नवभारत टाइम्स, 27 नवंबर 2002: जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने अपनी फौजी चेहरे पर लोकतंत्र का मुखौटा जमा लिया है| जमाली के ज़रिए जमा लिया है| मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) के नेता मीर जफरुल्ला खान जमाली को आखिरकार उन्होंने प्रधानमंत्री बनवा ही दिया| वे बनवाते, इसकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी| कोई भी प्रधानमंत्री अपने आप बन जाना चाहिए था| लेकिन कोई कैसे बनता ? किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था| तीन मुख्य पार्टियाँ थीं – मुस्लिम लीग, मुत्तहिदा मजलिसे-अमल और पीपल्स पार्टी| तीन में से अगर कोई दो मिल जातीं तो यह सरकार पिछले माह ही बन जाती लेकिन तीन पार्टियाँ त्रिभुज के तीन कोण बनी रहीं| इसका फायदा मुशर्रफ को मिला| पहले उन्होंने बेनज़ीर भुट्टो की पीपल्स पार्टी के दस सांसद तोड़े| उनका अलग गुट बना| दल-बदल विरोधी कानून को मुशर्रफ नेताक पर रख दिया| फिर उन्होंने छोटी-मोटी लगभग डेढ़ दर्जन पार्टियों से तरह-तरह के समझौते किए और पिछले शनिवार जमाली को प्रधानमंत्री पद का खिलौना थमा दिया| जमाली की हालत अटलबिहारी वाजपेयी से बदतर है| अटलजी की पिछली सरकार सिर्फ एक वोट से गिर गई थी, जमाली की सरकार सिर्फ एक वोट से बनी है| 342 सदस्यों के सदन में 172 वोट का क्या मतलब है ? यदि आज ही एक वोट भी इधर से उधर हो जाए तो जमाली धराशायी हो जाएँगे| पाकिस्तान का यह प्रधानमंत्री तलवार की धार पर नहीं, रेज़र की पतली पत्ती की धार पर चल रहा है| उसका दिन का चैन और रात की नींद हराम है|
मुशर्रफ को ऐसा ही प्रधानमंत्री चाहिए था| जमाली न तो पंजाबी हैं और न ही सिंधी| वे हैं, बलूच| पहले बलूच प्रधानमंत्री और बलूच भी ऐसे की एक बार किसी तरह मुख्यमंत्री बने तो महिने भर में ही गुड़क गए| यह ठीक है कि उनकी पार्टी ‘मुस्लिम लीग’ (क़ायदे-आज़म) पंजाब में सरकार बनाएगी लेकिन पंजाबियों का नेतृत्व खुर्शीद महमूद कसूरी और कुछ दूसरे प्रांतीय नेता करेंगे, न कि जमाली| दूसरे शब्दों में जमाली का जनाधार पाकिस्तान के किसी भी प्रांत में मजबूत नहीं है, उनके अपने बलूचिस्तान में भी नहीं| वहाँ ‘मुत्तहिदा’ मजबूत है| ऐसी स्थिति में जमाली कठपुतली प्रधानमंत्री के अलावा क्या हो सकते हैं? अगर उनकी राजनीतिक जीवनी पर गौर किया जाए तो मालूम पड़ेगा कि वे जन्मजात कठपुतली ही हैं| फातिमा जिन्ना के निजी सहायक के तौर पर प्रकट हुए जमाली, पहले जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपल्स पार्टी में गए, फिर भुट्टो के उलटते ही जनरल जि़या-उल-हक के कृपा-पात्र बने, उसके बाद नवाज़ शरीफ़ के नज़दीक आए और अब मुशर्रफ की नाक के बाल हैं| पानी तेरा रंग कैसा ? जिसमें मिलाएँ वैसा ! अब जमाली पाकिस्तानी फौज के नागरिक मुखौटे की भूमिका निभाएँगे|
मुशर्रफ और जमाली के बीच हमें वैसी तकरार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, जैसी कभी जि़या-उल-हक और जुनेजो, गुलाम इजहाक खान और नवाज़ शरीफ तथा फारूक लघारी और बेनज़ीर की बीच हुई थी| प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति बर्खास्त कर दे, ऐसी नौबत नहीं आएगी लेकिन अगर जमाली ने ‘मुत्तहिदा’ या पीपल्स पार्टी को पटाकर अपनी स्वायत्त सत्ता बनाने की कोशिश की तो उन्हें बर्खास्त करने में मुशर्रफ एक मिनट भी नहीं लगाएँगे| ‘मुत्तहिदा से साँठ-गाँठ का मतलब है, इस्लामवादियों का बोलबाला याने अमेरिका-विरोध ! मुशर्रफ तो आजकल बुशर्रफ बने हुए हैं| बुशर्रफ जमाली को कच्चा नहीं चबा जाएँगे ? यदि जमाली ने पीपल्स पार्टी से साँठ-गाँठ की तो फौज उसे हज़म नहीं कर पाएगी| ऐसी स्थिति में जमाली को हर कदम उसी पगडंडी पर रखना होगा और फंूक-फूंककर रखना होगा, जो जनरल साहब ने अपनी तलवार से खींच दी है|
वास्तविकता तो यह है कि मुशर्रफ अब पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही हैं| सर्वोच्च सेनापति तो वे पहले से ही हैं| याने जब वे कहें कि आप लोकतांत्र्िाक सरकार के प्रधानमंत्री से कार्यालाप कीजिए तो इसका मतलब है – फौज और जनरल साहब से बात कीजिए| यह तेवर चाहे भारत को न जँचे लेकिन अमेरिका और पश्चिमी जगत के लिए यह पर्याप्त अनुकूल है| यों भी जमाली ने पहले दिन ही कह दिया है कि विदेश नीति और अर्थ नीति तो जनरल साहब ही चलाएँगे| यहाँ ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि रक्षा और गृह मंत्रालय पीपल्स पार्टी को दिए गए हैं और विदेश मंत्रालय खुर्शीद महमूद क़सूरी को दिया गया है, जो कभी नवाज़ शरीफ़ के जरिए फौज के बहुत नज़दीक हुआ करते थे| इससे भी बड़ी बात यह है कि जमाली के चार सलाहकार नियुक्त किए गए है| उनमें से दो मुशर्रफ के मंत्र्िामंडल के सदस्य रहे हैं| कहने की जरूरत नहीं कि ये चार सलाहकार किन्हीं भी मंत्र्िायों से अधिक प्रभावशाली होंगे | ये चारों सलाहकार जमाली की सरकार के चार स्तम्भ होंगे| वे जमाली नहीं, मुशर्रफ के प्रति जवाबदेह होंगे| जमाली को अगले साठ दिन में संसद में विश्वास -मत प्राप्त करना है| मुशर्रफ का विश्वास कायम रखे बिना जमाली को संसद का विश्वास-मत कैसे मिलेगा| सभी सांसद जानते हैं कि अगर जमाली हार गए तो मुशर्रफ संसद भंग कर देंगे| दूसरे शब्दों में मुशर्रफ प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री, संसद को भी कठपुतली की तरह नचाना चाहेंगे|
मुशर्रफ का मनोरथ पूरा होगा, इसमें बड़ा संदेह है| मुत्तहिदा और पीपल्स पार्टी दोनों ही जमाली याने मुशर्रफ का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे| जमाली की सरकार चाहे कुछ दिनों चलती रहे लेकिन विपक्ष उससे लूला-लंगड़ा बनाए बिना नहीं मानेगा| संसद में जबर्दस्त हंगामे होंगे| वह खूंखार नाट्रयशाला बन जाएगी| जमाली के हर कदम पर प्रश्न-चिन्ह लगाए जाएँगे| अगर वे घरेलू या विदेशी मामले में कोई संयत रवैया भी अपनाएँगे तो उनकी टांग खिंचाई होगी| मुत्तहिदा-नेता फज़लुर रहमान ने तो यह भविष्यवाणी भी कर दी है कि अब 1971 दोहराया जाएगा याने बलूचिस्तान, सरहदी सूबा और सिंध मिलकर पंजाब के विरुद्घ बगावत का झंडा खड़ा कर देंगे| यह क्रोध की वाणी है| खयाली पुलाव है लेकिन यह सच है कि पाकिस्तान में अब उग्रवाद बढ़ेगा| इसका खमियाज़ा भारत और अफगानिस्तान, दोनों को भुगतना पड़ेगा| विपक्ष इस आधार पर काम करेगा कि यदि जनरल मुशर्रफ 1973 के संविधान को तोड़-मरोड़कर अपनी कुर्सी पक्की कर रहे हैं तो उसे लोकतांत्र्िाक मर्यादा के कठघरे में कैद होने की क्या विवशता है| दूसरे शब्दों में चुनाव के बावजूद पाकिस्तानी राज्य तानाशाही अराजकतावाद का शिकार होता रहेगा| पाकिस्तान की नई सरकार की शक्ति मुख्यत: अन्दरूनी राजनीतिक मुठभेड़ों में खर्च हो जाएगी और पाकिस्तान की अभिशप्त जनता को न लोकतंत्र नसीब होगा और न ही आर्थिक खुशहाली !
अमेरिकी सरकार इस पाकिस्तानी लोकतंत्र का दिल खोलकर स्वागत करेगी| उसने राष्ट्रपति-पद के लिए मुशर्रफ के जनमत-संग्रह की भी सराहना की थी| वह भूल गई कि 1973 के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया कुछ दूसरी ही है| यदि उस विधिवत प्रक्रिया के आधार पर आज चुनाव हों तो मुशर्रफ बुरी तरह हार जाएँगे| न उन्हें राष्ट्रीय संसद में बहुमत मिलेगा और न ही प्रांतीय विधानसभाओं में| इसीलिए संसद समवेत होने के पहले ही उन्होंने पाँच साल के लिए राष्ट्रपति-पद की शपथ ले ली है| पिछले तीन वर्षों में उन्होंने 1973 के संविधान का जो कचूमर निकाला है, उसे दुरुस्त करना आसान नहीं है| वे आसानी से मानेंगे भी नहीं| इस मुद्दे को लेकर संसद और राष्ट्रपति के बीच बराबर तनाव बना रहेगा| जहाँ तक न्यायपालिका का सवाल है, उसने तख्ता-पलट को पहले ही जायज़ ठहरा दिया था और मुशर्रफ ने सम्पूर्ण न्यायपालिका का कार्यकाल तीन साल बढ़ा दिया था| ऐसी स्थिति में पाकिस्तान में कैसा लोकतंत्र चलेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है| पाकिस्तान की आम जनता में उत्साह का संचार करनेवाली कोई सूरत अभी तक उभरी नहीं है| पत्ती की धार पर चल रही जमाली सरकार कब उखड़ जाएगी, कुछ पता नहीं|
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