R Sahara, 31 Jan 2003 : भारत और ईरान चाहें तो एशिया का नक्शा बदल सकते हैं| यों तो भारत के मुकाबले ईरान छोटा-सा देश है लेकिन ईरान की विश्व-दृष्टि किसी महाशक्ति से कम नहीं है| यह ईरान की ही हिम्मत है कि एक तरफ वह अरबों से टक्कर ले रहा था और दूसरी तरफ उसने अमेरिका और सोवियत संघ जैसी दो महत्तम शक्तियों को भी चुनौती दे दी थी| ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रणेता आयतुल्लाह खुमैनी कहा करते थे कि अमेरिका शैताने-बुजुर्ग (बड़ा शैतान) है और सोवियत संघ ‘शैताने-कूचक’ (छोटा शैतान) है| वह कहते थे कि दुनिया में अगर कोई सच्चा गुट-निरपेक्ष राष्ट्र है तो वह ईरान है| इसी प्रकार ईरान का दावा रहा है कि इस्लाम का जैसा प्रामाणिक पुरोधा ईरान है, वैसा दुनिया में कोई और देश नहीं है| ईरान के ये तेवर उसे बड़ा बनाते हैं| ईरान की विदेश नीति के इन तेवरों को तेज-तर्रार बनाने में उसकी एतिहासिक चेतना का जबर्दस्त योगदान है| पिछली कई शताब्दियों से ईरान स्वयं को इस क्षेत्र का असाधारण राष्ट्र मानता रहा है| उसके विजेताओं ने आस-पास के लगभग सभी राष्ट्रों पर बरसों हुकूमत की है, उसकी भाषा फारसी दर्जनों राष्ट्रों की राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा रही है, वह संगीत, कला, व्यवसाय, शिक्षा और समृद्घि का केंद्र रहा है| ‘आर्यों का देश’ होने के नाते वह न केवल स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है बल्कि अपनी श्रेष्ठता सारे विश्व में फैलाना चाहता है|
ऐसा ईरान जब भारत की दोस्ती का हाथ थामना चाहता है तो यह साधारण बात नहीं है| ईरान के राष्ट्रपति मुहम्मद खातमी भारत आए और पाँच समझाौतों पर दोनों राष्ट्रों ने दस्तखत किए, यह उल्लेखनीय घटना है लेकिन जो कुछ ऊपर दिखाई पड़ रहा है, उसके अनेक गहरे और भीतरी अभिप्राय हैं| सबसे पहला तो यह कि खातमी ने अपनी भारत-यात्रा के दौरान इस्लाम के बारे में जो कहा है, वह चमत्कारी बात है| खातमी की बात को अगर दक्षिण एशिया के लोग ठीक से समझ लें तो न सिर्फ इस क्षेत्र के लगभग 50 करोड़ मुसलमानों की जिन्दगी में नई रोशनी पैदा हो जाएगी बल्कि मध्य-एशिया और दक्षिण एशिया मिलकर विश्व के सम्पन्नतम क्षेत्र बन जाएँगे|
राष्ट्रपति खातमी ने भारत की पंथ-निरपेक्षता पर मुहर लगाई है| उन्होंने इस्लाम के भारतीयकरण को उत्तम बताया है और मुसलमानों को सलाह दी है कि वे मज़हबी विवादों में उलझने की बजाय अपने राष्ट्र के विकास पर ध्यान दें| उन्होंने इस्लाम की अन्दरूनी समस्याओं पर भी खुलकर विचार किया है| उनकी राय है कि इस्लामी जीवन-पद्घति में नए-नए विचारों का समावेश होना चाहिए| यदि इस्लाम को जिन्दा रहना है तो उसे नए जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा| उन्होंने तानाशाही के मुकाबले लोकतंत्र की सराहना की है| खातमी ने इतिहास के बारे में भी साहसिक बात कह दी| उन्होंने कहा कि हमलावर मुसलमान जरूर थे लेकिन उनका इस्लाम से क्या लेना-देना था| भारत पर जो हमले हुए, उनमें यदि हिन्दू मरे तो मुसलमान भी मरे| नुकसान सबका ही हुआ| दूसरे शब्दों में खातमी ने वह बात कही है, जो भारत का कोई भी राष्ट्रवादी इतिहासकार कहेगा| इसका ठोस अभिप्राय यही है कि भारत के मुसलमान उन हमलावरों पर गर्व करना और उन्हें अपना पुरखा मानना बंद करें, जिन्होंने कभी भारत पर हमला किया था| किसी इस्लामी देश के सर्वोच्च नेता ने क्या इतनी साहसिक बात कभी भारत आकर कही ? पाकिस्तानी नेताओं के कान में यह बात गर्म लावे की तरह गिरेगी| पाकिस्तान तो बना ही मज़हब की नींव पर है| मज़हब का जितना राजनीतिक दुरुपयोग पाकिस्तान कर रहा है, दुनिया के किसी राष्ट्र ने नहीं किया और उसका नज़रिया भी वही है, जो इतिहास के हमलावरों और लुटेरों का था| खातमी ने आतंकवाद और तानाशाही, दोनों को भी रद्द किया| यह इशारा भी पाकिस्तान की तरफ ही था|
उन्होंने अमेरिका को भी आड़े हाथों लिया| उनके अनुसार अमेरिका को अब एक तगड़े दुश्मन की तलाश है| शीत-युद्घ की समाप्ति और सोवियत संघ के विसर्जन ने अमेरिका को निठल्ला बना दिया था| पहले पूँजीवाद का प्रतिद्वंद्वी साम्यवाद था, अब इस्लामवाद है| इस्लामवाद से टक्कर लेने के नाम पर अमेरिका इस्लाम को ही बदनाम कर रहा है| कुछ मुसलमानों से ‘भूलें’ जरूर हुई हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप इस्लाम के ही पीछे पड़ जाएँ| अगर ईरान का राष्ट्रपति अमेरिका की इतनी आलोचना भी नहीं करेगा तो क्या करेगा ? जो अमेरिका ईरान को भी एराक और उत्तर कोरिया की तरह ‘बुराई की जड़’ या शैतान की आँत कहता है, उसे ईरानी राष्ट्रपति के मुँह से कुछ खरी-खरी सुनने को तैयार रहना पड़ेगा| यों भी खातमी ‘सभ्यताओं के बीच संवाद’ के पक्षधर हैं, ‘सभ्यताओं के बीच संघर्ष’ के नहीं| यदि उन्हें हंटिंगटन की मान्यता को रद्द करना है तो उनका यह कहना बिलकुल सही है कि अमेरिका दुश्मन की तलाश बंद करे और पश्चिम के बाहर भी जो अच्छाइयाँ हैं, उनकी अनदेखी न करे| दूसरे शब्दों में ईरानी राष्ट्रपति भारत-जैसे गैर-इस्लामी देश में आकर इस्लाम के चेहरे को चमकाने की कोशिश कर रहे हैं|
ईरानी विदेश नीति का यह पहलू उसे इस्लामी जगत का स्वाभाविक नेता बनाता है| यदि ईरान को अरब देश अपना नेता स्वीकार न करें तो भी क्या हुआ ? मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और आग्नेय एशिया का इस्लामी जगत अरब देशों के इस्लामी जगत से काफी बड़ा है| इस्लाम के इस पुनरोद्घार में यदि भारत ईरान की मदद कर सके तो विश्व-राजनीति पर उसका असर पड़े बिना नहीं रहेगा| यों भी राष्ट्रों के बीच उनके संबंधों के निर्धारण में इस्लाम की भूमिका घटती जा रही हैं यदि इस्लाम ही जोड़क तत्व होता तो बांग्लादेश क्यों टूटता, ईरान और एराक के युद्घ में लाखों जवानों का खून क्यों बहता, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच रह-रहकर युद्घों की नौबत क्यों आती, एराक कुवैत पर हमला क्यों बोलता और मिस्र तथा सउदी अरब दो अलग-अलग खेमों में क्यों रहते ? यदि इस्लाम इतना महत्त्वपूर्ण है तो ईरान के राष्ट्रपति को भारत-जैसे ‘काफिर’ देश का मुख्य अतिथि क्यों बनना चाहिए था ? वह भी, गणतंत्र-दिवस के अवसर पर, जबकि भारत की फौजी-शक्ति का प्रदर्शन होता है| वह शक्ति जिसका इस्तेमाल अगर होना है तो एक अन्य इस्लामी राष्ट्र याने पाकिस्तान के खिलाफ ही होना है| 1971 के पहले तक ईरान और पाकिस्तान के बीच जो साँठ-गाँठ थी, उसके मूल में भी मज़हब नहीं, राष्ट्रीय स्वार्थ थे| ईरान के दिल में यह दहशत बैठी हुई थी कि भारत पाकिस्तान को तोड़े बिना नहीं मानेगा| यदि पाकिस्तान टूटता है तो बलूचिस्तान आज़ाद हो जाएगा| यदि पाकिस्तान के छह लाख बलूच आज़ाद होंगे तो ईरान के पन्द्रह लाख बलूच बगावत क्यों नहीं कर देंगे ? इसके अलावा भारत की शक्ति इतनी बढ़ जाएगी कि वह ईरान को भी अपने वर्चस्व में लेने की कोशिश करेगा| ईरान के इस काल्पनिक भय को तत्कालीन भारत-सोवियत सहकार ने भी जमकर हवा दी| इसीलिए अमेरिकी सैन्य-गठबंधन के सदस्य होने के नाते 1965 और 1971 में ईरान ने भारत के विरुद्घ पाकिस्तान की खुलकर मदद की| लेकिन 1971 में पाकिस्तान के टूटने के बाद ईरान को यह समझ में आ गया कि भारत पाकिस्तान को भंग करने पर आमादा नहीं है| ईरान को भारत से कोई खतरा नहीं है| उधर ईरान ने यह भी महसूस किया कि अरब देशों के साथ अपने संबंध बढ़ाते वक़्त पाकिस्तान ईरान का खास ध्यान नहीं रखता| इसके अलावा भारत और पाकिस्तान का विवाद लंबा खिंचेगा| इसीलिए भारत और ईरान अब एक-दूसरे को पाकिस्तानी चश्मे से नहीं, अपनी आँखों से देखने लगे|
भारत और ईरान को पास लाने में सबसे बड़ा योगदान अफगानिस्तान की घटनाओं का हैं 1992 में नजीबुल्लाह सरकार का ज्यों ही पतन हुआ, अफगानिस्तान में अपना वर्चस्व जमाने के लिए ईरान और पाकिस्तान में होड़ लग गई| ईरान ने फारसीभाषी और मंगोलवंशी ‘हजारा’ लोगों का समर्थन किया| अफगानिस्तान के ‘हजारा’ ईरानियों की तरह शिया हैं जबकि पठान, ताजिक, उज़बेक आदि सुन्नी हैं| पाकिस्तान ने इन सुन्नियों का समर्थन किया| अफगानों की इस आपसी लड़ाई में कभी-कभी ईरान और पाकिस्तान मुख्य योद्घाओं की पीठ पर दिखाई देते | ईरान और पाकिस्तान की यह प्रतिद्वंद्विता केवल अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं रही| वह मध्य एशिया के पाँचों मुस्लिम गणतंत्रों तक भी जा पहुँची| पाकिस्तान के अंदर जो शिया-सुन्नी तनाव बना रहता था, उसकी झांई भी दोनों राष्ट्रों के संबंधों पर पड़ने लगी| इस तनाव को तूल दिया तालिबान के उत्थान ने| तालिबान ने न सिर्फ अफगानिस्तान के शिया लोगों को मज़हबी तौर पर तंग करना शुरू कर दिया बल्कि उनके विरुद्घ जातीय प्रतिशोध की नीति भी अपनाई| तालिबान का मतलब था, अफगानिस्तान पर पाकिस्तान की हुकूमत ! तालिबान और ईरान के बीच इतना तनाव बढ़ गया कि दोनों देशों के बीच युद्घ के नगाड़े बजने लगे| अफगानिस्तान और ईरान के बीच युद्घ का मतलब होता- पाकिस्तान और इ्ररान के बीच लड़ाई ! दोनों मुस्लिम राष्ट्रों के बीच कटुता का यह दौर लगभग दस साल तक चलता रहा| इस बीच भारत और ईरान के आपसी आर्थिक संबंध ही नहीं बढ़े, वे राजनीतिक और सामरिक दृष्टि से भी एक-दूसरे के नज़दीक आने लगे| विदेश मंत्री दिनेशसिंह, प्रधानमंत्री नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी ईरान गए और ईरान के विदेशमंत्र्िागण तथा राष्ट्रपति रफसंजानी भी भारत आए| तालिबान भारत और ईरान के साझा शत्रु बन गए| अफगानिस्तान के अंदर जिन तत्वों की मदद ईरान ने की, भारत ने भी उन्हीं तत्वों की पीठ ठोकी| यदि पाकिस्तान, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात ने तालिबान को मान्यता दी तो ईरान और भारत की सरकारों ने रब्बानी की प्रवासी सरकार को मान्य किया| तालिबान ने बामियान के बुद्घ पर प्रहार किया तो इस्लामी ईरान ने वैसी ही कड़ी निंदा की, जैसी कि ‘काफिर’ भारत ने की| भारत और ईरान मिलकर मध्य एशिया के तेल और गैस के भंडारों तक पहुँचने के लिए जल और थल-मार्ग भी तलाशने लगे| वे यह जान गए कि न तो अफगानिस्तान में शीघ्र शांति होनेवाली है और न ही भारत-पाक संबंध आसानी से सुधरनेवाले हैं|
राष्ट्रपति खातमी की इस यात्रा के दौरान गैस और तेल की पाइप लाइन बिछाने पर विचार जरूर हुआ लेकिन 2500 कि.मी. लंबी और 15 हजार करोड़ रु. की यह पाइप लाइन अब भी एक सपना ही है, क्योंकि भारत-पाक मार्ग बंद हैं और अफगानिस्तान अभी तक पूरी तरह शांत नहीं हुआ है| बलूचिस्तान से पाकिस्तान के अन्य शहरों तक जानेवाली सुई गैस की पाइप लाइन में हाल ही में दो विस्फोट हुए हैं| असुरक्षा के इस माहौल में कौन कम्पनी अरबों डॉलर खर्च करना चाहेगी| लगभग दस साल पहले बि्रदास, यूनोकल, डेल्टा और शेवरान जैसी कम्पनियों ने तुर्कमेनिस्तान, तालिबान और पाकिस्तान के नेताओं से कई समझौते किए, उनके लाखों डॉलर तैयारी में और रिश्वतों में खर्च हुए लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला| अब भी कई रूपरेखाएँ और प्रायोजनाएँ तैयार हैं लेकिन ईरान का हित इसी में है कि मध्य एशिया को जानेवाला और वहाँ से आनेवाल सारा माल ईरान की सड़कों और रेलों से आए और जाए| ईरानी रास्ता लंबा है और अभी तैयार नहीं है| अफगान रास्ते के मुकाबले वह मँहगा है लेकिन अगर वह चल पड़ा तो अफगानिस्तान और पाकिस्तान सामरिक दृष्टि से निचले पायदान पर खिसक जाएँगे| पाकिस्तान को ज्यादा नुकसान होगा| राष्ट्रपति खातमी की यात्रा ने इसी नुकसान की भूमिका तैयार कर दी हैं अब भारत का माल रूस पहुँचने के लिए बाल्टिक समुद्र की हवा नहीं खाएगा| उसे सेंट पीटर्सबर्ग और कोत्का का चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा| जब तक वैकल्पिक रास्ते नहीं बन जाते, वह ईरान के बंदरे-अब्बास से मध्य एशिया और वहाँ से रूस तक पहुँचेगा| अब जो नए समझौते हुए हैं, उनके तहत ईरान के चाहबहार बंदरगाह से जाहिदान और वहाँ से ज़रांज और दिलाराम तक मजबूत और आधुनिक सड़क बन जाएगी| यह सड़क जाकर सीधी जुड़ेगी, अफगानिस्तान के उस महापथ से जो अब से लगभग चालीस वर्ष पहले रूस और अमेरिका ने मिलकर बनाया था| भारत का माल अफगानिस्तान के गाँव-गाँव तक सीधा पहुँचने लगेगा| यही मार्ग उत्तर दिशा में बढ़ता हुआ मध्य एशिया के गणतंत्रों को सीधा खाड़ी और हिन्द महासागर से जोड़ देगा| चाहबहारसे ईरान की उत्तरी सीमा तक पहुँचनेवाली रेल-प्रायोजना पर भी समझौता हुआ है| अर्थात्र भारत और ईरान ने मिलकर पाइप-लाइन का विकल्प खोज लिया है और उस पर काम करना शुरू कर दिया है| यदि कुछ समय बाद भारत-पाक मार्ग खुल गया तो भारत को फायदा होगा और ईरान को कुछ नुकसान| मध्य एशिया तक जानेवाला पाक-अफगान मार्ग छोटा और सस्ता है लेकिन इस मार्ग में राजनीति के काँटे बिछे हुए हैं| यह असंभव नहीं कि ईरानी रास्ता शुरू होते ही पाकिस्तान को अपनी कमअक्ली का भान होने लगे और वह भारत से अपने संबंधों को सहज बनाने की कोशिश करे| यदि पाकिस्तानी रास्ता खुल जाए तो अफगानिस्तान और पाकिस्तान को पाइप लाइन के किराए से ही अरबों रूपए की आमदनी होने लगेगी| मध्य एशिया के सस्ते तेल और गैस से भारत की अर्थ-व्यवस्था का मौलिक रूपान्तरण हो जाएगा| फिलहाल इस क्षेत्र की अर्थ-व्यवस्थाएँ आपसी राजनीति का शिकार बनी हुई हैं लेकिन खातमी की भारत-यात्रा के बाद यह आशा की जाती है कि अब दोनों देशों की यह आर्थिक पहल इस क्षेत्र की राजनीति में भी कुछ बुनियादी परिवर्तनों को प्रेरित करेगी| तालिबान के खात्मे के बाद उधर ईरान और पाकिस्तान में भी प्रेमालाप बढ़ा है और इधर ईरान ने कश्मीर, आतंकवाद, इस्लामवाद, पंथ निरपेक्षता और लोकतंत्र आदि पर भी अपनी राय में काफी सुधार किया है| ऐसी स्थिति में ईरान की भूमिका उसके आकार और शक्ति के मुकाबले कहीं अधिक बड़ी हो सकती है| यदि ईरान के प्रयत्नों से भारत-पाक संबंध सहज हो जाएँ और मध्य-एशिया के मार्ग खुल जाएँ तो सम्पूर्ण एशिया के नवोदय को कौन रोक सकता है|
Leave a Reply