नवभारत टाइम्स, 07 दिसंबर 2002, दो साल पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जब भारत आए थे, तब भी उन्होंने आतंकवाद की भर्त्सना तो की थी लेकिन तब वे जरा ठिठके हुए दिखाई पड़ रहे थे| उन्होंने पाकिस्तान नामक शब्द को अपने होठों या कलम पर नहीं आने दिया था लेकिन इस बार संयुक्त वक्तव्य और पत्रकार-परिषद्, दोनों में ही पाकिस्तान का खुलकर जि़क्र हुआ| इसीलिए पुतिन की इस भारत-यात्रा का मुख्य मुद्दा पाकिस्तान बना| इस बार पुतिन ने साफ़-साफ़ कहा कि यदि भारत-पाक वार्ता शुरू होनी है तो पहले आतंकवाद बंद किया जाए| न केवल जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण-रेखा का पाकिस्तान सम्मान करे बल्कि उसके क्षेत्र में चल रही समस्त आतंकवादी गतिविधियों का भी वह उन्मूलन करे| इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी माना कि आतंकवाद की जड़ें भारत और रूस के ‘आपसी पड़ौस’ में हैं और यह दोनों की सुरक्षा के लिए खतरनाक है| ये दोनों मिलकर इस आतंकवाद की रोकथाम और दमन के लिए कटिबद्घ होंगे|
दो साल पहले और अब के पुतिन में क्या फर्क है ? पुतिन तो वही हैं लेकिन परिस्थितियाँ बदल गई हैं| दो साल पहले आतंकवाद का अन्तरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय रूप इतना विकराल नहीं था, जितना कि अब है| दो साल पहले अमेरिका आतंकवाद का जानी दुश्मन नहीं बना था, हालांकि उसने तालिबानी अफगानिस्तान के विरुद्घ संयुक्तराष्ट्र संघ से प्रस्ताव पारित करवा लिया था| न्यूयॉर्क के ट्रेड टॉवरों के गिरते ही आतंकवाद विश्व-मुद्दा बन गया| अमेरिका मुक्तभोगी बना| इसी प्रकार दो माह पहले जब मास्को-थियेटर में रक्त-स्नान हुआ तो रूस को पता चला कि आतंकवाद अब दूर चेचेन्या के किसी कोने की पटाखेबाजी नहीं है| वह क्रेमलिन के दरवाज़े पर पागल हाथी की चिंघाड़ है| याने रूस भी मुक्तभोगी बना, बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि पिछले 12 साल से भारत था| इसीलिए आज भारत की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर रूस भी पाकिस्तान के विरुद्घ बोल पड़ा है| इस रूसी रवैए पर पाकिस्तान बौखलाए बिना नहीं रहेगा|
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय इस बात पर पहले से ही खफ़ा है कि भारत आने के पहले पुतिन ने पाकिस्तान-विरोधी बयान दे दिया था| पुतिन ने एक भेंट-वार्ता में यह चिन्ता जता दी थी कि पाकिस्तानी परमाणु हथियार कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाएँ| इसका एक अभिप्राय यह भी हुआ कि राज्य के तौर पर पाकिस्तान की दाल पतली हो रही है| वहाँ की कानून-व्यवस्था विश्वसनीय नहीं है| यह डर अमेरिकियों को भी है लेकिन वे यह बात खुले-आम नहीं कहते| अमेरिकियों ने अल-क़ायदा के लोगों को खोजने और पकड़ने का काम अपने हाथों में ले रखा है| सरहदी सूबे की नई सरकार ने इसे पाकिस्तानी संप्रभुता का उल्लंघन कहा है| इस सच्चाई को पुतिन ने मान्यता देकर भारतीय दृष्टिकोण को पुष्ट बनाया है| पिछले कुछ वर्षों से भारत अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि पाकिस्तान ने केवल अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद की धर्मशाला है बल्कि वह स्वयं आतंकवादी राष्ट्र है| पुतिन ने पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र नहीं कहा| वे कह भी नहीं सकते, क्योंकि वे उससे दुश्मनी मोल क्यों लें ? उन्हें पाकिस्तान की जरूरत है| मध्य एशिया और अफगानिस्तान को पार करता हुआ रूसी माल आखिर कराची कैसे पहुँचेगा ? चेचेन्या ने रूस-यूरोप मार्ग में बड़ा रोड़ा अटका रखा है| हिन्द महासागर के जरिए रूसी माल दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में पहुँच सकता है| इसीलिए रूसी सरकार तालिबान की विरोधी होते भी दो साल पहले तालिबान से और उनके आश्रयदाता पाकिस्तान से भी गुपचुप बात कर रही थी| पिछली बार जब पुतिन दिल्ली में थे तो एक रूसी प्रतिनिधि मंडल पाकिस्तान में था| इस बार भी कुछ ऐसा ही है| इस बार पुतिन भारत के साथ एक आतंकवाद-विरोधी संयुक्त कार्यदल बनाने की सिर्फ घोषणा कर रहे हैं जबकि वैसा ही कार्यदल पहले से ही इस्लामाबाद पहुँचा हुआ है| पाकिस्तान के प्रति रूस का रवैया वही नहीं हो सकता, जो कि भारत का है, क्योंकि रूस के प्रति पाकिस्तान का वही रवैया नहीं है, जोकि उसका भारत के प्रति है| इसीलिए पाकिस्तान के विरुद्घ रूस ने बयान तो दे दिया ताकि भारत खुश हो जाए लेकिन कोरे बयान से क्या होता है ? भारत को खुश करना इसलिए भी जरूरी हो सकता है कि 10 हजार करोड़ रु. की लागत का अपना पुराना विमानवाहक पोत, गोर्शकोव, भारत के मत्थे मढ़ना है|
भारत-रूस संयुक्त विज्ञप्ति में कहा गया है कि आतंकवाद का संयुक्त सामना करेंगे जिसकी जड़ें ‘आपसी पड़ौस’ (कॉमन नेबरहुड) में हैं| यह आपसी पड़ौस, यह कॉमन नेबरहुड क्या बला है ? क्या इशारा पाकिस्तान की तरफ है ? पाकिस्तान भारत का पड़ौसी तो है लेकिन रूस का पड़ौसी वह कैसे है ? रूस से उसका पड़ौस छूटे तो 11 साल हो गए| जब से सोवियत संघ टूटा, पाकिस्तान और रूस के बीच चार-पाँच हजार किलोमीटर का फासला आ गया है| तो क्या आपसी पड़ौस का मलतब अपना-अपना पड़ौस है ? याने आतंकवाद का मुकाबला रूस चेचेन्या में करे और भारत कश्मीर में करे| अगर मतलब यही है तो रूस का पाकिस्तान-विरोध कोरा रामरोला है| खाली झुनझुना है| आतंकवाद-विरोधी घोषणा-पत्र तो पिछले साल भारतीय प्रधानमंत्री की मास्को-यात्रा के दौरान जारी हुआ था लेकिन उसके बाद मास्को थियेटर और अक्षरधाम-रघुनाथ मंदिर आदि कांड हो गए| कौनसी संयुक्त कार्रवाई हुई ? क्या रूस और भारत को पता नहीं कि चेचेन्या और कश्मीर के आतंकवाद की जड़ें कहाँ है ? अब तक जड़ों पर प्रहार क्यों नहीं हुआ ? पहले नहीं हुआ लेकिन अब होगा, इसमें बड़ा संदेह है| यदि वाजपेयी और पुतिन मिलकर कोई ऐसा नया सिद्घांत घड़ते, जो आतंकवाद के मूल स्रोत पर उन्हें सीधा हमला करने की क्षमता देता तो माना जाता कि कोई बड़ी अन्तरराष्ट्रीय घटना घटी है| यदि रूस और भारत मिलकर इस दिशा में कुछ कर सकते होते तो तालिबान को काबुल से वे ही भगाते| अमेरिकियों का इंतजार नहीं करते| जो तालिबान के खिलाफ उंगली भी नहीं उठा सके, वे पाकिस्तान के विरुद्घ तलवार क्या उठाएँगे ? आतंकवाद की पूतना का वध पुतिन के बस की बात नहीं है|
पाकिस्तान के विरुद्घ रूस और भारत की जो सीमित शाब्दिक सहमति हुई, उसमें अभी चीन तक शामिल नहीं हुआ है| ऐसी स्थिति में पुतिन के बयानों को किसी दिलजले की भडाँस और जबानी जमा-खर्च के अलावा क्या समझा जाए| इसी प्रकार अमेरिका के मुकाबले में भारत, रूस और चीन का त्रिगुट बनाने की बात भी हवाई किले के अलावा क्या है| दुनिया बहुध्रुवीय बने, यह सन्त-भाव अपनी जगह ठीक है लेकिन क्या हमें पता नहीं कि रूस और चीन ने अमेरिका के साथ गहरी विपक्षीय आर्थिक साँठ-गाँठ पहले से ही कर रखी है| यदि भारत त्रिगुट के झाँसे में आ गया तो सबसे अधिक नुकसान उसी का होगा, क्योंकि तब पाकिस्तान दक्षिण एशिया में अमेरिकी हितों का एक मात्र प्रतिनिधि बन जाएगा| येां भी चीन पाकिस्तान के हितों पर आँच क्यों आने देगा ? 1963 से पाकिस्तान ने उसे कब्जाए हुए कश्मीर की हजारों वर्गमील जमीन भेंट कर रखी है| यदि आतंकवाद के मूल स्रोत पर प्रहार होगा तो वह ज़मीन चीन के हाथ से क्या निकल नहीं जाएगी ? अफगानिस्तान, एराक और आतंकवाद के सवालों पर भारत, रूस और चीन की राय एक हो सकती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह पाकिस्तान पर भी एक ही है|
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