दैनिक भास्कर, 29 मार्च 2014: इस समय नरेंद्र मोदी एक मजबूरी बन गए हैं। जो लोग मोदी से नफरत करते हैं, वे भी मानने लगे हैं कि मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनने से कोई ताकत रोक नहीं सकती। जो लोग मोदी को कभी ‘मौत का सौदागर’ बोलने में गर्व का अनुभव करते थे, वे अब उस मुहावरे का इस्तेमाल नहीं करते। इस मुहावरे से उन्हें परहेज हो गया है। जो अफसर मोदी के विरुद्ध झूठी-सच्ची गवाहियां देने को उतावले रहते थे, अब उनकी भी कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती। इन लोगों की राय में इतना फर्क कैसे आ गया? ऐसा क्या हुआ है कि मोदी-विरोधी सभी ताकतें ठंडी पड़ती जा रही हैं?
इसकी वजह साफ है। मोदी का नशा सारे देश पर छाता जा रहा है। वे जम्मू-कश्मीर में जाएं, केरल में जाएं, पंजाब में जाएं या असम में जाएं, उनकी सभाओं में बेहिसाब भीड़ होती है। इतनी भीड़ महत्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को देखने के लिए तो जरूर होती थी, लेकिन नेहरू के बाद किसी प्रधानमंत्री को लेकर इतनी उत्सुकता कभी नहीं देखी गई और मोदी तो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ही हैं। 1971 में इंदिरा गांधी को 352 सीटें मिलीं। जाहिर है कि इस बार मोदी को इतनी सीटें नहीं मिल सकतीं, लेकिन मोदी की सभाओं में भीड़ और भीड़ का उत्साह देखें तो लगता है, हम 2014 में 1971 से काफी आगे निकल चुके हैं।
इंदिरा गांधी तो 1971 का चुनाव लडऩे के पहले ही चार साल तक प्रधानमंत्री रह चुकी थीं और उसके भी पहले से सारे भारत में उनका नाम फैल चुका था। इसके अलावा कांग्रेस की फूट ने उन्हें एक दबदबेदार नेता की तरह उभार दिया था। 1971 तक वे देश में बड़े-बड़े नेताओं को सबक सिखाकर नेताओं की नेता बन चुकी थीं। वे नरेंद्र मोदी की तरह सिर्फ प्रांतीय नेता भर नहीं थीं। मोदी अपनी गुजरात की मांद में से निकलकर सारे देश में इस तरह दहाड़ रहे हैं, मानो वे पहले से जमे हुए कोई अखिल भारतीय नेता हों।
यह ठीक है कि आजकल टेलीविजन का जमाना है। तिल को ताड़ बनाना एंकरों के बाएं हाथ का खेल है, लेकिन इस रूपवाहिनी के परदे तो सभी नेताओं को उपलब्ध हैं। क्या बात है कि मोदी के एक-एक घंटे के भाषणों को कई चैनल जस का तस धाराप्रवाह प्रसारित करते हैं और रोज करते हैं? यदि उनकी टीआरपी घटी होती तो वे कतई प्रसारित नहीं करते। सच्चाई तो यह है कि गुजरात के मुख्यमंमत्री का मजाक उड़ाने वाले और निंदा करने वाले चैनलों के कार्यक्रमों की टीआरपी घटती जा रही है। अब इन चैनलों को अपने धंधे की चिंता तो हो ही रही है, अपनी प्रतिष्ठा की भी चिंता है।
इसीलिए आजकल भारत के समाचार-तंत्र या खबरपालिका की भूमिका काफी संतुलित हो गई है। वह जनता के मूड को जस का तस दिखाने के लिए मजबूर है। यही मजबूरी अखबारों की भी हो गई है। जो अंग्रेजी अखबार कल तक राहुल गांधी को 21वीं सदी का नया राजदूत बता रहे थे, उनके किस कोने में आजकल राहुल की खबर छपती है, पता ही नहीं चलता। अब इस बदलाव को क्या संज्ञा दे, यह व्यक्तिगत नजरिये का सवाल है।
यही हाल भाजपा का है। कुछ पत्रकार लिख रहे हैं कि भाजपा तो मोदी के साथ नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनका डटकर समर्थन कर रहा है, क्योंकि उनसे बढिय़ा हिंदुत्व का प्रवक्ता भाजपा में कौन है? यह ठीक है कि भाजपा में आज आधा दर्जन नेता ऐसे हैं, जिनके सीने में प्रधानमंत्री का पद धड़क रहा है। इसमें भी शक नहीं है कि कुछ नेताओं को मोदी से अधिक अनुभव है और उनका राजनीतिक जीवन भी निष्कलंक रहा है। वे मोदी की तरह विवादग्रस्त भी नहीं रहे हैं। यह भी ठीक है कि उनकी तरह मोदी को केंद्र में शासन का भी अनुभव नहीं रहा है तो फिर ऐसी क्या मजबूरी हुई कि उन्होंने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान लिया? क्यों वे प्रधानमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को दिल में दफन करने पर राजी हो गए?
सिर्फ लालकृष्ण आडवाणी बिगड़ गए, लेकिन वे भी बाद में मान गए! अब तो उन्होंने भोपाल से लडऩे का आग्रह भी छोड़ दिया। एक अन्य वरिष्ठ नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी थोड़ी-सी नाराजी दिखाकर वाराणसी से कानपुर चले गए। अटलजी के पुराने सिपहसालार जसवंत सिंह की गुहार कोई क्यों नहीं सुन रहा? उत्तरप्रदेश में टिकट बांटने के लिए मोदी के प्रतिनिधि अमित शाह को खुर्राट नेताओं ने चौधरी क्यों मान लिया? क्या वजह है कि आजकल होनेवाली सभी बड़ी चुनाव सभाएं मोदी अकेले ही संबोधित कर रहे हैं? वहां सुषमा स्वराज, लालकृष्ण आडवाणी या डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपा के धुरंधर नेता दिखाई ही नहीं पड़ते? चुनाव सभाओं में मंच बड़े नेताओं से गुलजार हो तो ही अच्छा लगता है।
यह ठीक है कि उन्हें अपना-अपना चुनाव-क्षेत्र संभालना है, लेकिन मोदी को तो अपने दो-दो चुनाव क्षेत्र संभालने हैं। इन सब नेताओं ने मोदी को अपना नेता माना, यह इनकी मजबूरी थी। इन्होंने देख लिया कि सारे देश में मोदी की लहर है। वे इस लहर के विपरीत कैसे तैर सकते थे? लहर के विपरीत तैरने का इन बुजुर्गों में साहस कहां? इस लहर का सम्मान करना लोकतंत्र का सम्मान करना है। उन्हें पता है कि मोदी एक नाव बन गए हैं। इस नाव पर वे सवार हो गए तो वे भी पार हो जाएंगे। यदि वे अपनी डुगडुगी पीटते रहे तो वे कहीं के भी नहीं रहेंगे।
जहां तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रश्न है, मोदी उसकी भी मजबूरी रहे हैं। शुरू में संघ भी मोदी की पीठ ठोकने को तैयार नहीं था, क्योंकि संघ अपने स्वयंसेवकों को तो गर्व की दृष्टि से देखता है, लेकिन उसमें जो स्वयंभू होने लगते हैं, उनके प्रति उसकी अरुचि-सी हो जाती है, लेकिन उसे भी अपना यह नजरिया बदलना पड़ा। हालांकि, उसे एक तो मोदी के बर्ताव में फलदार वृक्ष की तरह सभ्यता नजर आई और दूसरा, संघ ने देखा कि जहां भी वह नजर दौड़ाता, उसे मोदी ही मोदी दिखाई पड़ रहे थे। उसके पास मोदी के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
असल बात तो यह है कि केंद्र में यूपीए-2 की मौजूदा ‘बाबू सरकार’ और ‘बबुआ नेतृत्व’ का मोदी के अलावा आज कोई विकल्प नहीं है। भारत आज किसी नेता की तलाश में नहीं है। वह 10 साल के भ्रष्टाचार और अत्याचार से इतना तंग आ गया है कि वह सिर्फ एक विकल्प की तलाश में है। इसमें दो मत नहीं कि वह विकल्प उसे मोदी में नजर आ रहा है। देश की जनता कांग्रेस से खिसिया गई है। खिसियाई हुई जनता अगर मोदी को ला रही है तो उन्हें जरूरत से ज्यादा सावधान रहना होगा। मोदी कहीं यह न समझ बैठें कि वे एक महान नेता हैं। उन्हें चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद भी काफी नम्रता से पेश आना होगा। उन्हें पता होना चाहिए कि वे मजबूरी की संतान हैं। यदि वे इस सत्य को भूल गए तो जनता का उच्चाटन भी उतना ही तीव्र और कटु होगा जितना कि उसका सम्मोहन गहरा और व्यापक है।
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