेन भी नहीं| बि्रटेन की सरकार और सत्तारूढ़ दल में भी इस प्रश्न पर गहरे मतभेद हैं कि एराक पर होनेवाले अमेरिकी हमले का साथ दिया जाए या नहीं| अमेरिका खुद परेशान है| उसके नेता कह रहे हैं कि बि्रटेन तो उसका रक्त-संबंधी है| वह ‘ना’ कैसे करेगा ? सचमुच बि्रटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लयेर ‘ना’ नहीं कह पा रहे हैं| नाटो के अनेक राष्ट्रों ने खुले-आम अमेरिकी इरादों को गलत बताया है लेकिन यह निश्चित है कि जैसी ही अमेरिकी कार्रवाई शुरू हुई, ये राष्ट्र भी चुप्पी खींच लेंगे| झक मारकर उन्हें अमेरिका का समर्थन करना पड़ेगा| उनमें से एक राष्ट्र भी अमेरिका का विरोध नहीं करेगा या नाटो छोड़ने की पेशकश नहीं करेगा लेकिन क्या यह वही स्थिति होगी, जो पिछले साल वर्ल्ड ट्रेड टॉवर गिरने के बाद हुई थी ? एक साल में ही कितना फर्क पड़ गया है ? क्या उस 11 सितंबर की तुलना इस 11 सितंबर से की जा सकती है ? क्या एराक पर बुश को वैसा ही समर्थन मिलेगा, जैसा कि अफगानिस्तान पर मिला था ? जाहिर है कि नहीं| तो इसका नतीज़ा क्या होगा ?
इसका पहला नतीजा यह होगा कि अमेरिका का वह रुतबा नष्ट हो जाएगा, जो उसे विश्व-आतंकवाद के विनाशकर्ता के रूप में मिला था| अब सारी दुनिया यह मानने लगेगी कि खुद अमेरिका ही एक आतंकवादी राष्ट्र है| वह न केवल एराक को आतंकित कर रहा है बल्कि अभी दो माह पहले उसने फलिस्तीनी नेता यासर अराफात को भी हटाने का नारा बुलंद किया था| वह उसामा बिन लादेन और अराफात पर हाथ नहीं डाल सका तो अब वह सद्दाम हुसैन पर अपनी ताकत आजमा रहा है| अब से चालीस वर्ष पहले वह फिदेल कास्त्रो को भी क्यूबा से हटाना चाहता था लेकिन कास्त्रो उसकी छाती पर अब भी मूँग दल रहे हैं|सद्दाम को दी गई धमकी तो बिन बादल बरसात की तरह है| अकारण ही एराक पर गुर्राने का रहस्य किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है| उसामा और अराफात से मात खाने के बाद अगर सद्दाम को हटा भी दिया तो अमेरिका को कौनसी वाहवाही मिलनेवाली है ? दूसरे नतीजे के तौर पर यही माना जाएगा कि अमेरिका अपने एक मात्र ‘महत्तम शक्ति’ होने के पद का दुरुपयोग कर रहा है| याने वह उतना ही गैर-जिम्मेदार है, जितना कि उसामा बिन लादेन| जैसे उसामा अपनी मनमानी करता रहा, वैसे ही बुश भी कर रहे हैं| दूसरे शब्दों में अमेरिका के ‘महत्तम शक्ति’ के दर्जे पर प्रश्न-चिन्ह लग जाएगा|
तीसरा दुष्परिणाम यह होगा कि सारे मुस्लिम जगत में अमेरिका के प्रति घृणा की एक नई लहर उठेगी| अफगानिस्तान से उसने तालिबान को हटाया तो पाकिस्तान के कुछ तत्वों के अलावा मुस्लिम जगत में कहीं कोई विरोध नहीं हुआ लेकिन एराक के मामले में समस्त अरब राष्ट्रों ने ही नहीं, समस्त मुस्लिम राष्ट्रों ने भी अमेरिकी इरादे का विरोध किया है और कुछ ने उसकी निंदा भी की है| उस ईरान ने भी कड़ा विरोध किया है, जिसने लगभग दस साल तक एराक से लगातार युद्घ लड़ा था और अपने लाखों नौजवान खोए थे| यह ठीक है कि सउदी अरब, कुवैत और बहरीन जैसे देशों के हुक्मरान अंदर ही अंदर सद्दाम को हटाने की हसरत पाले हुए हैं लेकिन वे भी खुले-आम अमेरिकी कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकते, क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी जनता अमेरिका के खिलाफ है| यदि अमेरिका ने एराक के विरुद्घ कार्रवाई कर ही दी तो यह उसामा की सबसे बड़ी मदद होगी| इस्लामी आतंकवाद की जड़ों को सींचने का श्रेय अमेरिका को ही मिलेगा| डॉलर की मोहताज कुछ अरब सरकारें अमेरिका की चरण-सेवा में जरूर लग जाएँगी लेकिन ये आतंकवाद को कैसे रोक पाएँगी| हर अरब घर में आतंक का वट-वृक्ष पलने लगेगा| हर अरब दिल में प्रतिशोध का अंगार सुलगने लगेगा| ऐसे में आतंकवाद का निशाना अमेरिका भी होगा और उसके साथ-साथ अरबी सरकारें भी होंगी| सद्दाम को हटाते-हटाते अमेरिका पता नहीं कितने अरबी राजवंशों की जड़ें खोखली कर देगा|
अमेरिकी हमले का चौथा दुष्परिणाम यह होगा कि तेल की कीमतें आसमान छूने लगेंगी| यदि युद्घ लंबा खिंच गया और एराक के बाहर भी फैल गया तो दुनिया तेल को तरस जाएगी| खुद अमेरिका की जेब भी कटेगी| पिछले एराक-युद्घ में अमेरिका ने चाँदी काटी थी, क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र की अनुज्ञा से लड़ा गया था और अनेक देशों ने पैसे भरे थे लेकिन इस एकाकी युद्घ में सारी मार अमेरिका को ही झेलनी पड़ेगी| अमेरिका इस मार को झेलने में समर्थ है लेकिन भारत जैसे देशों का क्या होगा ? अमेरिकी कार्रवाई उसे तीसरी दुनिया में काफी अलोकपि्रय बना देगी| यों भी तीसरी दुनिया के सभी गैर-मुस्लिम देश भी अमेरिकी इरादों का स्पष्ट विरोध कर रहे हैं| जिन तीन राष्ट्रों को – ईरान, एराक और उत्तर कोरिया – को बुश ने ‘बुराई की जड़’ कहा था, उनसे रूस और चीन के संबंध बराबर घनिष्ट होते जा रहे हैं| भारत भी उनके काफी करीब है| अमेरिकी सनक की वजह से इन देशों के साथ भारत, रूस और चीन अपने संबंध खराब क्यों करें ?
उस बार याने 1990-91 की बात और थी| इस बार एराक पर अमेरिकी हमले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद्र का समर्थन मिलना असंभव है| वैसा भी नहीं मिलेगा, जैसा कि अफगानिस्तान पर पिछले साल मिला था| ऐसी स्थिति में अमेरिकी कार्रवाई बिल्कुल गैर-कानूनी मानी जाएगी| संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र के सातवेंे अध्याय की ओट लेकर यदि अमेरिका कोई कार्रवाई करेगा तो हेग का अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय उसे विश्व-अपराधी भी घोषित कर सकता है, क्योंकि एराक पर किया जानेवाला हमला आत्म-रक्षा के लिए नहीं बल्कि अपना आतंक जमाने के लिए किया जाएगा| जब एराक के पड़ौसी राष्ट्र उससे कोई खतरा महसूस नहीं कर रहे तो हजारों मील दूर बैठा अमेरिका क्यों बिलबिला रहा है ? जाहिर है कि अमेरिका एराक के तेल पर कब्जा करना चाहता है और ईरान में भूस भरना चाहता है| अफगानिस्तान और मध्य एशिया पर उसका फौजी शिकंजा कसता ही जा रहा है| ऐसे में रूस और भारत अगर चुप बैठते हैं तो वे अपने पाँवों पर ही कुल्हाड़ी मारेंगे| यदि अमेरिका सचमुच आतंकवाद के विरुद्घ होता तो कश्मीर पर सीधे भारत का समर्थन करता| चह चेचेन्या में रूस और सिंक्यांग में चीन को विजयी होता हुआ देखता लेकिन उसका लक्ष्य केवल अपना स्वार्थ सिद्घ करना है|
यदि भारत जैसे राष्ट्र अभी अमेरिका का सीधा विरोध नहीं करना चाहते तो उन्हें सद्दाम हुसैन को प्रेरित करना चाहिए कि वे अपने शस्त्र-संस्थानों को संयुक्त राष्ट्र की निगरानी के लिए पूरी तरह खोल दें और दुनिया को यह बता दें कि निराधार शक के आधार पर अमेरिका हमला बोलने को उतारू है| इस पहल पर अमेरिका भी सहमत हो सकता है| उसे होना ही पड़ेगा| साँप भी मरेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी| इस मामले में भारत का तटस्थ बने रहना आश्यर्चजनक है|
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