नया इंडिया, 18 सितंबर 2014 : लोकसभा के चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करनेवाली भाजपा पिछले तीन महिनों में ही इतनी सीटें कैसे हार गई? पिछले तीन महिनों में जितने भी राज्यों में उपचुनाव हुए, लगभग सभी जगह भाजपा घाटे में रही। उत्तराखंड में तो वह अपनी तीनों सीटें हारी ही थी, अब उत्तरप्रदेश, राजस्थान और गुजरात में भी वह अपनी सीटें हार गई है। इन तीनों राज्यों ने भाजपा को अपूर्व विजय प्रदान की थी लेकिन पिछले तीन माह में ऐसा क्या हुआ कि यहां अपनी सीटें बढ़ाने की बजाय उसने अपनी सीटें घटा लीं?
सबसे पहला तत्व तो यह रहा कि लोकसभा का तेजस्वी चुनाव-प्रचारक इन चुनावों में नदारद रहा। नरेंद्र मोदी ने इन उप-चुनावों में प्रचार करना जरुरी नहीं समझा। वे यह समझ बैठे कि उनका प्रभा-मंडल इतना प्रखर बन गया है कि उन्हें घर बैठे ही जीत मिल जाएगी। दूसरा, ये जितने भी चुनाव हुए, राज्यों में हुए हैं। इनका असली मुद्दा राष्ट्रीय नहीं था। आम मतदाताओं ने मोदी को नहीं, प्रांतीय नेताओं को अपनी तराजू पर तौला है। तीसरा, लोकसभा के चुनाव के असली खलनायक इन प्रांतीय चुनावों में अनुपस्थित थे। लोकसभा में मोदी के कारण मोदी को वोट तो बाद में मिले हैं, उनके लिए असली जमीन तैयार की थी- सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह ने! इनके अपरंपार भ्रष्टाचार से चिढ़ी जनता ने मोदी को जमकर वोट दिए। लेकिन राज्यों के चुनाव में तो सारा परिदृश्य ही बदल गया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मोदी की छवि अभी गहरे नहीं उतरी है। वह सतही है। नाजुक है। उसे मजबूत बनाना जरुरी है। चैथा, उत्तरप्रदेश में भाजपा 11 में से 8 सीटें हार र्गइं, इस अजूबे के पीछे समाजवादी पार्टी का कटिबद्ध होना तो था ही, उससे भी ज्यादा ‘लव जिहाद’ जैसी अनर्गल धारणाओं का प्रचार भी था! भाजपा की इस हार ने सपा के मनोबल को गगनचुंबी बना दिया है। जिन विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए हैं, वे सब वे हैं, जिनसे भाजपा उम्मीदवार जीते थे और जिन्होंने लोकसभा चुनाव जीतने के कारण उनसे इस्तीफे दिए थे। ऐसी सीटों पर हारना तो दोहरी पराजय है।
इस पराजय के परिणाम क्या होंगे? पहला, मोदी की छवि मंद पड़ेगी। उनके तीन महीने के शासन-काल पर फब्तियां कसी जाएंगी। दूसरा, भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेता मोदी-शाह की जोड़ी पर उंगली उठाएंगे। तीसरा, महाराष्ट्र और हरयाणा में लगी भाजपा के टिकटों की होड़ थोड़ी लड़खड़ाएगी। चौथा, शिव-सेना के तेवर में थोड़ा उभार आएगा। पांचवां, कांग्रेस को आशा बंधेगी की अभी उसकी सांस चल रही है। छठा, पं. बंगाल और असम के भाजपाई प्रोत्साहित होंगे और माकपा और तृणमूल के शिविरों में कुछ निराशा फैलेगी।
इसका सबसे अच्छा परिणाम यह होगा कि अब भाजपा कुंभकर्ण की नींद नहीं सो पाएगी। वह महाराष्ट्र और हरयाणा में पूरा जोर लगाएगी। यदि इन तीनों उप-चुनावों में भाजपा की उपलब्धियां लोकसभा-चुनावों की तरह होती तो भाजपा का वर्तमान नेतृत्व फूलकर कुप्पा हो जाता, जो उसे कांग्रेस की राह पर ढकेल देता। ये तीनों हारें उसके नेतृत्व के अहंकार को थोड़ा मर्यादित करेगी, साधारण कार्यकर्ताओं के प्रति उसको अधिक सजग करेगी और भाजपा को सर्वसमावेशी पार्टी बनाएगी।
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