09 अप्रैल 2002 : ईसा को शांति का मसीहा माना जाता है| उनके जन्म-स्थान बेथलेहम का आज क्या हाल है ? दुआ के लिए उठे हाथों की बजाय आज बेथलेहम पर बंदूकें तनी हुई हैं और ‘चर्च ऑफ नेटिविटी’ पर बम बरस रहे हैं| सिर्फ ईसाइयों के गिरजे ही नहीं, यहूदियों के सिनेगॉग और मुसलमानों की मस्जिदें भी रक्त-स्नान कर रही हैं| तीसरी दुनिया के हरे तोते यासर अराफात को पिंजरे में बंद कर दिया गया है| फलस्तीनियों का यह राष्ट्रपति अपने ही घर में कैदी बना दिया गया है| फलस्तीन के गाँवों और शहरों में सैकड़ों शव सड़ रहे हैं| उन्हें कोई उठानेवाला नहीं है| दफनानेवाला नहीं है| हर नुक्कड़, हर मोहल्ले, हर गली, हर चौराहे पर इस्राइली टैंक डटे हुए हैं| ऊपर से मौत का छितराव करते हुए हेलिकॉप्टर सारे फलस्तीन पर चक्कर लगा रहे हैं| बुश, ब्लेयर, यूरोपीय संघ और भारत जैसे देशों की गुहार कौन सुन रहा है ? इस्राइली प्रधानमंत्री का नाम एरियल शेरों है लेकिन वे बिल्कुल ‘अडि़यल’ हो गए हैं| वे कहते है कि वे यासर अराफात को सिर्फ एकतरफा टिकिट दे सकते हैं ताकि वे सदा के लिए फलस्तीन छोड़ दें| वापस नहीं लौटें| वे अराफात की बजाय किसी और नेता को ‘डमी’ बनाकर बात करना चाहते हैं|
क्या बात करेंगे, शेरों ? यह वही शेरों हैं, जिन्होंने रक्षा मंत्री के तौर पर सितंबर 1982 में सब्रा और शेतीला के शराणार्थी शिविरों को तबाह कर दिया था, लेबनान पर हमला बोल दिया था, और इस्राइली फौज के मेजर के तौर पर 1953 में जोर्डन के गाँव किब्या को नेस्तनाबूद कर दिया था| सितंबर 2000 में इन्हीं शेरों की हरम-अल-शरीफ की यात्र के बाद डेढ़ हजार से ज्यादा फलस्तीनी मौत के घाट उतरे हैं और अब यही शेरों प्रधानमंत्री के तौर पर कह रहे हैं कि जब तक फलस्तीनियों को पीट-पीटकर उनमें भूसा न भर दिया जाए, वे आतंकवाद से बाज़ नहीं आएँगे| बुश के दबाव के कारण उन्होंने चाहे दो गाँवों से फौजों की वापसी शुरू कर दी है लेकिन आतंकवाद-विरोध के नाम पर आज वे जो कर रहे हैं, वह मोशे दयान, और गोल्डा मायर ने भी नहीं किया| यह ठीक है कि फलस्तीनी आतंकवादियों ने बहुत ही गलत वक्त पर अपने आत्मघाती दस्ते भेजे| योम किप्पूर के बाद ‘पास ओवर’ यहूदियों का सबसे पवित्र् त्यौहार होता है| उस दौरान निहत्थे नागरिकों को आतंक का शिकार बनाने की हिमाकत बेहद घिनौनी है| 1973 में योम किप्पूर के दिनों में छेड़खानी करने का मज़ा पूरा अरब-जगत चख चुका था| पूरा युद्घ झेलने के बाद भी आतंकवादियों ने कोई सबक नहीं सीखा| अब मार्च में त्यौहार मनाते हुए यहूदियों को अपना निशाना बनाकर आतंकवादियों ने सम्पूर्ण फलस्तीनी राज्य के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है| उनकी मूर्खता के कारण बेकसूर फलस्तीनी सैकड़ों की संख्या में मारे जा रहे हैं| फलस्तीनी राज्य अपनी शैशव अवस्था में ही लकवाग्रस्त हो गया है| उसके सरकारी दफ्तर, पुलिस थाने, अस्पताल, स्कूल, घरबार, बाज़ार–सब कुछ ठप्प हो गए हैं| तीस लाख फलस्तीनियों का देश विशाल शराणार्थी शिविर में बदल गया है| सुरक्षा परिषद् ही नहीं, सारी दुनिया इस्राइली कार्रवाई का विरोध कर रही है लेकिन यह केवल जबानी जमा-खर्च है| इस्राइल-विरोध मुँह से उठ रहा है या दिल से, कोई नहीं बता सकता, क्योंकि 11 सितंबर ने सारी दुनिया में ऐसा माहौल खड़ा कर दिया है कि आतंकवाद का मुकाबला करने के नाम पर यदि आप मच्छर की जगह हाथी को भी मार दें तो कोई क्या बोलेगा ? यही वजह है कि प्रधानमंत्री शेरों तमंचा चलाने की जगह तोप चला रहे हैं और उनका बाल भी बाँका नहीं हो रहा है| क्या आत्मघाती दस्तों ने इस्राइली यहूदियों पर पहली बार हमला बोला है ? क्या इस तरह का आतंकवाद इस्राइल मे आए दिनों नहीं होता रहता है ? क्या चालीस लोगों की मौत इस बात की इजाज़त देती है कि आप चालीस लाख लोगों की जिन्दगी को नरक में तब्दील कर दें ? अपने जवाबी-आतंकवाद को सही ठहराने के लिए शेरों को किसी तर्क की जरूरत नहीं है| क्या बुश ने तालिबान को खत्म करते वक्त कोई तर्क दिया था ? ट्रेड टॉवर को गिराने में तालिबान का क्या हाथ था, यह आज तक पता नहीं चला लेकिन उन्हें तालिबान को खत्म करना था, इसलिए उन्होंने 11 सितंबर का बहाना बनाया, उसामा बिन लादेन का बहाना बनाया और तालिबान को खत्म कर दिया| यह तो अच्छा ही हुआ लेकिन बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभानआल्लाह ! शेरों तो बुश से भी एक कदम आगे निकल गए| उन्होंने अराफात को उसामा बिन लादेन बना दिया| उन्हें फलस्तीनी आतंकवाद की जड़ घोषित कर दिया और उनके उन्मूलन पर कमर कस ली| शेरों यह जानते हैं कि अराफात उसामा नहीं है| अगर उन्होंने अराफात की हत्या कर दी तो उन्हें और उनके सरपरस्त अमेरिका को दर्जनों 11 सितंबरों के लिए तैयार हो जाना पड़ेगा| वे मरजीवड़ों को जिन्दा रहने से तो रोक सकते हैं, मरने से नहीं रोक सकते| हजारों अरब नौजवान अपनी जान की बाजी लगाकर अराफात का बदला लेंगे| यही भय शेरों को रोके हुए है|
अराफात की हत्या और प्रधानमंत्री यित्जहाक राबिन की हत्या में बहुत फर्क है| 1993 के ओस्लो समझौते पर राबिन और अराफात, दोनों ने हस्ताक्षर किए थे| ओस्लो समझौता करने की सज़ा राबिन को दी गई लेकिन राबिन के बाद भी ओस्लो-भावना जिन्दा रही| उसे नए प्रधानमंत्री शिमोन पेरेज़ ने जिलाए रखा और यह असंभव नहीं कि शेरों के बाद के प्रधानमंत्री इस बुझती हुई बाती में दुबारा तेल डालने की कोशिश करें लेकिन अराफात अगर लुप्त हो गए तो आगामी कई वर्षों तक ओस्लो-भावना का झंडाबरदार खोजना मुश्किल हो जाएगा| इस्राइल की तरह फलस्तीन अभी पूरी तरह राज्य नहीं बना है| उसका जनमत मुखर नहीं है| उसका राज-तंत्र् परिपक्व नहीं है| अराफात जैसे नेता के अभाव में फलस्तीनी क्रोध का सैलाब पता नहीं कहाँ-कहाँ से फूटेगा और क्या-क्या रूप धारण करेगा| ओस्लो-भावना का तो समूलोच्छेद हो ही जाएगा, अरब-इस्राइल संबंध पचास साल पीछे चले जाएँगे| परमाणु बमों के युग में ऐसा खतरा मोल लेना कहाँ की बुद्घिमानी है ? इस्राइल के पास परमाणु बम जरूर है कि लेकिन फलस्तीनी आतंकवादियों के पास ऐसे दर्जनांे स्रोत हैं, जहाँ से वे बम प्राप्त कर सकते हैं| क्या प्रधानमंत्री शेरों 21वीं सदी के नए सत्यों को समझने का कष्ट नहीं करेंगे ? 16 साल की जो लड़की अपनी कमर पर बारूद बाँधकर जान दे सकती है, वह परमाणु बम लेकर तेल अवीव में क्यों नहीं घुस सकती या बेथलेहम में ही आत्मदाह क्यों नहीं कर सकती ? कि्रया पर प्रतिकि्रया जरूर होती है लेकिन अंतिम कि्रया हो, यह जरूरी नहीं है| शेरों अंतिम कि्रया की तैयारी में जुटे हुए हैं|
अराफात तो बहाना है| शेरों चाहते हैं कि जोर्डन नदी से समुद्र तट तक सम्पूर्ण फलस्तीनी भूमि पर इस्राइल का एक छत्र् राज्य हो| यदि 30 लाख फलस्तीनी इस क्षेत्र् में रहना चाहते हों तो अनागरिकों की तरह रहें, औपनिवेशिक गुलामों की तरह रहें, यहूदियों के महलों की बीच अपनी झोपडि़यों में पड़े रहें| न फलस्तीनियों का कोई राज्य हो, न तीस लाख शरणार्थी वापस लौटें और न ही इस्राइल के वर्चस्व पर कभी कोई प्रश्न-चिन्ह लगाए| नेतनयाहू और शेरों जैसे प्रधानमंत्रियों ने अपनी इस दिव्य-दृष्टि का प्रेरणा-स्रोत जईव जाबोतिन्स्की को बताया है, जिन्होंने कई दशक पहले यह जरूर कहा था कि अरब जगत की छाती पर लोहे की एक मजबूत दीवार खड़ी किए बिना न तो इस्राइल का निर्माण हो सकता है और न ही रक्षा हो सकती है लेकिन इस्राइल के वर्तमान नेता यह भूल गए कि जाबोतिन्स्की ने यह भी कहा था कि लोहे की चहारदीवार खड़ी करने के बाद इस्राइल को फलस्तीनियों से बात करनी होगी| उन्हें उनके अधिकार देने होंगे| जाबोतिन्स्की की बात के इसी अगले चरण का मूर्तिमन्त रूप था-ओस्लो समझौता, जिसमें फलस्तीन की भूमि पर दोनों राज्यों-इस्राइल और फलस्तीनी राज्य को-रहने के अधिकार को मान्यता मिली और सह-अस्तित्व की प्रकि्रया को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने का संकल्प किया गया| इस संकल्प की सफलता का प्रमाण क्या यह नहीं था कि प्रधानमंत्री राबिन और अराफात ने एक ही पायदान पर खड़े होकर इस समझौते पर दस्तखत किए, सिर्फ एक साल बाद ही जोर्डन के शाह के साथ इस्राइल ने शांति-संधि की, केवल तीन साल में ही पंद्रह अरब राज्यों ने इस्राइल को मान्यता दे दी, अरब लोगों ने इस्राइल पर से प्रतिबंध उठाने शुरू कर दिए, 1967 के युद्घ में कब्जाए गए स्थानांे पर से यहूदी बस्तियों को हटाने की योजनाएँ शुरू हो गइंर् तथा फलस्तीनी राज्य नामक संस्था एक ठोस आकार की तरह उभरने लगी| इसके पहले कि ये दो पड़ौसी राज्य शांति की राह पर कुछ कदम आगे बढ़ते, शेरों ने अपनी नादिरशाही तलवार खींचकर म्यान के बाहर निकाल ली है| यदि अमेरिका इस तलवार को तुरन्त म्यान में नहीं डलवा पाया तो इस बार सचमुच विश्व-शांति खतरे में पड़ सकती है| सिर्फ इस्राइली फौजों का वापस लौटना काफी नहीं है| जरूरी यह है कि ओस्लो-भावना की वापसी हो|
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