नया इंडिया, 10 मई 2014: सर्वोच्च न्यायालय की संविधान-पीठ ने इधर दो एतिहासिक फैसले किए, उनमें से दूसरा सरकारी अधिकारियों के बारे में है। उसका पहला फैसला तो हमारी समझ में नहीं आया था, क्योंकि वह घुमा-फिराकर बच्चों पर अंग्रेजी थोपने का समर्थन कर रहा था लेकिन यह उसका दूसरा फैसला भारत की नौकरशाही को सुधारने में बड़ा योगदान करेगा।
इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के उस नियम को रद्द कर दिया है, जिसके अंतर्गत बड़े अफसरों की जांच और मुकदमे के पहले सीबीआई को सरकार की अनुमति लेनी पड़ती थी। दिल्ली विशेष पुलिस संस्थान अधिनियम की धारा 6 ए के अनुसार सीबीआई यदि किसी भी संयुक्त सचिव या उसके ऊपर के अधिकारी के विरुद्ध तब तक कार्रवाई शुरु नहीं कर सकती, जब तक कि उसके विभाग से अनुमति न मिल जाए। इसका अर्थ क्या हुआ? याने आप जिसकी जांच करना चाहें, पहले उसी की अनुमति लें। अपने किसी उच्च-पदस्थ अफसर के विरुद्ध कोई उससे ऊंचा अफसर या मंत्री अनुमति कैसे देगा? क्या कोई बड़ा सरकारी निर्णय कोई अकेला अफसर लेता है? सबकी मिलीभगत होती है। यह कैसा नियम था? जो निचले अफसर अंतिम निर्णय नहीं कर सकते और जिनका काम जी-हुजूरी करना होता है, उन्हें तो सीबीआई अपने आप फंसा सकती है और जो असली निर्णय करनेवाले हैं, उन्हें उन्मुक्ति मिली हुई थी।
अदालत ने इस उन्मुक्ति को रद्द करके प्रशंसनीय काम किया है। इस फैसले के कारण अब उच्च अधिकारी अपने मंत्रियों के साथ सांठ-गांठ करने में डरेंगे। उन्हें जेल का डर भ्रष्टाचार करने से रोकेगा। इसके अलावा अनुमति के प्रावधान के कारण भ्रष्ट अधिकारियों को पहले से पता चल जाता था कि उन पर शिंकजा कसनेवाला है। वे सब कागजात रफा-दफा कर देते थे। अब वे अचानक पकड़े जाएंगे। इस फैसले से सरकारी अधिकारियों में समता का भाव भी फैलेगा।
जब से यह फैसला आया है, कई नौकरशाह इसका विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि ईमानदार नौकरशाह भी अब डर के मारे फैसले नहीं लेंगे। मेरा कहना है कि सांच को आंच क्या? सब फैसले पारदर्शी हों और कई कसौटियों पर परखकर किए जाएं तो किसी भी नौकरशाह को डरने की क्या जरुरत है? और फिर सीबीआई जबर्दस्ती किसी को क्यों फंसाएगी? किसी भी वरिष्ठ अधिकारी पर हाथ डालने के पहले वह 10 बार सोचेगी। पहले सीबीआई को स्वायत्त तो बनने दीजिए। अभी सीबीआई में इतना दम कहां है कि वह किसी बड़े अफसर के खिलाफ खुद ही पिल पड़े?
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