नया इंडिया, 09 अक्टूबर 2013 : पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने खुद ही घोषणा कर दी कि वे ठीक समय पर अपनी चदरिया धर देंगे। ऐसा कम ही होता है। अक्सर पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष या तो अपना कार्यकाल बढ़वाने में जुटे रहते हैं या उनका वश चले तो वे अपने राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का ही कार्यकाल खत्म कर देते हैं, जैसे कि जनरल अयूब खान या जिया-उल-हक या परवेज़ मुशर्रफ ने किया था लेकिन जनरल कयानी इसके अपवाद मालूम पड़ते हैं। उन्हें एक बार बढ़ा हुआ कार्यकाल आसिफ ज़रदारी ने दे दिया था लेकिन अब मियां नवाज़ शरीफ उन्हें दूसरा बढ़ा हुआ कार्यकाल नहीं देना चाहते। यह हो सकता है कि वे उन्हें सेनाध्यक्ष से भी ऊंचा पद दे दें। वह हैं, जांइट चीफ ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष का पद।
शायद इसीलिए कयानी ने नाराज़ हुए बिना अपनी सेवा-निवृत्ति की घोषणा खुद ही कर दी। इस अनुमान को इस तथ्य से भी बल मिल रहा है कि आठ अक्तूबर को सेवा-निवृत्त होने वाले संयुक्त सेनाध्यक्ष खालिद शमीद वाइन के उत्तराधिकारी की घोषणा आज नहीं की जा रही है। खुद मियां नवाज़ ने कहा है कि दोनों घोषणाएं एक साथ की जाएंगी याने 29 नवंबर को, जबकि कयानी पद छोड़ेंगे। इसका मतलब क्या निकला? यही न कि वह पद कयानी को दिया जाएगा और उनसे उम्मीद की जाएगी कि वे भारत, अफगानिस्तान, कश्मीर, तालिबान, आतंकवाद आदि मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करें और उनके नए उत्तराधिकारी का मार्गदर्शन करें। जनरल कयानी को यह श्रेय तो मिलेगा ही कि उन्होंने सर्वसत्ताधीश रहते हुए भी पाकिस्तान की राजनीति में अपनी टांग नहीं अड़ाई। यह संकल्प उन्होंने सेनाध्यक्ष बनते ही व्यक्त कर दिया था। वे चाहते तो कमजारे राष्ट्रपति ज़रदारी और गिलानी जैसे प्रधानमंत्री को उलटकर तख्ता-पलट कर सकते थे लेकिन उन्होंने अपनी मर्यादा नहीं छोड़ी।
वैसे भी उसामा बिन लादेन की हत्या, आतंकवाद की असंख्य घटनाओं, अमेरिकी ड्रोन हमलों और उनके पहले बलूच नेता अकबर बुग्ती की हत्या, लाल मस्जिद पर हमले और कराची के नौसैनिक अड्डे पर कब्जे जैसी घटनाओं ने पाकिस्तानी फौज के रुतबे को बहुत घटा दिया था। जनरल-कयानी की प्रतिष्ठा को इसलिए भी धक्का लगा कि वे जिहादी गिरोहों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई अभी तक नहीं कर पाए। वे भी मुशर्रफ की तरह आतंकवादियों को दो चश्मों से देखते रहे। भारत-विरोधी आतंकवादियों के प्रति पाकिस्तानी फौज का बर्ताव मैत्रीपूर्ण रहा और पाकिस्तान-विरोधी आतंकवादियों के प्रति फौज के शब्दों में कठोरता जरुर रही लेकिन उनके प्रति उन्होंने नरमी ही बरती।
यदि कयानी अब भी फौज के किसी पद पर टिके रहे तो वे मियां नवाज़ की विदेश नीति को आगे बढ़ाने में सहायक कैसे होंगे, समझ में नहीं आता। यदि मियां नवाज़ इस बार अपने नेक इरादों को अमली जामा पहनाना चाहते हैं तो उन्हें पाकिस्तानी फौज के दिमाग का नव-निर्माण करना होगा। उसे अफगानिस्तान को अपना पांचवां प्रांत समझना और कश्मीर को डंडे के जोर से झपट लेने की नीति से बाज़ आना होगा। क्या ही अच्छा हो कि जनरल कयानी को मियां नवाज़ ऐसे काम पर लगा दें, जिस पर आज तक किसी सेवा-निवृत्त जनरल को नहीं लगाया गया? क्यों नहीं, कयानी को भारत के साथ सीधे फौजी-संवाद का मुखिया बनाया जाए और उन्हें भारत के जनरलों से बातचीत के लिए नियुक्त किया जाए? यदि कयानी इस रचनात्मक काम में जुट जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं कि साल भर बाद हमारे दोनों देश अफगानिस्तान में दंगल करने की बजाय मैत्री और मंगल करें।
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