हिन्दुस्तान, 3 जनवरी 2002 : दक्षेस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी राष्ट्रपति यदि एक-दूसरे से मिल लें तो किसी को कोई आश्चर्य क्यों होना चाहिए ? भारत के सभी राजनीतिक दलों और पूर्व प्रधानमंत्रियों ने श्री अटलबिहारी वाजपेयी को अपना समर्थन दे ही दिया है| इसके अलावा आतंकवादी सरगनों की गिरफ्तारी ने भारत को काफी संतोष प्रदान किया है| भारत के संतोष पर पाकिस्तान सरकार ने भी खुशी जाहिर की है| इससे भी बड़ी बात यह कि ‘बड़े साहब’ बहुत खुश हैं| बुश का खुश होना सबसे बड़ी बात है| एक तरफ वे मुशर्रफ की पीठ ठोक रहे हैं और दूसरी तरफ भारत के धीरज की दाद दे रहे हैं| रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्ति ! जैसे बुश ने आतंकवादी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और उनके बैंक खाते सील कर दिए, वैसे ही पाकिस्तान ने भी मक्खी पर मक्खी बिठा दी है| इतना ही नहीं, मुशर्रफ ने कुख्यात आतंकवादियों को गिरफ्तार भी कर लिया है| बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभानअल्लाह !
अब बताइए, भारत के पास कौनसा बहाना रह जाता है, बात नहीं करने का ? भारत डाल-डाल तो पाकिस्तान पात-पात ! भारत सरकार का दावा है कि उसकी कूटनीति को जबर्दस्त सफलता मिल रही है| युद्घ किए बिना ही वह विजय के सुफल भोग रही है| उसने पाकिस्तान को डरा दिया लेकिन पाकिस्तान का प्रवक्ता रोज दावा करता है कि आतंकवादियों की गिरफ्तारी का 13 दिसंबर या भारत की धमकियों से कोई संबंध नहीं है| वह तो केवल संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव 1373 को लागू कर रहा है| उसने भारत द्वारा प्रेषित 20 आतंकवादियों की सूची को भी कूड़ेदान के हवाले कर दिया है| वह पूछ रहा है कि नाम तो आपने भेज दिए, प्रमाण क्यों नहीं भेजे ? बिना प्रमाण के किसी को गिरफ्तार कैसे किया जाए ? भारत कहता है कि वह तब तक चुप नहीं बैठेगा, जब तक कि ये आतंकवादी उसके हवाले नहीं कर दिए जाएँ याने भारत भी ‘बड़े साहब’ की भाषा बोल रहा है| बुश जैसे उसामा और उमर को अपने हवाले करवाने पर आमादा है, भारत मसूद अजहर, दाऊद इब्राहिम और सईद वगैरह को जिंदा या मुर्दा पकड़ना चाहता है| कैसे पकड़ेगा, वह उन्हें ? अगर पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें पकड़ लिया तो भी वह उन्हें ‘स्वतंत्र्ता सेनानियों’ की तरह ससम्मान अपनी जेलों में रखेगी| उन्हें वह भारत को क्यों सौंपेगी ? उसका पहला तर्क तो यही है कि आप उनका अपराध सिद्घ कीजिए ! उन्हें तो इसलिए गिरफ्तार किया गया है कि उन्होंने मुशर्रफ और बुश के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिए हैं, इसलिए नहीं कि भारतीय संसद या लालकिले या श्रीनगर विधानसभा पर हुए हमलों में उनका हाथ है या कंधार-अपहरण कांड से उनका कोई संबंध है| दूसरा तर्क यह है कि भारत के साथ पाकिस्तान की कोई प्रत्यर्पण-संधि नहीं है| अपराधियों को वह गाजर-मूली की तरह बैलगाड़ी पर लादकर तो भारत नहीं भेज सकता| 1987 में इसी काठमाँडो के दक्षेस-सम्मेलन में आतंकवाद-विरोधी प्रस्ताव सर्वानुमति से पारित हुआ था लेकिन 15 साल गुजर गए, अभी तक पाकिस्तान प्रत्यर्पण-संधि के सवाल पर सोया हुआ है| 2002 के दक्षेस में पहला काम तो यही होना चाहिए कि भारत-पाक प्रत्यर्पण संधि सम्पन्न हो| यहाँ असली समस्या यह है कि पाकिस्तान प्रत्यर्पण किसका करे ? जिसे हम आतंकवादी कहते हैं, उसे मुशर्रफ स्वतंत्र्ता-सेनानी कहते हैं| जिसे हम अपराध कहते हैं, पाकिस्तान उसे जिहाद कहता है| क्या कभी दोनों देशों के लिए इन मुद्दों की परिभाषा एक ही होगी ?
यही मूल प्रश्न है| इस प्रश्न पर पाकिस्तान जरा-भी टस-से-मस नहीं हुआ है| आपने रेल, बस, हवाई जहाज बंद कर दिए, कूटनीतिक स्टाफ आधा कर दिया, उच्चायुक्त बुला लिया, सेना की हलचल दिखा दी| बदले में पाकिस्तान ने कुछ गिरफ्तारियाँ दिखा दीं, बैंक खाते सील कर दिए और कुछ मीठे-मीठे बयान जारी कर दिए| यह सब नाटक है| इस नाटक से भारत अगर खुश है तो मानना पड़ेगा कि उसने लाहौर और आगरा से कुछ नहीं सीखा बल्कि देर-सबेर यह भी मानना पड़ेगा कि कूटनीतिक दृष्टि से भारत पर पाकिस्तान भारी पड़ गया है| वह नहले पर दहला मारता चला जा रहा है| भारत जिसे अपनी कूटनीतिक विजय समझ रहा है, वह भौंदूमल की खुशफहमी ही सिद्घ होगी| अपने ‘उत्तम’ और ‘दक्ष’ आचरण के प्रमाण पत्र् पश्चिम से बटोरकर मुशर्रफ न सिर्फ फौजी तानाशाही को मजबूत करेंगे बल्कि पाकिस्तान के लिए वे ताज़ातरीन हथियार और डॉलरों का जखीरा भी हासिल कर लेंगे| हफ्ते भर पहले वे चीन में थे और अब फिर वे चीन जा रहे हैं| लगभग सारे पश्चिमी अखबार उनकी मुस्तैदी की दाद दे रहे हैं और उनकी मजबूरियों पर कसीदे काढ़ रहे हैं| भारत के धीरज की तारीफ़ जरूर हो रही है लेकिन भारत धीरज रखने के अलावा कर भी क्या सकता है ? जब लोहा गरम था तो उसने चोट नहीं की| अब लोहा ठंडा पड़ गया है| अब वह धीरज नहीं रखेगा तो क्या करेगा ? पाकिस्तान ने उसे मजबूर कर दिया है कि वह धीरज रखे ! किसकी कूटनीतिक विजय हो रही है ? भारत की या पाकिस्तान की ?
भारत की कूटनीतिक विजय तो तब होती जब पाकिस्तान इन आतंकवादियों को आतंकवादी कहता, जैसा कि उसने तालिबान को कहा था| वह भारत को दावत देता कि आइए, हम मिलकर उनका सफाया करें ! आतंकवादी पाकिस्तान के उतने ही बड़े दुश्मन हैं, जितने कि भारत के हैं| क्या मुशर्रफ इस तरह की घोषणा कर सकते हैं ? वे चाहें तो भी नहीं कर सकते, क्योंकि पाकिस्तानी समाज का चरित्र् भारत-विरोधी बन गया है| इस भारत-विरोधी चरित्र् को बदलने की कुछ कोशिश नवाज शरीफ ने की थी लेकिन उनका अन्जाम क्या हुआ ? उनके अस्त होने पर पाकिस्तान में किसी ने चार आँसू भी नहीं बहाए| मुशर्रफ तो मुहाजिर हैं, भारतीय मूल के हैं, फौजी हैं, उनका कोई व्यापक जनाधार नहीं है| वे पाकिस्तानी जहाज के स्टीयरिंग व्हील को साइकिल के हैंडल की तरह एकदम दूसरी दिशा में नहीं घुमा सकते| इसमें शक नहीं कि पहले दो वर्षों में उन्होंने अपनी छवि इतनी अधिक निखार ली है, जितनी अयूब और जि़या भी नहीं निखार पाए थे| इस काम में भारतीय नेताओं का अपूर्व सहयोग मुशर्रफ को सदा सुलभ रहा और आगे भी सुलभ रहेगा लेकिन इस प्रकि्रया से भारत-पाक संबंधों को सही पटरी पर लाना लगभग असंभव है|
नए साल पर प्रधानमंत्री ने जो ‘उद्रगार’ प्रकट किए हैं, वे मुशर्रफ के लिए दुबारा दरवाजा खोल रहे हैं| अटलजी चाहते हैं, मुशर्रफ जितने बड़े हैं, उससे भी कहीं ज्यादा बड़े बनें| मानो वे बन ही गए तो मुसीबत पहले से भी ज्यादा बढ़ जाएगी, क्येकि आदमी बड़ा होगा और दरवाजा छोटा ! इस दरवाजे को चौड़ा करने का कोई संदेश प्रधानमंत्री के उद्रगार में नहीं है| यह संदेश 13 दिसंबर से अब तक साफ़-साफ़ कभी गया ही नहीं| आप फौज की हलचल भी कर रहे हैं और बार-बार यह भी फरमा रहे हैं कि युद्घ नहीं होगा| बुश के कानों में ही नहीं, आतंकवादियों के अड्डों, पाकिस्तानियों के घरों और जिहादियों के मोर्चों में भी यह हकलाती हुई गिड़गिड़ाहट गूँज रही है| वे जानते हैं कि भारत की हिम्मत ही नहीं कि वह दरवाजा चौड़ा करे| आज जरूरत इस बात की है कि भारत गीदड़ की तरह गिड़गिड़ाने की बजाय शेर की तरह दहाड़े| दहाड़ते हुए शेर को यदि आज पाकिस्तान ने देखा होता तो उसके दीमागी दरवाजे अपने आप चौड़े हो जाते| उसे अहसास हो जाता कि कहीं कश्मीर के चक्कर में पाकिस्तान ही न डूब जाए ! जब तक औसत पाकिस्तानी को यह अहसास नहीं होगा, पाकिस्तान का कोई नेता उन ऊँचाइयों को नहीं छू पाएगा, जिनकी कल्पना अटलजी ने अपने ‘न्यू ईयर म्यूजिग्स’ (नव वर्ष के उद्गार) में की है| भय के बिना प्रीति नहीं होगी| भारत और पाकिस्तान के बीच प्रति परम आवश्यक है और प्रीति के लिए बड़े भाई भारत को कुछ कुर्बानी भी करनी पड़े तो जरूर करनी चाहिए लेकिन सिर्फ प्रीति करनेवाला अटलजी का ‘म्यूजिंग’, केवल ‘एम्यूजिंग’ (हास्यास्पद) बनकर रह जाएगा| मौका चूकी हुई सरकार को फिलहाल भारत की जनता कुछ नहीं कह रही है| अभी वह उसकी कूटनीतिक कलाबाजियों को सिर्फ अचरज से निहार रही है| यदि संसद पर हमले जैसी एक-दो दुर्घटनाएँ और हो गइंर् तो भारत की जनता का निशाना पाकिस्तान के आंतकवादी बाद में होंगे, भारत के पहरेदार पहले होंगे|
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