NavBharat Times, 12 May 2008 : नेपाल का हाल पाकिस्तान से भी ज्यादा टेढ़ा है। पाकिस्तान में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, लेकिन वहां सरकार बन गई। नेपाल में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, लेकिन चार प्रमुख पार्टियां अभी तक यही तय नहीं कर पाई हैं कि सरकार बने तो कैसे बने? 10 अप्रैल को जो चुनाव हुए थे, वे नई सरकार नहीं, नया संविधान बनाने के लिए हुए थे। चुनाव के बाद नई अंतरिम सरकार बनेगी यह बात न तो किसी समझौते में लिखी गई थी और न ही अंतरिम संविधान में। अंतरिम संविधान में यह भी नहीं लिखा गया कि वर्तमान प्रधानमंत्री को हटाने की प्रक्रिया क्या है। सभी निर्णय सर्वसम्मति से होंगे या दो तिहाई बहुमत से? यह प्रावधान इस समय बेहद खतरनाक साबित हो रहा है।
माओवादियों को सबसे ज्यादा वोट और सीटें मिली हैं, लेकिन दो तिहाई तो बहुत दूर की बात है, वह स्पष्ट बहुमत भी नहीं है। 601 सदस्यों की संविधान सभा में उन्हें कुल मिलाकर 220 सीटें मिली हैं, यानी वे केवल एक तिहाई के आसपास हैं। ऐसे में माओवादियों की सरकार कैसे बन सकती है? माओवादियों ने तो 11 अप्रैल से ही ऐलान करना शुरू कर दिया था कि उनमें से कौन राष्ट्रपति बनेगा और कौन प्रधानमंत्री। भारत में भी यह माना जाने लगा था कि काठमांडू में माओवादी सरकार बनेगी। भारतीय संसदीय लोकतंत्र का सिद्धांत हम नेपाल पर लागू कर रहे थे। जैसे नई दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस ने सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते अपनी गठबंधन सरकारें खड़ी कर लीं, वैसे ही माओवादी भी कर लेंगे।
लेकिन यह सारा गणित खटाई में पड़ गया है। नेपाल में लोग पूछ रहे हैं कि यह चुनाव किसलिए हुआ था? संविधान सभा के लिए या संसद के लिए? यदि संविधान सभा के लिए, तो वह तो बन गई है। वह अपना काम करे। उसके काम में कोई बाधा नहीं है। कोइराला सरकार अंतरिम सरकार की तरह काम करती रहेगी और संविधान बनता रहेगा। ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि सरकार में मंत्रियों की संख्या बदल दी जाए। उसे पार्टियों की शक्ति के अनुपात के अनुसार कर दिया जाए। मधेस जनाधिकार फोरम जैसी नई पार्टियों के मंत्रियों को जोड़ लिया जाए। गठबंधन सरकार की बजाय राष्ट्रीय सरकार बना ली जाए, जो चुनाव परिणामों को पूरी तरह प्रतिबिंबित करे।
इसके बावजूद यह प्रश्न बचा रह जाता है कि प्रधानमंत्री कौन बने। कोइराला इस्तीफा क्यों दें? उन्हें अगर हटाना है तो या तो वे सर्वसम्मति से हटें या दो तिहाई बहुमत से हटें। कोइराला को हटाने और प्रचंड को गद्दी पर बिठाने के लिए दो तिहाई बहुमत कहां से आएगा, क्यों आएगा और कैसे आएगा? माओवादियों और उनकी पुरानी पार्टी एएमएल में जानी दुश्मनी है। उससे भी ज्यादा बैर मधेसी जनाधिकार फोरम और माओवादियों में है। फोरम को 50 सीटें मिली हैं। नेपाली पार्टियों में नेता और संगठन के स्तर पर ही नहीं, वैचारिक स्तर पर भी भयंकर कटुता और विरोध है।
नेपाल की सारी पार्टियां मिलकर अपनी लगाम माओवादियों के हाथ में क्यों थमाएं? उन पार्टियों का कहना है कि माओवादियों को जो एक तिहाई वोट मिला है वह भी दो कारणों से मिला है। एक तो लोगों को डराया-धमकाया गया है और दूसरा भारत के विरुद्ध भावना की लहर उठाई गई है। ये दोनों हथकंडे नादान मतदाताओं में तो सफल हो गए, लेकिन माओवादियों से भी अधिक अनुभवी नेताओं को इन हथकंडों से भरमाना आसान नहीं है। इसीलिए चुनाव संपन्न हुए एक महीना हो गया, लेकिन न तो नई सरकार बनी और न ही नई संविधान सभा की बैठक हुई। नेपाली राजनीति पूर्ण जड़ता को प्राप्त हो गई है। किसी को समझ नहीं पड़ रहा है कि आगे क्या होगा? नेपाली राजनीति की बत्ती गुल हो गई है।
यह संभव है कि संविधान सभा की बैठक शीघ्र बुलाई जाए। उसका पहला मुद्दा शायद नरेश का निष्कासन न हो। उसकी जगह प्रधानमंत्री का चयन हो। यदि माओवादियों में दूरदृष्टि और धैर्य हो, तो वे लंबी पारी खेल सकते हैं। वे नेपाली कांग्रेस और कोइराला की अंतरिम सरकार चलने दें और खुद पीछे रहकर नेतृत्व करें। ऐसे में शेर दुम नहीं हिलाएगा, दुम शेर को हिलाएगी। यह भी संभव है कि संविधान सभा की पहली बैठक में सर्वसम्मति या दो तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों की नियुक्ति हो जाए। प्रचंड का राष्ट्रपति बनने का सपना भी पूरा हो जाए और कोइराला अपनी जगह बने रहें। यह भी हो सकता है कि कोइराला राष्ट्रपति बन जाएं और प्रचंड प्रधानमंत्री। यदि इस मसले पर सर्वसम्मति हो जाए तो भी राजतंत्र को समाप्त करने पर सर्वसम्मति जुटाना आसान नही होगा।
यदि नरेश ज्ञानेंद्र को सर्वसम्मति से हटा दिया गया तो भी अब तक यह पता नहीं कि नेपाली पार्टियां नेपाल में कैसा गणराज्य चाहती हैं, कैसी संघात्मक प्रणाली चाहती हैं, कैसा प्रशासन चाहती हैं? उन्हें भारत, अमेरिका, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, रूस या चीन जैसा संविधान चाहिए या वे अपना कोई नए किस्म का संविधान बनाना चाहती हैं? किसी भी पार्टी के पास कोई ठोस और विस्तृत नक्शा नहीं है। संघात्मकता के सवाल पर फोरम और माओवादियों में 36 का आंकड़ा है। फोरम मांग रहा है, एक मधेस प्रदेश और साथ में नेपाल से अलग होने का अधिकार भी। जबकि माओवादी शक्तियों का विकेंद्रीकरण करना चाहते हैं, लेकिन कम्युनिस्ट प्रणालियों की तरह तानाशाही भी चाहते हैं।
यह संविधान सभा यदि पार्टीविहीन होती तो कहीं बेहतर होता। प्रत्येक सदस्य केवल राष्ट्रहित की दृष्टि से विचार करता और प्रत्येक धारा का निर्णय शुद्ध गुणवत्ता के आधार पर करता। लेकिन पिछले दो-ढाई बरसों में नेपाल की राजनीति कुछ ऐसे दौर से गुजरी है कि अगर लोकतंत्र मजबूत हुआ है तो पार्टीबाजी भी मजबूत हुई है। यदि नेपाल की पार्टियां अपने संकीर्ण पार्टी स्वार्थ से ऊपर नहीं उठ पाई तो अगले दो सालों में नए संविधान का बनाना तो असंभव हो ही जाएगा, नेपाल का नेपाल बने रहना भी कठिन होगा।
संविधान सभा के इस चुनाव ने माओवादियों को ऊपर उछाला है, तो तराई के मधेसवादियों पर भी चमक चढ़ा दी है। इन दोनों नई राजनीतिक शक्तियों को अगर परंपरागत राजनीतिक ढांचा हजम नहीं कर पाया तो नेपाल दक्षिण एशिया का नया सिरदर्द बन जाएगा। उसकी हालत अफगानिस्तान जैसी हो सकती है। भारत के लिए यह चिंता का विषय है।
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