नया इंडिया, 8 मई 2014 : सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के पांच जजों ने बच्चों की शिक्षा के माध्यम पर एक एतिहासिक फैसला दिया है। यह फैसला कर्नाटक सरकार के 1994 के उस नियम के विरुद्ध दिया है, जिसके अनुसार कर्नाटक की समस्त प्राथमिक शालाओं के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि पहली से पांचवीं कक्षा के बच्चों को या तो वे कन्नड़ में पढ़ाएं या उनकी मातृभाषा में! यदि वे किसी अन्य भाषा को बच्चों की पढ़ाई का माध्यम बनाएंगी तो उनकी मान्यता समाप्त कर दी जाएगी। यह नियम अल्पसंख्यकों के स्कूलों पर भी लागू होता है।
पिछले साल दो जजों ने कहा था कि यह मामला इतना महत्वपूर्ण है कि इसे जजों की बड़ी संवैधानिक पीठ को तय करना चाहिए। इन जजों का कहना यह है कि बच्चों को उनकी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से पढ़ाना वैज्ञानिक है और इससे वे हर बात जल्दी और आसानी से सीखते हैं। लेकिन यह बिल्कुल अनुचित है कि यदि कोई स्कूल मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से न पढ़ाए तो उस स्कूल की मान्यता रद्द कर दी जाए। जजों का कहना है कि वास्तव में यह किसी भी व्यक्ति और संस्था के मूलभूत अधिकार के विरुद्ध है। जो जिस भाषा को पसंद करे, वह उस भाषा में पढ़ाए।
व्यक्ति-स्वातत्र्य के हिसाब से अदालत का यह तर्क ठीक मालूम पड़ता है लेकिन इस तर्क की आड़ में देश के करोड़ों बच्चों का गला घोटा जा रहा है और उनके अभिभावकों की जेब काटी जा रही है, क्या यह उनकी स्वतंत्रता का हनन नहीं है? यह जानते हुए कि छोटे बच्चोें के लिए विदेशी भाषा के माध्यम से किसी विषय को पढ़ना बेहद कठिन होता है। उससे उनकी बुद्धि और मौलिकता कुंद होती है। उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। इसके बावजूद अंग्रेजी को भाषा और माध्यम के तौर पर अनिवार्य करना क्या भारतीयों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? क्या ही अच्छा होता कि सर्वोच्च न्यायालय शिक्षा में से अनिवार्य अंग्रेजी को गैर-कानूनी घोषित करता। यदि कोई स्वेच्छा से कोई भी विदेशी भाषा पढ़ना चाहे तो पढ़े।
कर्नाटक के मामले में अदालत का फैसला हमारी समझ में बिल्कुल नहीं आया। छोटे बच्चों के लिए या तो मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा ही माध्यम हो सकती है। यदि कर्नाटक के छोटे बच्चों को उन दो भाषाओं के अलावा यदि हिंदी या उर्दू या अंग्रेजी या फ्रांसीसी में कई विषय पढ़ाए जाएंगे तो क्या यह उन पर अत्याचार नहीं होगा? और फिर कुछ बच्चों के माता-पिता हर जिले में ऐसी दुर्लभ सुविधा मांगेंगे तो राज्य सरकार उसका प्रबंध कैसे करेगी? हां, यदि कोई भाषायिक अल्पसंख्यक स्कूल अपनी भाषा को माध्यम बनाना चाहता है तो वह छूट उसे मिलनी चाहिए। उसकी मान्यता रद्द करना अनुचित है। यदि अदालत का फैसला ऐसे स्कूलों तक सीमित है तो ठीक है लेकिन वह बाल-शिक्षा में क्षेत्रीय भाषा और मातृभाषा का अवमूल्यन करता है तो उस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
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