हिन्दुस्तान, 15 अगस्त 2002 : हमने अभी-अभी स्वाधीनता की 55वीं वर्षगांठ मनाई| वह हमारे लोकतंत्र और संप्रभुता की भी वर्षगांठ है| भारत वर्षगांठ मनाए और उसकी संसद की गठिया हो जाए, इससे बढ़कर विडम्बना क्या होगी ? पावस-सत्र में संसद कैसे चली ? चलते-चलते कैसे रुकी और रुकते-रुकते वह सत्रावसान के गह्रवर में कैसे गिरी, क्या सारा देश इस परम कारुणिक दृश्य को देख नहीं रहा है ? संसद अगर अपंग हो जाए तो स्वाधीनता पंख फैलाकर कैसे उड़ेगी ? भारत की स्वाधीनता और सम्प्रभुता का सबसे शक्तिशाली प्रतीक कौन है ? क्या संसद नहीं है ? संसद का असली काम क्या है ? कानून बनाना, बहस करना, सम्वाद जारी रखना, जनता के प्रति जवाबदेह रहना ! ये सारे काम इस बार स्थगित हो गए| पेट्रोल पम्प घोटाले का कोई जवाब नहीं है| कोई हिसाब नहीं है| न सत्तारूढ़ दल और न ही विरोधी दल, कोई भी जवाब नहीं दे रहे हैं| जवाब और हिसाब दोनों को देना है, क्योंकि दोनों ही दोषी हैं| दोष के प्रक्षालन का पवित्र-घाट बंद कर दिया गया है, संसद का घाट और उसकी जगह अखबारों और टी वी चैनलों का धोबीघाट खुल गया है| जनता की नज़रों में संसद नीचे चली गई है और प्रचार-तंत्र ऊपर उठ गया है| फिरोज़ गांधी और लोहिया-लिमये की वह संसद अब कहाँ है, जो देश में तूफान उठाती थी और उसकी लहरों से अखबारों के मुखपृष्ठ रंग जाते थे| अब तो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे अखबार लहरें उठाते हैं और उन लहरों में से हमारी संसद सीपियाँ, कौडि़याँ और कंकर बीनती रहती है| संसद अपना महत्त्व खुद घटा रही है|
संसद के इस सत्र में लगभग तीन दर्जन विधेयक पारित होने थे| उनमें से ज्यादातर धरे के धरे रह गए| क्यों धरे रह गए ? क्योंकि विरोधी दल पेट्रोल पम्पों के धांधले पर गुस्साए हुए थे| वे तेल मंत्री और प्रधानमंत्री का इस्तीफा माँग रहे थे| उनसे कोई पूछे कि क्या वे दूध के धुले हुए हैं ? ‘राज्यकृपा’ की लूट में कोई भी पीछे नहीं है| वास्तविकता तो यह है कि इस राजकीय लूट-पाट के यज्ञ के प्रथम पुरोहित तो वे ही हैं| यदि सांसदों का मन्शा यह होता कि इस लूट-पाट को बंद किया जाए तो वे सब मिलकर भारत की जनता से माफी माँगते, पश्चाताप की कोई विधि निकालते और भविष्य में इस तरह की हरकत से बाज़़ आने का वचन देते| अगर वे ऐसा करते तो संसद की गरिमा में चार चाँद लगते लेकिन ऐसा करने की बजाय उन्होंने संसद ही ठप कर दी| वे यह भूल गए कि जनता ने उन्हें संसद ठप करने के लिए नहीं, उसे चलाने के लिए वहाँ भेजा है| संसद को ठप करने का नतीजा क्या हुआ ? जो बहस संसद में चलनी चाहिए थी, वह अब कीचड़ की तरह अखबारों में उछल रही हैं| दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के मुखौटे नोंच डाले हैं| पेट्रोल पम्प तो सिर्फ ट्रेेलर है| असली फिल्म बहुत भयावह है| ‘राज्यकृपा’ की लूट के पर्चे अगर खुलने लगें तो हमारे नेतागण के चारों तरफ इतनी रद्दी जमा हो जाएगी कि वह बुलडोजरों से भी नहीं हटाई जा सकेगी| गनीमत है कि अभी सिर्फ एकाध अखबार ने ही यह बीड़ा उठाया है| यदि जिले स्तर तक के अखबार और साधारण नागरिक नेताओं की पीछे पड़ गए तो संसद और विधानसभाओं के लिए उम्मीदवार मिलना मुश्किल हो जाएँगे| वर्तमान राजनीतिक दल अपना बिस्तर-बोरिया गोल कर घर बैठ जाएँगे| संसद को ठप करना इसी आशंका को बलवान बनाना है| यदि संसद में बहस होती तो यह सवाल भी उठता कि आखिर राजनीति में दिन-रात मरने-खटनेवाले लोग अपनी रोज़ी रोटी के लिए क्या करें ? क्या सिर्फ दलाली, सिर्फ रिश्वत, सिर्फ दादागीरी, सिर्फ ब्लेकमेल पर गुजारा करें या पेट्रोल पम्प, गैस एजेन्सी या कंट्रोल की दुकान जैसे किसी विधिसम्मत आय के साधन का सहारा लें ? संसद कोई रास्ता निकाल सकती थी लेकिन रास्ता निकालने के उपकरण को ही हमारे नेताओं ने भोंथरा कर दिया है|
संसद के इस सत्र में चुनाव-सुधार विधेयक पारित होना था| यदि उसमें उम्मीदवारों की सम्पत्ति की घोषणा अनिवार्य हो जाती तो पेट्रोल पम्प जैसी धांधली से हमारे नेतागण अपने आप बाज़ आते| भ्रष्टाचार विरोधी कुछ अन्य विधेयक भी पारित होने थे| जैसे लोकपाल-विधेयक, जिसका लक्ष्य सर्वोच्च शासकों के भ्रष्टाचार को रोकना था| इसी प्रकार विदेशों में गुप्तधन जमा करने संबंधी विधेयक भी भ्रष्टाचार-निवारक था| ये सारे विधेयक अधर में लटक गए| इसका मतलब क्या यह नहीं हुआ कि संसद के पावस-सत्र का इस्तेमाल हमारे राजनीतिक दलों ने भ्रष्टाचार से उजागर करने के लिए नहीं, उस पर पर्दा डालने के लिए किया है| इसके अलावा विधानसभाओं और संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिलानेवाला विधेयक भी लटक गया| अनेक आर्थिक सुधारों से संबंधित विधेयक भी पारित नहीं हो सके| जो हंगामा हुआ, उसके कारण करोड़ों रुपए बर्बाद हो गए| संसद के संचालन में एक घंटे पर 25 लाख रु. का खर्च आता है| 13वीं संसद में अभी तक 356 घंटे बर्बाद हुए याने लगभग 70-80 करोड़ रु. का नुक्सान तो पहले ही हो चुका है| सांसद काम नहीं करते और वेतन भी लेते रहते हैं ! वे देश के निकम्मे और कामचोर लोगों को क्या संदेश दे रहे हैं ?
पूरे साल भर में आजकल संसद 100 दिन भी काम नहीं करती जबकि प्रारंभिक दौर में वह सवा सौ से डेढ़ सौ दिनों तक काम करती थी| संसद जब काम करती है तो भी क्या काम करती है ? दोनों सदनों में प्रश्न-काल के बाद प्राय: कोरम ही नहीं होता याने एक बटे दस सदस्य भी उपस्थित नहीं होते और अगर कोरम होता है तो बस नाम-मात्र के लिए होता है| दुनिया की दूसरी संसदों का रेकार्ड हमसे बेहतर है| कभी सोवियत रूस में संसद सिर्फ दस दिन के लिए भरा करती थी लेकिन उन दस दिनों में धुआँधार कार्य होता था| हमारे दुबली उपस्थितिवाले सदनों में भी जो शोर-शराबा तथा मुँह के साथ जो अन्य अंगों का संचालन होता है, उसके कारण क्या हमारे लोकतंत्र की साख बढ़ी है ? टी वी पर हमारे सांसदों को देखनेवाले दर्शकगण केवल उनके हंगामों को ही याद रख पाते हैं| इन्हीं सब बुराइयों को काबू करने के लिए दिवंगत लोकसभा अध्यक्ष श्री बालयोगी ने नवम्बर 2001 में सांसदों और विधायकों का विराट्र सम्मेलन बुलाया था| उस सम्मेलन ने अनेक सराहनीय प्रस्ताव पारित किए थे और संकल्प धारण किए थे लेकिन वे सब प्रस्ताव और संकल्प अल्मारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं| सांसदों के आचरण में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखाई पड़ता| वे यह भूल जाते हैं कि वे संसद की चहारदीवारी में जो कुछ करते हैं, वह सारे देश में गुंजायमान होता है| लाखों राजनीतिक कार्यकर्ता उनका अनुकरण करते हैं| भारत के संसदीय इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि दोनों सदनों के उपाध्यक्ष लगभग एक समय ही गुजर गए हों| ऐसी विकट घड़ी में कम से कम उनकी स्मृति का आदर करते हुए सांसदों को चाहिए था कि वे सदनों को चलने देते, अपने आचरण को मर्यादित रखते और भ्रष्टाचार की चुनौती का मुकाबला करने के लिए कोई नई राह निकालते|
स्वाधीनता के इन पचपन वर्षों के बावजूद यदि हम अपनी संसद को सुदृढ़ बनाने के लिए अब कोई ठोस कदम नहीं उठाएँगे तो हमें इटली ओर जर्मनी की तरह फाशीवाद का ज़हर निगलने के लिए तैयार रहना होगा| यदि इतालवी और जर्मन संसदें ठीक से काम कर रही होतीं तो मुसोलिनी और हिटलर यह कहने की हिमाकत नहीं करते कि उनकी संसदें सिर्फ ‘गप्पों की दुकानें’ हैं| हमारे राजनीतिक दलों को विचार करना होगा कि विधायक या सांसद का टिकिट किसे दें ? जो लिखना-पढ़ना नहीं जानते, जिन्हें लोकहित या अहित की सूक्ष्म समझ नहीं है, जो कानून के दूरगामी अभिप्रायों को समझ नहीं सकते, जो सदन में धैर्यपूर्वक बहस नहीं कर सकते, उन लोगों को क्या इसीलिए टिकिट दिया जाता रहेगा कि वे वोट ज्यादा कबाड़ सकते हैं या उनके पास प्रचुर धनराशि है या उनकी जाति या मज़हब के मतदाता बड़ी संख्या में हैं ? इसमें संदेह नहीं कि चुनाव जीतने की योग्यता सर्वोपरि गुण है लेकिन अन्य गुणों के अभाव में इस गुण का परिणाम अत्यंत राक्षसी सिद्घ होता है| आज की राजनीति के राक्षसी स्वरूप का मूल कारण यही है| यदि इस मूल कारण पर हमारे राजनीतिक दल पुनर्विचार करें तो संसद ही नहीं, भारतीय राजनीति की भी शक्ल बदल सकती है|
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