नया इंडिया, 10 मार्च 2014 : भाजपा के शीर्ष नेता अब धीरे-धीरे खुलने लगे हैं। उनके मन में दबा आक्रोश मुखर हो उठा है। नरेंद्र मोदी के विरुद्ध लगभग सभी शीर्ष नेता कुछ न कुछ बोलने में लगे हैं। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज आदि ऐसे नेता हैं, जिनमें प्रधानमंत्री बनने की पूर्ण योग्यता है लेकिन फिर भी उनकी जगह भाजपा ने नरेंद्र मोदी को तय किया है। नरेंद्र मोदी को इसलिए तय नहीं किया गया है कि उक्त नेताओं के मुकाबले वे अधिक योग्य हैं या उन नेताओं में कोई खोट है बल्कि इसलिए उनको आगे किया गया है कि देश में मोदी की हवा बह निकली है। यह हवा इसलिए नहीं बह निकली है कि मोदी में कोई आसाधरण प्रतिभा है या वे कोई चमत्कारी राजनीतिज्ञ हैं। गुजरात में उन्होंने अपनी सरकार ठीक-ठाक चलाई है लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और बिहार के मुख्यमंत्री किसी से कमतर हैं, ऐसा भी नहीं है। असली बात तो यह है कि कांग्रेस की भ्रष्टाचारी सरकार ने अपूर्व जनाक्रोश उत्पन्न कर दिया है। मोदी इसी जनाक्रोश की संतान हैं। मोदी की छवि ऐसी बन गई है कि वे इस्पाती व्यक्तित्व के धनी हैं, उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है, वे निःसंतान हैं। उन्हें भ्रष्टाचार करने की जरूरत ही नहीं है। इसीलिए सारे देश में मोदी-मोदी हो रहा है।
कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी की यह हवा मोदी के दिमाग को फुला दे। वह अभी से प्रधानमंत्री की तरह बर्ताव करने लगें। अपने बुजुर्गों की अनदेखी करने लगें। यदि ऐसा नहीं है तो क्या वजह है कि डॉ. मुरली मनोहर जोशी की वाराणसी सीट के बारे में उन्हें बताए बिना अखबारों में खबरें छपना शुरू हो गई हैं? सीट बदलने के लिए उन्हें राजी करना तो जरूरी था ही, उससे भी ज्यादा जरूरी था-संसदीय बोर्ड की अनुमति लेना। संसदीय बोर्ड की उपेक्षा का राग सुषमा स्वराज ने भी छोड़ा है। उन्होंने येदियुरप्पा और श्रीरामुलु की पार्टी बीएसआर के भाजपा मंल विलय को भी मनमानी कार्रवाई कहा है। उन्होंने विनोद शर्मा के पिछले दरवाजे से भाजपा-प्रवेश को भी भाजपा की छवि के लिए घातक बताया है। आडवाणीजी और जोशीजी पहले से भन्नाए हुए हैं। अरुण जेटली भी कोई खास प्रसन्न नहीं मालूम पड़ते।
इसका अर्थ यह हुआ कि सारे फैसले पार्टी-अध्यक्ष राजनाथसिंह और नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। वरिष्ठ नेताओं को लग रहा है कि सिर्फ दो लोगों की दादागीरी चल रही है। यह ठीक है कि देश का घटनाचक्र इतनी तेजी से दौड़ रहा है कि हर मुद्दे पर संसदीय बोर्ड की राय जानने का समय नहीं मिल रहा है लेकिन कोई भी बड़ा निर्णय लेते समय वरिष्ठ नेताओं की संवेदनाओं का ध्यान रखा जाना चाहिए, वरना चुनाव के पहले ही उल्टा समां बंध सकता है। जो दादा नहीं हैं, वे दादागीरी की छवि क्यों फैलाएं?
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