दैनिक भास्कर, 22 मार्च 2014 : राजनीति बड़ी जादूगरनी है। यह अच्छों-अच्छों को बड़ा नाच नचा देती है। इस समय भाजपा इस तरह सज-संवर रही है, जैसे कि 16वीं लोकसभा चुनाव का तोरण वही मारेगी। इसमें भी शक नहीं कि जनता में उसका समर्थन बढ़ता जा रहा है और उसके विरोधी दलों की हिम्मत दिनोंदिन पस्त होती जा रही है। लेकिन खुद इस पार्टी का हाल क्या है? यह पार्टी अपने जिस कार्यकर्ता को देश का नेता बनाना चाहती है, उसे वह खुद ही जाने-अनजाने सवालों के घेरे में धकेल देती है। रह-रहकर सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अभी तक दिल से स्वीकार किया है या नहीं? यदि नहीं तो क्यों? पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता किन कारणों से मोदी के खिलाफ हैं?
सबसे पहले लें, लालकृष्ण आडवाणी का मामला। उन्होंने आखिरकार मान लिया है कि वे अब गांधीनगर से ही चुनाव लड़ेंगे। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से चुनाव लडऩे की इच्छा जताई ही क्यों? वे गांधीनगर से एक बार नहीं, पांच बार जीते हैं। उन्होंने गांधीनगर से चुनाव जीतना जब शुरू किया था, तब नरेंद्र मोदी कहां थे? न तो गुजरात की राजनीति और न ही केंद्र की राजनीति में उनका कोई उल्लेखनीय स्थान था लेकिन अब पूरा देश जान रहा है कि आडवाणीजी गांधीनगर से क्यों नहीं लडऩा चाहते थे? अगर वे सचमुच अपनी बात पर अड़े रहते तो देश क्या सोचता? क्या यह नहीं कि मोदी पर से उनका विश्वास उठ गया है? यानी मोदी भरोसे लायक आदमी नहीं हैं। मोदी पर वह व्यक्ति भरोसा नहीं कर रहा है, जिसकी कृपा से मोदी आज गुजरात के मुख्यमंत्री हैं। वर्ष 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की म्यान से निकली हुई तलवार यदि मोदी की गर्दन पर नहीं चल सकी तो उसका श्रेय लालकृष्ण आडवाणी को है। और अब आडवाणी को उसी मोदी पर संदेह हो रहा है कि उन्हें वह कहीं हरवा न दें। आडवाणी ने मोदी को भाजपा के चुनाव अभियान के नेता और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का भी विरोध किया था। आडवाणी ने जब देखा कि भाजपा के उम्मीदवारों की छह सूचियां जारी हो गईं और उनका कहीं नाम तक नहीं लिया जा रहा है तो उन्होंने मध्यप्रदेश का निमंत्रण लहरा दिया। भाजपा का नेतृत्व हतप्रभ रह गया। आडवाणी के तीखे तेवरों से पार्टी में हलचल मच गई। इसके पहले डॉ. मुरलीमनोहर जोशी को वाराणसी से कानपुर भेजने के मामले ने तूल पकड़ा था। अब जसवंतसिंह के बाड़मेर से लडऩे पर विवाद छिड़ गया है। जसवंत भी पार्टी के ऐसे रवैये से खुश नहीं हैं।
यहां मुख्य प्रश्न यह उठता है कि क्या नेतृत्व की छवि बिगाडऩेवाली इन स्थितियों को टाला नहीं जा सकता था? यदि आडवाणीजी और डॉ. जोशी इतने वितंडा के बावजूद पार्टी नेतृत्व की बात मान गए तो उन्हें पहले से मनाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? दोनों वरिष्ठ नेताओं को समझाने में देर क्यों की गई? हिंदुत्व को अपनी विचारधारा कहनेवाली भाजपा के लिए क्या यह शोभा देता है कि वह अपने बुजुर्गों का अपमान करे? यह तो भारतीय संस्कृति की सरासर अवहेलना है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा लगानेवाली पार्टी से राष्ट्र यह अपेक्षा जरूर करता है कि वह भारत के पारंपरिक मूल्यों की रक्षा करे। यह मामूली बात नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कह दिया कि ‘हमारा काम नमो-नमो का जाप करना नहीं है।’ इसका अर्थ यह नहीं है कि वे नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं। यदि वे विरोध कर रहे होते तो नरेंद्र मोदी क्या वहां होते, जहां आज वे हैं? लेकिन उनके ऐसा कहने में ही बड़ा गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सुषमा स्वराज द्वारा कर्नाटक के कुछ नेताओं की भाजपा में वापसी पर दो-टूक बयान देने का अर्थ भी किसी ने ठीक से समझा है या नहीं?
भाजपा के इन तीन शीर्ष नेताओं ने जो कुछ कहा है, उसका संबंध न तो किसी विचारधारा से है और न ही व्यावहारिक दृष्टि से उनका परमपूर्ण औचित्य सिद्ध किया जा सकता है। यह चुनाव का मौसम है। हर पार्टी हर जिताऊ उम्मीदवार का स्वागत करती है। जैसा कि कहा जाता है कि पुरोहितजी दक्षिणा में मिली गाय के दांत नहीं देखते। पार्टी के नेता यह भी चाहते हैं कि उनका हर उम्मीदवार जीत जाए। इसीलिए वे अपना गणित भिड़ाते हैं और इसी खेल में कुछ नाम कट जाते हैं और कुछ जुड़ जाते हैं। टिकटों के इस बंटवारे पर नेताओं में मतभेद होना स्वाभाविक है और इस पर वे अपनी नाराजग़ी व्यक्त कर देते हैं तो इसमें बुरा क्या है? भाजपा कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी तो है नहीं कि सबके मुंह पर ताले जड़े हुए हों। यह उसके आंतरिक लोकतंत्र और जीवंतता का प्रमाण है लेकिन यदि भाजपा ने अभी से उस असंतोष की खोज और निराकरण नहीं किया, जो शीर्ष नेताओं के वचन और कर्म से बार-बार फूट रहा है तो निश्चित जानिए कि यह आंतरिक लोकतंत्र कब आंतरिक अराजकता में बदल जाएगा, यह पता भी नहीं चलेगा। भाजपा में सामूहिक नेतृत्व की परंपरा रही है। वर्तमान घटनाक्रम इस परंपरा के अनुरूप नहीं है।
जो नेता आज जनमत की लहर पर सवार हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि यह लहर उनकी उठाई हुई नहीं है। यह ‘बाबू सरकार’ और ‘बबुआ-नेतृत्व’ की सहज प्रतिक्रिया है। लहरें उठती हैं, बैठ जाती हैं। लंबी नहीं टिकतीं। फिर उसी पार्टी के सहारे पर आप आ टिकते हैं, जिसकी उंगली पकड़कर आपने चलना सीखा था। किसी भी स्थिति में पार्टी और उसके वरिष्ठ नेताओं को किनारे नहीं रखा जा सकता है। आज डर यही है कि नेतृत्व कहीं लहर के साथ खुद भी तो बहने नहीं लगा है?
किसी एक व्यक्ति को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने का अर्थ क्या यह होता है कि शेष सभी वरिष्ठ नेता प्रधानमंत्री के लायक नहीं हैं? जन-सभाओं को क्या श्यामाप्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक और अटलबिहारी वाजपेयी अकेले ही संबोधित करते थे? आज सुषमा स्वराज से बेहतर वक्ता देश में कौन है? लेकिन वे विदिशा के अलावा कहां देखी जा रही हैं? आडवाणी और जोशी जैसे अनुभवी और प्रतिष्ठित नेता किस पार्टी में हैं? मोदी को प्रधानमंत्री तो बनना है लेकिन इंदिरा गांधी नहीं बनना है। वे बन भी नहीं सकते। लेकिन जो कुछ इस चुनाव के दौरान हो रहा है, वह इसी मार्ग का अनुसरण हो रहा है। यह भाजपा के लिए तो खतरनाक है ही, देश के लिए भी कम खतरनाक नहीं होगा। स्वयं मोदी के लिए यह मार्ग अत्यंत कंटकाकीर्ण सिद्ध हो सकता है। मोदी अपने मार्ग में खुद कांटें क्यों बिछाएं? क्या वे इस साधारण-से गणित को भी नहीं समझते कि यदि भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो ये ही हाशिये में पड़े नेता उनका भाग्य-निर्धारण करेंगे।
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