जनसत्ता, 19 फरवरी 2008 : फारसी में कहते हैं, ‘देर आयद, दुरूस्त आयद’| संस्कृत में कहते हैं, पश्चबुद्घि ! याने देर से आई अक़ल ! हमारी सरकार नवंबर में गच्चा खा गई थी| अब उसे अक्ल आ गई है| रूसी प्रधानमंत्री विक्तोर झुबकोव की दिल्ली यात्र के दौरान उसने ‘भूल-सुधार’ कर लिया है| अब से तीन माह पहले भारतीय प्रधानमंत्री जब मास्को गए थे तो चार परमाणु संयन्त्रें पर समझौता होते-होते रह गया था| भारत सरकार पसोपेश में थी| उसे डर था कि रूस से समझौता हो गया तो अमेरिका बुरा मान जाएगा| पिछले साल जब रूसी राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन भारत आए थे तो यह तय हुआ था कि रूस भारत में चार नए परमाणु संयंत्र् लगाएगा लेकिन साल भर बीत जाने पर भी यह संकल्प ताक पर ही रखा रहा| इसी बीच अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग के समझौते पर बाकायदा दस्तखत हो गए| उस समझौते के साथ हाइड एक्ट भी पास हुआ, जो कि भारत पर तरह-तरह के बंधन लगाता और दबाव डालता| भारत सरकार को इस अमेरिकी समझौते पर कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन फिर भी उसने रूस के साथ वह समझौता नहीं किया, जिसमें कोई बंधन या दबाव नहीं थे| जैसे परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सहमति अमेरिकी समझौते के लिए आवश्यक है, वैसे ही रूसी समझौते के लिए भी होती| उस ‘ग्रुप’ पर दबाव डालने के लिए रूस हमारे वकील की तरह कमर कसता|
ज़रा सोचिए कि यह समझौता अगर साल भर पहले ही हो जाता तो भारत को कितने फायदे होते| सबसे पहले तो यह फायदा होता कि अमेरिकी दबाव ढीला पड़ जाता| अमेरिकी सीनेट को सीधा-सपाट संदेश मिलता कि रूस ने बाजी मार ली है| यदि आप ज्यादा नखरे दिखाऍंगे तो रूस करोड़ों-अरबों का धंधा अकेले ही पीट लेगा| भारत और रूस की सामरिक समीपता एकध्रुवीय विश्व की अमेरिकी चौपड़ को उलट देगी| एशिया में नए समीकरणों का उदय होगा| एराक, ईरान और अफगानिस्तान के बारे में भारत और रूस मिलकर कुछ ऐसी नीतियॉं भी चला सकते हैं, जो अमेरिकी रणनीति से मेल न खाती हों| दूसरे शब्दों में भारत-रूस परमाणु समझौता भारत की विदेश नीति में स्वायत्ता और नम्यता के नए तत्व जोड़ देता| अमेरिका के साथ भारत के संबंध खराब नहीं होते बल्कि अधिक स्वस्थ धरातल पर पहुंच जाते| अमेरिका को यह भी पता चल जाता कि रूस ही नहीं, फ्रांस भी मैदान में कूदने को तैयार है| ये दोनों प्रमुख परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र ही नहीं, आस्ट्रेलिया, नाइजर, केनाडा जैसे परमाणु-ईधन संपन्न राष्ट्र भी भारत के साथ सौदे करने पर आमादा हैं| यह अवसर अभी बीत नहीं गया है| भारत चाहे तो परमाणु सप्लायर्स ग्रुप के दर्जनों राष्ट्रों के साथ अभी भी धड़ाघड़ इसी तरह के समझौते करता चला जाए| उसके दो परिणाम एक साथ सामने आऍंगे| एक तो अमेरिका पर दबाव बढ़ जाएगा| और दूसरा, परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सहमति आसानी से मिल जाएगी| भारत के पक्ष में दर्जनों हाथ पहले से खड़े मिलेंगे| यदि ग्रुप की सहमति सिर्फ अमेरिकी समझौते के कारण मिलती है तो यह लंगड़ी सहमति होगी, क्योंकि उस समझौते में भारत को परमाणु शक्ति संपन्न छठा राष्ट्र नहीं माना गया है| उस पर वे शर्ते थोपी गई हैं, जो पॉंच परमाणु शक्तियों के अलावा सभी राष्ट्रों पर थोपी जाती हैं| रूस के साथ चार परमाणु संयन्त्रें के निर्माण का जो समझौता हुआ है, उसमें हाइड एक्ट जैसी कोई शर्त नहीं है| भारत को किसी भी मुद्दे पर पिछलग्गू बनने का प्रावधान नहीं है| इसके अलावा वे चारों संयन्त्र् जब तक चलते रहेंगे, तब तक उन्हें ईंधन लगातार मिलता रहेगा| ईंधन की आपूर्ति में कभी कोई बाधा नहीं आएगी| इतना ही नहीं, भारत-रूस समझौते में यह विलक्षण प्रावधान है कि उन संयन्त्रें को अगर किसी अन्य देश ने किसी कारण ईधन देना बंद कर दिया तो उसे चालू रखने की जिम्मेदारी रूस की होगी| रूस ने आश्वस्त किया है कि यदि पूर्वी साइबेरिया में स्थापित उसके अन्तरराष्ट्रीय परमाणु ईधन केंद्र का भारत सदस्य बन जाए तो उसे ईंधन की कभी कोई कमी होने ही नहीं दी जाएगी| अंगार्स्क में बने इस केंद्र का संचालन वियना की अंतरराष्ट्रीय परमाणु-ऊर्जा एजेंसी की देख-रेख में होता है| जहॉं तक रूस का सवाल है, परमाणु संयन्त्रें के निर्माण से वह अमेरिका से काफी आगे है| भारत को अमेरिका जो संयन्त्र् बेचता, उनमें से ज्यादातर पुराने होते और उनकी क़ीमत भी कई गुना होती जबकि रूस के संयन्त्र् सस्ते और टिकाऊ हैं| कुडनकुलम में लगाए जा रहे रूसी संयन्त्र् वीवीएआर-1200 कम से कम 50 साल तक चलेंगे| पुराने पड़ने पर भी उनकी क्षमता बहुत कम घटेगी| वे इतने मजबूत होंगे कि अगर उन पर कोई बड़ा हवाई जहाज भी गिर पड़े तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा| ये भूकंप के तगड़े झटके भी झेल सकते हैं| रूस और फ्रांस वे देश हैं, जो परमाणु बिजली खुद पैदा करते हैं| वे अमेरिका की तरह ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ नहीं हैं| रूस इस समय चीन और यूरोपीय राष्ट्रों को भी परमाणु संयंत्र् बेच रहा है| भारत में परमाणु-संयत्र् लगाने का रूस को पहले से अनुभव है| रूस के साथ जो समझौता अभी हुआ है, वह तुरंत लागू नहीं होगा| अभी उसे परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की हरी झंडी की प्रतीक्षा करनी होगा| चाहे जो भी हो, इस समझौते ने भारत के शांतिपूर्ण परमाणु सहयोग कार्यक्रम के नए द्वार खोल दिए है|
इस समझौते का लाभ भारत सरकार को अमेरिकियों के मुकाबले तो मिलेगा ही, हमारे वामपंथियों के मुकाबले भी मिल सकता है| कॉंग्रेसी तर्क देंगे कि आपने रूसी समझौते का विरोध नहीं किया तो आप अमेरिकी समझौते का विरोध क्यों कर रहे हैं? इस तर्क में दम नहीं है, क्योंकि दोनों समझौतों में ज़मीन-आसमान का अंतर है| वामपंथी जवाब में यह कह सकते हैं कि अमेरिकी समझौता अगर रूसी समझौते की तरह हो तो हमें क्या एतराज है? आम आदमी को इतनी बारीकियों में उतरने की फुर्सत कहॉं है| उसके दिमाग पर कॉंग्रेस यह छवि अंकित कर सकती है कि वामपंथी उस सौदे का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि वह अमेरिका के साथ हो रहा है| भारत सरकार कोई भी द्राविड़ प्राणायामक कर ले, वह वामपंथियों को झुकाने में असफल रहेगी| ऐसी स्थिति में चिंता का विषय यही है कि यदि भारत-अमेरिकी सौदा विफल हो गया तो क्या भारत-रूस और भारत-फ्रांस सौदे भी रद्द हो जाऍंगे?
भारत-रूस सौदा तुरंत परवान चढ़े या न चढ़े लेकिन इस सौदे से एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है| वह यह कि भारत-रूस संबंधों में हाल ही में जो पेंच पैदा हो गए थे, वे अब छंटने लगे है| सिर्फ एडमिरल गोर्शकोव विमानवाहक पोत के सौदे पर ही खींचातानी नहीं चल रही थी, बल्कि भारत-रूस व्यापार में भी थिथिलता बढ़ती जा रही थी| सखालिन द्वीप-समूह में तेल निकालने में भारत की भागीदारी खटाई में पड़ रही थी| दोनों देशों के बीच वीज़ा-समस्या भी खड़ी हो गई थी| मामला यहॉं तक जा पहुंचा था कि जब भारतीय विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी मास्को गए तो रूसियों ने सामान्य शिष्टाचार का पालन भी नहीं किया| डॉ. मनमोहन सिंह की मास्को-यात्र को भी बासी कढ़ी की तरह माना जा रहा था| रूसी प्रधानमंत्री की इस यात्र के दौरान दोनों देशों ने अन्य सामरिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए ही, द्विपक्षीय व्यापार को अगले तीन साल में ढाई-तीन गुना करने का संकल्प भी लिया| भारत और रूस जैसे पारंपरिक मित्रें के बीच सिर्फ 4 अरब डॉलर का व्यापार है जबकि चीन के साथ भारत का व्यापार 40 अरब का ऑंकड़ा छूने जा रहा है| चीन के साथ रूस का व्यापार 36 अरब डॉलर का है और यूरोपीय संघ के साथ 230 अरब डॉलर का है| चार परमाणु संयंत्रें के समझौते के कारण कई गलतफहमियॉं अपने आप दूर होंगी| उसका व्यापार पर अच्छा प्रभाव होगा| रूस के साथ व्यापार में जितना फायदा है, उससे कहीं ज्यादा फायदा संयुक्त विनिवेश में है| सिर्फ तेल-उत्पादन में ही नहीं, अनेक औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रें में दोनों राष्ट्र मिलकर संयुक्त कारखाने लगा सकते हैं, अनुसंधान कर सकते हैं और सहयोग कर सकते हैं| तीसरे देशों में भी वे संयुक्त उद्यम शुरू कर सकते हैं| रूस चाहे तो शस्त्रस्त्रें के मामले में भी अपना पुराना प्रमुख स्थान दुबारा पा सकता है| भारत उसके सबसे बड़े खरीददारों में से रहा है| भारत और रूस की विदेश नीतियों में भी दुबारा ताल-मेल बिठाने की जरूरत है| नेहरू और ख्र्र्र्र्रश्चेव तथा इंदिरा गांधी और ब्रेझनेव का युग तो नहीं लौट सकता लेकिन भारत और रूस मिलकर काम करें तो वे चीन को भी अपने साथ ले सकते हैं| ये तीनों राष्ट्र गुट बनाकर काम करें, यह अनावश्यक है लेकिन विश्व राजनीति के प्रमुख मुद्दों पर यदि वे एकमत हो सकें तो दुनिया को वे अमेरिकी मनमानी से बचा सकेंगे| शीत युद्घ ने विश्व-राजनीति में जिस संतुलन को जन्म दिया था, पिछले डेढ़ दशक में वह बिगड़ चुका है| सोवियत संघ के विसर्जन और गुट-निरपेक्ष आंदोलन के शैथिल्य ने तीसरी दुनिया को अमेरिका की दया पर जीने के लिए मजबूर कर दिया है| अमेरिका का दुर्भाग्य है कि उसे जार्ज बुश जैसे बुद्घू नेता मिल गए हैं| वे किस राष्ट्र के विरूद्घ क्या कदम उठा लें, उन्हें कुछ पता नहीं| उन्हें आतंकवाद नामक एक अच्छा बहाना मिल गया है| इसके अलावा संचार क्रांति ने अमेरिकी जीवन-पद्घति को विश्व व्यापी प्रचार दे दिया है| उसके कारण संसार में प्रदूषण, उपभोक्तावाद, अशांति और अपराध फैल रहे हैं| तीसरी दुनिया के जो राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से उन्नति कर रहे हैं, उनमें विषमता की खाई गहरी होती चली जा रही है| मूल्यहीन पूंजीवाद विश्व व्यवस्था का स्थायी खतरा बनता जा रहा है| परमाणु शस्त्रें ने दुनिया को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है| ऐसे खतरनाक समय में भारत, रूस और चीन मिलकर विश्व को न केवल बहुध्रुवीय बना सकते हैं, बल्कि अमेरिकी अतिवाद पर लगाम भी लगा सकते हैं|
भारत-रूस देर आयद, दुरूस्त आयद
जनसत्ता, 19 फरवरी 2008 : फारसी में कहते हैं, ‘देर आयद, दुरूस्त आयद’| संस्कृत में कहते हैं, पश्चबुद्घि ! याने देर से आई अक़ल ! हमारी सरकार नवंबर में गच्चा खा गई थी| अब उसे अक्ल आ गई है| रूसी प्रधानमंत्री विक्तोर झुबकोव की दिल्ली यात्र के दौरान उसने ‘भूल-सुधार’ कर लिया है| अब से तीन माह पहले भारतीय प्रधानमंत्री जब मास्को गए थे तो चार परमाणु संयन्त्रें पर समझौता होते-होते रह गया था| भारत सरकार पसोपेश में थी| उसे डर था कि रूस से समझौता हो गया तो अमेरिका बुरा मान जाएगा| पिछले साल जब रूसी राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन भारत आए थे तो यह तय हुआ था कि रूस भारत में चार नए परमाणु संयंत्र् लगाएगा लेकिन साल भर बीत जाने पर भी यह संकल्प ताक पर ही रखा रहा| इसी बीच अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग के समझौते पर बाकायदा दस्तखत हो गए| उस समझौते के साथ हाइड एक्ट भी पास हुआ, जो कि भारत पर तरह-तरह के बंधन लगाता और दबाव डालता| भारत सरकार को इस अमेरिकी समझौते पर कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन फिर भी उसने रूस के साथ वह समझौता नहीं किया, जिसमें कोई बंधन या दबाव नहीं थे| जैसे परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सहमति अमेरिकी समझौते के लिए आवश्यक है, वैसे ही रूसी समझौते के लिए भी होती| उस ‘ग्रुप’ पर दबाव डालने के लिए रूस हमारे वकील की तरह कमर कसता|
ज़रा सोचिए कि यह समझौता अगर साल भर पहले ही हो जाता तो भारत को कितने फायदे होते| सबसे पहले तो यह फायदा होता कि अमेरिकी दबाव ढीला पड़ जाता| अमेरिकी सीनेट को सीधा-सपाट संदेश मिलता कि रूस ने बाजी मार ली है| यदि आप ज्यादा नखरे दिखाऍंगे तो रूस करोड़ों-अरबों का धंधा अकेले ही पीट लेगा| भारत और रूस की सामरिक समीपता एकध्रुवीय विश्व की अमेरिकी चौपड़ को उलट देगी| एशिया में नए समीकरणों का उदय होगा| एराक, ईरान और अफगानिस्तान के बारे में भारत और रूस मिलकर कुछ ऐसी नीतियॉं भी चला सकते हैं, जो अमेरिकी रणनीति से मेल न खाती हों| दूसरे शब्दों में भारत-रूस परमाणु समझौता भारत की विदेश नीति में स्वायत्ता और नम्यता के नए तत्व जोड़ देता| अमेरिका के साथ भारत के संबंध खराब नहीं होते बल्कि अधिक स्वस्थ धरातल पर पहुंच जाते| अमेरिका को यह भी पता चल जाता कि रूस ही नहीं, फ्रांस भी मैदान में कूदने को तैयार है| ये दोनों प्रमुख परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र ही नहीं, आस्ट्रेलिया, नाइजर, केनाडा जैसे परमाणु-ईधन संपन्न राष्ट्र भी भारत के साथ सौदे करने पर आमादा हैं|
यह अवसर अभी बीत नहीं गया है| भारत चाहे तो परमाणु सप्लायर्स ग्रुप के दर्जनों राष्ट्रों के साथ अभी भी धड़ाघड़ इसी तरह के समझौते करता चला जाए| उसके दो परिणाम एक साथ सामने आऍंगे| एक तो अमेरिका पर दबाव बढ़ जाएगा| और दूसरा, परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सहमति आसानी से मिल जाएगी| भारत के पक्ष में दर्जनों हाथ पहले से खड़े मिलेंगे| यदि ग्रुप की सहमति सिर्फ अमेरिकी समझौते के कारण मिलती है तो यह लंगड़ी सहमति होगी, क्योंकि उस समझौते में भारत को परमाणु शक्ति संपन्न छठा राष्ट्र नहीं माना गया है| उस पर वे शर्ते थोपी गई हैं, जो पॉंच परमाणु शक्तियों के अलावा सभी राष्ट्रों पर थोपी जाती हैं| रूस के साथ चार परमाणु संयन्त्रें के निर्माण का जो समझौता हुआ है, उसमें हाइड एक्ट जैसी कोई शर्त नहीं है| भारत को किसी भी मुद्दे पर पिछलग्गू बनने का प्रावधान नहीं है| इसके अलावा वे चारों संयन्त्र् जब तक चलते रहेंगे, तब तक उन्हें ईंधन लगातार मिलता रहेगा| ईंधन की आपूर्ति में कभी कोई बाधा नहीं आएगी| इतना ही नहीं, भारत-रूस समझौते में यह विलक्षण प्रावधान है कि उन संयन्त्रें को अगर किसी अन्य देश ने किसी कारण ईधन देना बंद कर दिया तो उसे चालू रखने की जिम्मेदारी रूस की होगी| रूस ने आश्वस्त किया है कि यदि पूर्वी साइबेरिया में स्थापित उसके अन्तरराष्ट्रीय परमाणु ईधन केंद्र का भारत सदस्य बन जाए तो उसे ईंधन की कभी कोई कमी होने ही नहीं दी जाएगी| अंगार्स्क में बने इस केंद्र का संचालन वियना की अंतरराष्ट्रीय परमाणु-ऊर्जा एजेंसी की देख-रेख में होता है|
जहॉं तक रूस का सवाल है, परमाणु संयन्त्रें के निर्माण से वह अमेरिका से काफी आगे है| भारत को अमेरिका जो संयन्त्र् बेचता, उनमें से ज्यादातर पुराने होते और उनकी क़ीमत भी कई गुना होती जबकि रूस के संयन्त्र् सस्ते और टिकाऊ हैं| कुडनकुलम में लगाए जा रहे रूसी संयन्त्र् वीवीएआर-1200 कम से कम 50 साल तक चलेंगे| पुराने पड़ने पर भी उनकी क्षमता बहुत कम घटेगी| वे इतने मजबूत होंगे कि अगर उन पर कोई बड़ा हवाई जहाज भी गिर पड़े तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा| ये भूकंप के तगड़े झटके भी झेल सकते हैं| रूस और फ्रांस वे देश हैं, जो परमाणु बिजली खुद पैदा करते हैं| वे अमेरिका की तरह ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ नहीं हैं| रूस इस समय चीन और यूरोपीय राष्ट्रों को भी परमाणु संयंत्र् बेच रहा है| भारत में परमाणु-संयत्र् लगाने का रूस को पहले से अनुभव है| रूस के साथ जो समझौता अभी हुआ है, वह तुरंत लागू नहीं होगा| अभी उसे परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की हरी झंडी की प्रतीक्षा करनी होगा| चाहे जो भी हो, इस समझौते ने भारत के शांतिपूर्ण परमाणु सहयोग कार्यक्रम के नए द्वार खोल दिए है|
इस समझौते का लाभ भारत सरकार को अमेरिकियों के मुकाबले तो मिलेगा ही, हमारे वामपंथियों के मुकाबले भी मिल सकता है| कॉंग्रेसी तर्क देंगे कि आपने रूसी समझौते का विरोध नहीं किया तो आप अमेरिकी समझौते का विरोध क्यों कर रहे हैं? इस तर्क में दम नहीं है, क्योंकि दोनों समझौतों में ज़मीन-आसमान का अंतर है| वामपंथी जवाब में यह कह सकते हैं कि अमेरिकी समझौता अगर रूसी समझौते की तरह हो तो हमें क्या एतराज है? आम आदमी को इतनी बारीकियों में उतरने की फुर्सत कहॉं है| उसके दिमाग पर कॉंग्रेस यह छवि अंकित कर सकती है कि वामपंथी उस सौदे का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि वह अमेरिका के साथ हो रहा है| भारत सरकार कोई भी द्राविड़ प्राणायामक कर ले, वह वामपंथियों को झुकाने में असफल रहेगी| ऐसी स्थिति में चिंता का विषय यही है कि यदि भारत-अमेरिकी सौदा विफल हो गया तो क्या भारत-रूस और भारत-फ्रांस सौदे भी रद्द हो जाऍंगे?
भारत-रूस सौदा तुरंत परवान चढ़े या न चढ़े लेकिन इस सौदे से एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है| वह यह कि भारत-रूस संबंधों में हाल ही में जो पेंच पैदा हो गए थे, वे अब छंटने लगे है| सिर्फ एडमिरल गोर्शकोव विमानवाहक पोत के सौदे पर ही खींचातानी नहीं चल रही थी, बल्कि भारत-रूस व्यापार में भी थिथिलता बढ़ती जा रही थी| सखालिन द्वीप-समूह में तेल निकालने में भारत की भागीदारी खटाई में पड़ रही थी| दोनों देशों के बीच वीज़ा-समस्या भी खड़ी हो गई थी| मामला यहॉं तक जा पहुंचा था कि जब भारतीय विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी मास्को गए तो रूसियों ने सामान्य शिष्टाचार का पालन भी नहीं किया| डॉ. मनमोहन सिंह की मास्को-यात्र को भी बासी कढ़ी की तरह माना जा रहा था| रूसी प्रधानमंत्री की इस यात्र के दौरान दोनों देशों ने अन्य सामरिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए ही, द्विपक्षीय व्यापार को अगले तीन साल में ढाई-तीन गुना करने का संकल्प भी लिया| भारत और रूस जैसे पारंपरिक मित्रें के बीच सिर्फ 4 अरब डॉलर का व्यापार है जबकि चीन के साथ भारत का व्यापार 40 अरब का ऑंकड़ा छूने जा रहा है| चीन के साथ रूस का व्यापार 36 अरब डॉलर का है और यूरोपीय संघ के साथ 230 अरब डॉलर का है| चार परमाणु संयंत्रें के समझौते के कारण कई गलतफहमियॉं अपने आप दूर होंगी| उसका व्यापार पर अच्छा प्रभाव होगा| रूस के साथ व्यापार में जितना फायदा है, उससे कहीं ज्यादा फायदा संयुक्त विनिवेश में है| सिर्फ तेल-उत्पादन में ही नहीं, अनेक औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रें में दोनों राष्ट्र मिलकर संयुक्त कारखाने लगा सकते हैं, अनुसंधान कर सकते हैं और सहयोग कर सकते हैं| तीसरे देशों में भी वे संयुक्त उद्यम शुरू कर सकते हैं| रूस चाहे तो शस्त्रस्त्रें के मामले में भी अपना पुराना प्रमुख स्थान दुबारा पा सकता है| भारत उसके सबसे बड़े खरीददारों में से रहा है|
भारत और रूस की विदेश नीतियों में भी दुबारा ताल-मेल बिठाने की जरूरत है| नेहरू और ख्र्र्र्र्रश्चेव तथा इंदिरा गांधी और ब्रेझनेव का युग तो नहीं लौट सकता लेकिन भारत और रूस मिलकर काम करें तो वे चीन को भी अपने साथ ले सकते हैं| ये तीनों राष्ट्र गुट बनाकर काम करें, यह अनावश्यक है लेकिन विश्व राजनीति के प्रमुख मुद्दों पर यदि वे एकमत हो सकें तो दुनिया को वे अमेरिकी मनमानी से बचा सकेंगे| शीत युद्घ ने विश्व-राजनीति में जिस संतुलन को जन्म दिया था, पिछले डेढ़ दशक में वह बिगड़ चुका है| सोवियत संघ के विसर्जन और गुट-निरपेक्ष आंदोलन के शैथिल्य ने तीसरी दुनिया को अमेरिका की दया पर जीने के लिए मजबूर कर दिया है| अमेरिका का दुर्भाग्य है कि उसे जार्ज बुश जैसे बुद्घू नेता मिल गए हैं| वे किस राष्ट्र के विरूद्घ क्या कदम उठा लें, उन्हें कुछ पता नहीं| उन्हें आतंकवाद नामक एक अच्छा बहाना मिल गया है| इसके अलावा संचार क्रांति ने अमेरिकी जीवन-पद्घति को विश्व व्यापी प्रचार दे दिया है| उसके कारण संसार में प्रदूषण, उपभोक्तावाद, अशांति और अपराध फैल रहे हैं| तीसरी दुनिया के जो राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से उन्नति कर रहे हैं, उनमें विषमता की खाई गहरी होती चली जा रही है| मूल्यहीन पूंजीवाद विश्व व्यवस्था का स्थायी खतरा बनता जा रहा है| परमाणु शस्त्रें ने दुनिया को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है| ऐसे खतरनाक समय में भारत, रूस और चीन मिलकर विश्व को न केवल बहुध्रुवीय बना सकते हैं, बल्कि अमेरिकी अतिवाद पर लगाम भी लगा सकते हैं|
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