Dainik Bhaskar, 17 Nov 2003 : पहली बार ऐसा लग रहा है कि भारत-रूस मैत्री की गाड़ी दुबारा पटरी पर आ रही है| अब से 12 साल पहले बोरिस येल्तसिन के जमाने में जो पटरी से उतरी तो यह गाड़ी सम्हल ही नहीं पा रही थी| राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के दो-दो बार भारत आने के बावजूद यह समझ ही नहीं पड़ रहा था कि आखिर भारत से रूस चाहता क्या है ? दोनों देशों के व्यापार की सुई 7-8 करोड़ डॉलर पर ही अटक गई थी और पाकिस्तान की भर्त्सना करना तो दूर, कश्मीर तथा सीमा-पार आतंकवाद जैसे ज्वलंत मुद्दों पर भी उसकी जबान लड़खड़ाने लगती थी| पिछले दिनों अन्तरराष्ट्रीय इस्लामी सम्मेलन में जनरल मुशर्रफ ने जब कहा कि पूतिन वाजपेयी को कश्मीर पर कुछ समझाऍंगे तो यह डर लगने लगा था कि कहीं पाकिस्तान और रूस के बीच कोई गुपचुप सॉंठ-गॉंठ तो नहीं हो गई है| यह अन्देशा इसलिए भी प्रबल हुआ कि फरवरी 2003 में जब मुशर्रफ मास्को गए थे तो रूस ने भारत को खुले-आम यह सलाह दी थी कि वह पाकिस्तान से बात करे और उसने पाकिस्तान को आतंकवाद-विरोधी राष्ट्र भी घोषित कर दिया था| इन दोनों मुद्दों पर भारत का रवैया एकदम उल्टा था| पाकिस्तान से बात करने के अमेरिकी प्रस्ताव तक को भारत रद्द कर चुका था| भारत की टेक यह थी कि जब तक पाकिस्तान सीमा-पार आतंकवाद बंद नहीं करेगा, भारत उससे बात नहीं करेगा| इसके अलावा भारत की यह कोशिश भी थी कि सारी दुनिया पाकिस्तान को आतंकवाद का शरण-स्थल घोषित करे| इन मुद्दों पर रूस का रवैया लगभग वही हो गया था, जो अमेरिका का था| हालॉंकि पूतिन ने गतवर्ष भारत आने के पहले एक भेंट-वार्ता में पाकिस्तान को नाम लेकर कह दिया था कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार आतंकवादियों के हाथ में पहॅुंच सकते हैं और उसामा बिन लादेन भी वहीं छिपा हुआ है लेकिन भारत आने पर पूतिन ने पाकिस्तान की रत्ती-भर आलोचना भी नहीं की, बल्कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए उसी समय उन्होंने अपने एक विशेष दूत को पाकिस्तान भिजवा दिया था|
लेकिन पूतिन की दुविधा अब खत्म होती-सी लग रही है| प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की मास्को-यात्रा के दौरान जारी संयुक्त बयान में रूसी पक्ष ने पहली बार पाकिस्तान का स्पष्ट नामोल्लेख किया है और भारत के स्वर में स्वर मिलाते हुए सीमा-पार आतंकवाद को बंद करने की मॉंग उससे की है| उसने पाकिस्तान से नियंत्रण-रेखा का सम्मान करने की बात भी कही है| इतना ही नहीं, भारत की तरह रूस ने भी यह मॉंग की है कि आतंकवाद के मामले में दुभॉंत करना गलत है| आतंकवाद कहीं भी हो, कैसा भी हो और किसी के द्वारा पनपाया जा रहा हो, सर्वथा निंदनीय है अर्थात्र चेचन्या और पाकिस्तान का आतंकवाद एक-जैसा है और अमेरिका का यह मानना गलत है कि ट्रेड टॉवर पर हुआ हादसा तो आतंकवाद है और कश्मीर में जो हो रहा है, वह पाकिस्तान की मजबूरी है| प्रकारांतर से भारत और रूस ने मिलकर आतंकवाद पर अमेरिका के दोगले रवैए की आलोचना की है| दोनों राष्ट्रों ने विश्व-समुदाय से मॉंग की है कि वह आतंकवाद की किसी भी प्रकार से सहायता करनेवाले राष्ट्रों के विरुद्घ एकजुट कार्रवाई करे| यह भारत की विजय है| यह इस बात का संकेत भी है कि भारत अमेरिका के प्रभा-मंडल में स्वयं को आत्मसात्र करने के लिए तैयार नहीं है| वह अपनी अस्मिता खोना नहीं चाहता|
इस निष्कर्ष पर पहॅुंचने के लिए इस मास्को-यात्रा से कुछ अन्य प्रमाण भी मिले हैं| जैसे एराक़ और अफगानिस्तान पर भारत का स्वतंत्र रवैया| इन दोनों मुद्दों पर भारत और रूस की समान दृष्टि स्वाभाविक है| एराक़ में अमेरिकी फौजें भेजने का रूस ने स्पष्ट विरोध किया था| भारत ने भी इस अमेरिकी कदम का समर्थन नहीं किया था| अब दोनों राष्ट्रों ने एराक़ में स्वशासन की मॉंग की है और संयुक्तराष्ट्र की भूमिका को रेखांकित किया है याने दबी जुबान से अमेरिकी फौजों की वापसी की बात कही है| क्या ही अच्छा होता कि ईमान की यह बात भारत और रूस खुले-आम कहते| फिर भी यह तो स्पष्ट ही है कि दोनों राष्ट्रों ने खुद को भेड़-चाल से अलग कर लिया है| अफगानिस्तान के सवाल पर दोनों राष्ट्रों ने ‘बाहरी हस्तक्षेप’ को अवांछनीय बताया है| इसका इशारा अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों की तरफ है| इससे ज्यादा भारत और रूस क्या कर सकते है, हालॉंकि अमेरिका के मुकाबले अफगानिस्तान में उनके राष्ट्रहित कहीं अधिक रक्षणीय हैं| रूस ने यह मानकर कि भारत सुरक्षा परिषद्र का स्थायी सदस्य बनना चाहिए, अमेरिका पर करारा व्यंग्य कसा है, क्योंकि मैत्री के हजार दावों और नवीन समीकरणों की दुहाइयॉं देने के बावजूद अमेरिका ने भारत को सुरक्षा परिषद्र के लिए अभी तक सुपात्र घोषित नहीं किया है| इसी तरह चेचन्या और कश्मीर पर एक-दूसरे का समर्थन करके रूस और भारत ने अपने संबंधों को एक नए धरातल पर खड़ा कर दिया है| इस यात्रा के दौरान हुए पारस्परिक सहयोग के दस समझौते इस नए धरातल को अधिक सार्थक और सुदृढ़ बनाऍंगे| ख्रुश्चौफ और ब्रेझनेव का ज़माना तो अब लौटने से रहा लेकिन भारत-रूस जुगलबंदी के नए स्वरों को अनसुना नहीं किया जा सकता|
अमेरिका के साथ भारत अपनी दोस्ती बढ़ाना चाहता है, इसमें शक नहीं लेकिन वह उसका बगलबच्चा नहीं बनना चाहता, इसका प्रमाण यह तथ्य भी है कि इस बार प्रधानमंत्री वाजपेयी रूस के साथ-साथ ताजि़किस्तान और सीरिया भी गए| इस समय मध्य एशिया के सभी पूर्व-सोवियत राष्ट्रों में ताजि़किस्तान रूस के काफी नज़दीक है और भारत वहॉं अपना सैनिक अड्डा भी स्थापित कर रहा है| जहॉं तक सीरिया का सवाल है, एराक़ी-संकट के दौरान वह अमेरिका के पॉंव में कॉंटे की तरह चुभता रहा है| यदि भारत के कॉंटे पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाने में अमेरिका को कोई संकोच नहीं तो अमेरिका के कॉंटे सीरिया से भारत अपने संबंध क्यों न बढ़ाए ?
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