R Sahara, 25 Nov 2003 : भारत के प्रति रूस का रवैया क्या है, यह समझना दो घटनाओं के कारण जरा मुश्किल हो गया था| पहली मुशर्रफ की मास्को-यात्रा और दूसरी व्लादिमीर पूतिन का अन्तरराष्ट्रीय इस्लामी सम्मेलन में भाग लेना| इन दोनों घटनाओं के संकेत ये थे कि रूस पाकिस्तान के प्रति नरम पड़ता जा रहा है| फलस्वरूप भारत के प्रति उसकी गर्मजोशी घटती चली जाएगी| पिछले माह इंडोनेशिया में हुए इस्लामी सम्मेलन में मुशर्रफ ने कहा था कि प्रधानमंत्री वाजपेयी जब रूस जाऍंगे तो पूतिन उन्हें कश्मीर के मामले में कोई नया फार्मूला सुझाऍंगे| हो सकता है कि इस बारे में मुशर्रफ और पूतिन की कोई बात हुई हो और मुशर्रफ ने उसका मतलब अपने ढंग से लगाया हो| जो भी हुआ हो, मुशर्रफ के बयान से भारत के कान खड़े हो गए| पहले तो यही बात समझ में नहीं आई कि पूतिन जैसे नेता इस्लामी सम्मेलन में गए ही क्यों ? वर्तमान रूस में मुसलमानों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है जबकि भारत में उनकी संख्या इंडोनेशिया के बाद सबसे ज्यादा है| इसके बावजूद भी भारत इस्लामी सम्मेलन में भाग नहीं लेता| किसी पूर्व-समाजवादी राष्ट्र का नेता ऐसे धर्माधारित सम्मेलन में जाए, यह अजूबा ही है| यदि पूतिन वहॉं इसलिए गए कि उनके मुस्लिम-प्रदेश चेचेन्या में बगावत चल रही है तो कुछ-कुछ उस तरह का कोहराम कश्मीर में भी मचा हुआ है| सन्देह यही हुआ कि पूतिन को इस्लामी दल-दल में घसीटने का काम पाकिस्तान कर रहा है|
यह संदेह इसलिए भी पुष्ट हुआ कि मुशर्रफ ने इस सम्मेलन के दौरान ही भारत की टॉंग-खिंचाई की| इतना ही नहीं, जब मुशर्रफ फरवरी 2003 में मास्को गए तो रूस ने सीमा-पार आतंकवाद का नाम तक नहीं लिया| बल्कि उल्टे भारत को सलाह दे डाली कि वह पाकिस्तान से बात शुरू करे| यह ठीक है कि रूस ने कश्मीर के संबंध में संयुक्तराष्ट्र-प्रस्तावों का उल्लेख नहीं किया और शिमला तथा लाहौर घोषणाओं की दुहाई दी लेकिन उसने सीमा-पार आतंकवाद की उपेक्षा करके यह संकेत दे दिया कि इस मुद्दे पर वह भारत के बजाय पाकिस्तान के साथ है| उसने आतंकवाद से लड़ने के लिए मुशर्रफ की तारीफ भी की| दूसरे शब्दों मे 2002 की अपनी भारत-यात्रा के दौरान पूतिन ने आतंकवाद के बारे में जो बढ़-चढ़कर बयान दिए थे, उन पर पोंछा लगा दिया| ऐसी स्थिति में यह भय पैदा हो गया था कि भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की मास्को-यात्रा के दौरान कहीं भारत को हक्का-बक्का न रह जाना पड़े| ऐसा नहीं हुआ लेकिन उसकी बारीकियों में जाने के पहले यह समझना जरूरी है कि रूस-पाक संबंधों की मजबूरियॉं क्या-क्या हैं?
यदि हम भारत-रूस और पाकिस्तान के त्र्िाकोणात्मक संबंधों पर विचार करें तो रूसी पलड़ा निश्चय ही भारत के पक्ष में झुकेगा लेकिन पाकिस्तान को खुश रखना भी रूस के लिए जरूरी हो गया था| इसके कई कारण थे| एक तो चेचेन्या के आतंकवादियों को पकड़ने में रूस पाकिस्तान की मदद चाहता था| रूस के कहने से पाक ने चेचेन्या के पूर्व राष्ट्रपति सलीमखान यांदरबिएव को अपने देश से बाहर निकाल दिया| इसके अलावा पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा के प्रमुख ने रूस-विरोधी अन्य आतंकवादियों की खुफिया खबर भी मास्को को दी| दूसरा, महारानी केथरीन के ज़माने से रूस की हसरत रही है कि कराची, ग्वादर और बन्दरे-अब्बास जैसे गर्म पानी के बन्दरगाहों तक उसकी सीधी पहॅुंच हो| यदि मध्य एशिया के राष्ट्र और अफगानिस्तान भी रूस के अनुकूल हों और अकेला पाकिस्तान प्रतिकूल हो तो भी रूस की यह पुरानी हसरत पूरी नहीं हो सकती| अब जबकि शीतयुद्घ समाप्त हो चुका है, रूस पिछले कई वर्षों से पाकिस्तान को पटाने में लगा हुआ है| तीसरा, रूस को यह भी पता है कि तालिबान के पतन के बावजूद अफगानिस्तान में पाकिस्तान का काफी असर बना हुआ है| असलियत तो यह है कि काबुल में जमे तालिबान से गुप-चुप बात करने के लिए रूस ने पाकिस्तानी कूटनीतिक सुरंग का इस्तेमाल शुरू कर दिया था| चौथा, मध्य एशिया के मुस्लिम गणतंत्रों में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए रूस ने यह उचित समझा कि वह इस्लामी सम्मेलन में भाग ले और पाकिस्तान जैसे देशों को भी पटाए, जो इस्लाम को अपनी विदेश नीति का आधारभूत तत्व बनाए हुए हैं| पॉंचवा, रूस सोचता है कि जब भारत जैसा उसका परम्परागत मित्र शीतयुद्घोतर वातावरण में अमेरिका के साथ दोस्ती गॉंठ रहा है तो पाकिस्तान के साथ पींगें बढ़ाने में उसे कोई झिझक क्यों होनी चाहिए| इसीलिए रूस पाकिस्तान के साथ व्यापार, सैन्य-सहयोग और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने पर जोर दे रहा है| इसके पहले कि घनिष्ट होते हुए रूस-पाक संबंध भारत के लिए चिन्ता का विषय बनते, भारतीय प्रधानमंत्री की मास्को-यात्रा ने सारी गलतफहमियों को लगभग दूर कर दिया है|
भारत-रूस संयुक्त बयान में पाकिस्तान का स्पष्ट नामोल्लेख करके सीमा-पार आतंकवाद बंद करने की मॉंग की गई है| यद्यपि भारत ने भी चेचेन्याई आतंकवाद का स्पष्ट विरोध किया है लेकिन रूस द्वारा पाकिस्तान का नाम लिया जाना इस बात का प्रमाण है कि वह कश्मीरी आतंकवाद के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार मानता है| कश्मीर में जिस तरह की अवैध और अनैतिक दिलचस्पी पाकिस्तान ले रहा है, चेचेन्या में कोई अन्य राष्ट्र नहीं ले रहा है| इसीलिए रूस का कश्मीर पर भारत-समर्थन भारत के चेचेन्या पर रूस-समर्थन से अधिक महत्वपूर्ण है| रूस ने इस बार पाकिस्तान से नियंत्रण-रेखा के सम्मान की बात कहकर भारतीय पक्ष को अधिक परिपुष्ट किया है| उसने संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव का जि़क्र तक नहीं किया| यह वह प्रस्ताव है, जिसकी माला जपते-जपते पाकिस्तान का गला सूख गया है| रूस ने केवल शिमला समझौता और लाहौर घोषणा का जिक्र किया है, जिनमें न तो जनमत-संग्रह की बात कही गई है और न ही किसी तीसरे देश की मध्यस्थता की|
इतना ही नहीं, संयुक्त वक्तव्य में सभी प्रकार के आतंकवादों की भर्त्सना की गई है| इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि रूस ने आतंकवाद पर अपना दृष्टिकोण अमेरिका से अलग किया है और उसे वह भारत के नजदीक लाया है| अमेरिका को केवल अपने आतंकवाद की चिंता है| उसे इससे कोई मतलब नहीं कि कश्मीर या चेचेन्या या इंडोनेशिया में क्या हो रहा है| यदि मतलब होता तो अमेरिका अब तक पाकिस्तान की वैसे ही गर्दन मरोड़ देता, जैसी कि उसने तालिबान की मरोड़ी थी| आजतक ट्रेड टॉवरों के गिराने में तालिबानी भूमिका और सद्दाम के विनाशकारी हथियारों के प्रमाण अमेरिका नहीं जुटा पाया है लेकिन उसने इन दोनों मुल्कों पर आतंकवाद के नाम पर सैन्य कार्रवाई कर दी| वह पाकिस्तानी आतंकवाद को आतंकवाद नहीं समझता| रूस ने उक्त संयुक्त वक्तव्य पर दस्तखत करके भारत के इस दृष्टिकोण पर मुहर लगाई है कि आतंकवाद का कारण, रूप, प्रकार, स्थान, सहायक और जन्मदाता कोई भी हो, उसके विरुद्घ संपूर्ण विश्व-समुदाय को एकजुट होना चाहिए| यह संयुक्त दृष्टिकोण भी पाकिस्तान को काफी अपि्रय लगेगा लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत और रूस मिलकर पाकिस्तानी आतंकवाद पर कोई हमला बोलनेवाले हैं| दोनों ने मिलकर तालिबान को ही नहीं छेड़ा तो वे पाकिस्तान का क्या कर लेंगे ? पिछले साल दिसंबर में जब पूतिन भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि भारत और रूस के ‘आपसी पड़ौस’ में चल रहे आतंकवाद के उन्मूलन के लिए वे कटिबद्घ होंगे लेकिन वे कहॉं और कैसे कटिबद्घ हुए, पता नहीं| अन्तरराष्ट्रीय राजनय में करनी में न सही, कथनी में ही सहमति के कुछ स्वर उभर जाऍं तो उन्हें ही उपलब्धि माना जाता है|
इसी तरह की सहमति अफगानिस्तान और एराक़ के मुद्दों पर भी हुई है| अफगानिस्तान में चल रहे बाहरी हस्तक्षेप को दोनों राष्ट्रों ने अवांछित बताया है| इस बयान का इशारा अमेरिका और पाकिस्तान दोनों की तरफ है| अफगानिस्तान में डेढ़-दो साल के अन्तरिम प्रशासन के बावजूद अभी तक शांति और स्थायित्व के आसार दिखाई नहीं पड़ रहे हैं| हामिद करज़ई सरकार को न तो यथेष्ट सैन्य शक्ति दी जा रही है ताकि वह तालिबान का मुकाबला कर सके और न ही आर्थिक शक्ति दी जा रही है ताकि वह युद्घग्रस्त जनता को सही अर्थों में राहत पहॅुंचा सके| अमेरिका अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा है| इसका संकेत तो स्पष्ट है ही, साथ ही तालिबान को सकि्रय रहने देने के लिए पाकिस्तानी भूमिका की तरफ भी इशारा किया गया है| भारत और रूस, दोनों ने मिलकर तालिबान-विरोधी रब्बानी की प्रवासी-सरकार को सक्रिय समर्थन दिया था| उसी नीति को दुबारा दोहराया गया है| इसी
प्रकार एराक़ में भी दोनों राष्ट्रों ने शीघ्र स्वशासन की मॉंग की है और संयुक्तराष्ट्र संघ की भूमिका को केन्द्रीय बनाने की बात कही है| इसका अर्थ यह है कि घुमा-फिराकर अमेरिका के सैनिक कब्जे को उन्होंने उचित नहीं ठहराया है और यह भी माना है कि एराक़ की संप्रभुता अभी तक एराक़ की जनता को नहीं मिली है| दूसरे शब्दों में यह मॉंग भी की है कि अमेरिकी फौजों की वापसी हो| यह बात स्पष्ट तौर पर नहीं कही गई है लेकिन कही जाती कोई बुराई नहीं होती| ऐसी बातें अगर कही जाऍं और उन पर जोर दिया जाए तो सचमुच दुनिया में चल रही अमेरिकी दादागीरी को कुछ तो चुनौती मिलती| यह दुनिया एकध्रुवीयता से बहुध्रुवीयता की तरफ मुड़ती| फिलहाल भारत और रूस दोनों ही इस स्थिति में नहीं हैं कि वे अलग-अलग या संयुक्त रूप से अमेरिका के विरुद्घ कोई मोर्चा जमा दें|
रूस ने भारत को सुरक्षा परिषद्र का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन करके अपने आपको अमेरिका से अलग पायदान पर खड़ा कर लिया है| अमेरिका न तो भारत की तरह इस विश्व-संस्था का पुनर्गठन करना चाहता है और न ही भारत को ापॉंच बड़ों की महफिल में शामिल करना चाहता है| उसने बमधारी भारत को अछूत बनाने की कोशिश तो नहीं की लेकिन दोस्ती के गर्मजोश दावों के बावजूद वह उसे क्षेत्रीय शक्ति मानने को भी तैयार नहीं है| ऐसी स्थिति में पहले फ्रांस और अब रूस का समर्थन भारत को मिलना महत्वपूर्ण घटना है| यदि बि्रटेन और चीन भी भारत को सुरक्षा-परिषद्र का स्थायी सदस्य बनाने का स्पष्ट समर्थन कर दें तो अमेरिका निश्चय ही अलग-थलग पड़ सकता है| भारत और रूस बहुत-से मामलों में अमेरिका पर निर्भर हो गए हैं और वे अमेरिका को नाराज़ करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन अटलजी की मास्को-यात्रा के दौरान यह तो स्पष्ट हो गया है कि भारत और रूस अमेरिका की हॉं में हॉं मिलानेवाले राष्ट्र नहीं बन सकते| भारत की वह नियति नहीं हो सकती, जो पाकिस्तान की है| इसी प्रकार आज का रूस वह नहीं है, जो गोर्बाचेव ने छोड़ा था और येल्तसिन ने झेला था| रूस की आर्थिक प्रगति और राजनीतिक स्थिरता उसे वही आत्म-विश्वास प्रदान कर रही है, जो भारत के पास है|
भारतीय प्रधानमंत्री का रूस के साथ-साथ ताजि़किस्तान और सीरिया जाना भी इस बात का प्रमाण है कि भारत अमेरिका से नहीं डरता| ताजि़किस्तान के साथ भारत के सामाजिक संबंध बहुत गहरे हैं| जिन दिनों अमेरिका तालिबान के साथ गुप-चुप सॉंठ-गॉंठ कर रहा था, भारत ने ताजि़किस्तान के ज़रिए रब्बानी-समर्थकों को सभी प्रकार की सहायता दी थी| ताजि़किस्तान, कजाकिस्तान और उज़बेकिस्तान में आजकल अमेरिका अपने पॉंव पसारने की पूरी कोशिश कर रहा है| ऐसी स्थिति में रूस अपने पड़ौस में अमेरिका की बजाय भारत का आना ज्यादा पसंद करेगा| इसी प्रकार सीरिया आजकल अमेरिका के ऑंख की किरकिरी बना हुआ है| एराक़ पर फौजी कार्रवाई के दौरान सीरियाई रवैए पर अमेरिका इतना चिढ़ गया था कि वह सीरिया पर भी हमला करने की बात सोचने लगा था| ऐसे सीरिया में पहॅुंचकर भारतीय प्रधानमंत्री ने हिम्मत का काम किया है| उन्होंने वहॉं अमेरिका-विरोधी कोई बात नहीं कही लेकिन उनका वहॉं जाना इस बात का सूचक है कि भारत किसी महत्तम शक्ति का दुमछल्ला नहीं है| भारत और रूस मिलकर अमेरिका-विरोधी गुट खड़ा नहीं कर सकते लेकिन वे ये तो बता ही सकते हैं कि वे स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र हैं| इसी संज्ञान को बलिष्ठ बनाने में दस द्विपक्षीय समझौतों का अपना योगदान होगा|
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