NavBharat Times, 9 Sept. 2008 : विएना में हुई विजय पर भारतसरकार यदि इतरा रही है तो इसमें गलत क्या है? इतना बड़ा कूटनीतिक युद्ध भारत ने इसके पहले कभी नहीं लड़ा। चीन और पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों के समय हमारा विदेश मंत्रालय विशेष सक्रिय होता था और संयुक्त राष्ट्र में पश्चिमी राष्ट्रों का मुकाबला करता था। उस समय हमारी पीठ पर सोवियत रूस का हाथ होता था और हम बच निकलते थे। इस बार हमारी पीठ पर अमेरिका का हाथ था और हम बच निकले। इस बार लड़ाई जरा बड़ी थी।
1974 में पहले पोखरण के वक्त पांच परमाणु महाशक्तियों ने हम पर तलवारें खींची थीं और जापान व कनाडा जैसे उनके बगलबच्चों ने भी, लेकिन इस बार दुनिया के 45 राष्ट्रों ने भारत के भाग्य को अधर में लटका रखा था। भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे की शर्त पर मुहर लगाने के पहले 45 देशों ने 50 से अधिक आपत्तियां खड़ी कर दी थीं। वे सब आपत्तियां रद्द हो गईं और कुछ नए संशोधनों के साथ न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप ने भारत के लिए अपने दिशा-निर्देश जारी कर दिए।
यदि एनएसजी में यह मामला अटक जाता तो क्या होता? भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगता। चीन, पाकिस्तान और हमारे विरोधी दल खुश होते, लेकिन मनमोहन सरकार की बड़ी फजीहत होती। मामला अटका नहीं, पार हो गया, इसलिए सरकार का उत्साहित होना स्वाभाविक है, लेकिन यह भी सत्य है कि यह भारत से ज्यादा अमेरिका की विजय है और शानदार विजय है।
रूस हमारे पक्ष में वीटो किया करता था और छुट्टी पा लेता था, लेकिन यहां 45 वीटोधारी राष्ट्रों को पटाने का सवाल था। क्या अमेरिका के अलावा किसी अन्य महाशक्ति में इतना दम है कि वह ऐसा कर सके? ऑस्ट्रिया और आयरलैंड जैसे छोटे-मोटे राष्ट्रों की बात जाने दें, चीन जैसे दुर्वासा देश को अपनी कतार में खड़ा करवा लेना कोई मामूली बात नहीं है। आखिर अमेरिका ने एड़ी-चोटी का इतना जोर क्यों लगाया?
इसका पहला कारण तो प्रक्रियागत है। यदि एनएसजी से हरी झंडी नहीं मिलती तो यह सौदा अमेरिकी कांग्रेस का मुंह ही नहीं देख पाता। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और एनएसजी के बाद अब यह अमेरिका के दोनों सदनों के पास होगा। दो-दो मंजिलें पार करने के बावजूद अब भी आशंका बनी हुई है। अनेक सांसदों ने तरह-तरह के अड़ंगे लगा रखे हैं। यदि अमेरिकी प्रशासन 45 देशों को पटा सकता है तो क्या वह अपने सांसदों को साथ नहीं ले पाएगा? जरूर ले पाएगा।
यह दूसरा और प्रमुख कारण है। बुश प्रशासन उन्हें बताएगा कि अमेरिका को कम से कम 100 अरब डॉलर की आमदनी होगी और 10 हजार अमेरिकियों को नौकरियां मिलेंगी। डॉलर अमेरिकी सभ्यता की आत्मा है। डॉलर पाने के लिए अमेरिका कुछ भी कर सकता है। भारत को रिएक्टर, ईंधन और तकनीक बेचकर वह इन बुरे दिनों में थोड़ी राहत महसूस करेगा।
यह अकेला तर्क है, जो अमेरिकी कांग्रेस का पलड़ा सौदे के पक्ष में झुकवा देगा। तीसरा कारण भी स्पष्ट ही है। अमेरिका अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए परमाणु ब्रह्माचर्य का उपदेश झाड़ता है। बुश प्रशासन का मानना है कि इस सौदे के जरिए उसने शेर को बकरी बना दिया है। भारत जैसे उद्दंड राष्ट्र को उसने परमाणु अप्रसार संधि की सांकल में जकड़ दिया है। भारत से उसने पक्का वादा करवा लिया है कि वह आइंदा परमाणु विस्फोट नहीं करेगा।
इस वादे को भारत के विदेश मंत्री ने 5 सितंबर 2008 को दो टूक शब्दों में दोहराया है। दावा है कि इसी से एनएसजी के सदस्यों को पटाया जा सका है। उन्हें पटाने में उस पत्र की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है जो कांग्रेसमैन हावर्ड बरमन ने जारी कर दिया है। उस पत्र में अमेरिकी प्रशासन ने साफ-साफ लिखा है कि अगर भारत ने परमाणु परीक्षण किया तो सौदा तत्काल भंग हो जाएगा, परमाणु ईंधन की सप्लाई भी बंद हो जाएगी और भारत को दोहरे इस्तेमाल की तकनीक भी नहीं दी जाएगी।
इस मामले में अमेरिका के दिमाग में कोई संशय नहीं है। लेकिन भारत सरकार का मानना है कि इस सौदे के कारण उसे पहली बार अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली है। उसे परमाणु महाशक्तियों ने छठी परमाणु महाशक्ति मान लिया है। उसका उद्दंड राष्ट्र का तमगा हट गया है। सभी राष्ट्र अब उस पर से सारे प्रतिबंध हटा देंगे। उसे परमाणु उपकरण, तकनीक और ईंधन अब मुक्त रूप से मिलेंगे। वह अपने गैर फौजी संयंत्रों में परमाणु ऊर्जा का जमकर विकास करेगा।
एनएसजी ने आश्वस्त किया है कि यदि किसी कारण से कोई परमाणु गड़बड़ी हो गई तो सभी राष्ट्र मिल-बैठकर विचार करेंगे। इस आश्वासन का अर्थ यह भी है किभारत की परमाणु लगाम अब 45 राष्ट्रों के हाथ में होगी। इसका एक उलट लाभ भी है। यदि पूरा समूह भारत के विरुद्घ हो और हम किसी एक छोटे-मोटे राष्ट्र को भी अपने पक्ष में कर लें तो यह समूह कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि इसके निर्णय सर्वसम्मति से होते हैं।
इस दृष्टि से एनएसजी में जाना भारत के लिए हितकर सिद्ध हुआ, हालांकि अभी तक भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं दी गई है। परमाणु ताले की असली कुंजी अमेरिका की जेब में है। अमेरिकी कांग्रेस 123 समझौते में अभी क्या-क्या संशोधन पेश करती है, यह देखना बाकी है। यदि वह उसे जस का तस पास कर दे तो भी अमेरिका के साथ वास्तविक परमाणु लेनदेन में काफी मुश्किलें सामने आएंगी, क्योंकि उसके और भारत के लक्ष्य परस्पर विरोधी हैं।
वह शेर को बकरी बनाना चाहता है और हम बकरी की खाल ओढ़कर शेर की तरह शिकार खेलना चाहते हैं। भारत और अमेरिका के बीच आपसी ठगी का यह खेल काफी निराला है। ऐसे में बेहतर तो यह होगा कि फ्रांस और रूस के साथभारतऐसे समझौते कर ले, जिनमें परमाणु ब्रह्माचर्य का उपदेश न झाड़ा गया हो और सचमुच भारत के साथ वही बर्ताव हो, जो अन्य पांच परमाणु महाशक्तियों के साथ होता है। तभी माना जाएगा कि प्रधानमंत्री ने संसद को जो आश्वासन दिए थे, वे सच्चे थे, चाहे उन तक पहुंचने का रास्ता टेढ़ा था।
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