नया इंडिया, 9 नवंबर 2013 : दुनिया भर में हमारे जितने भी राजदूत हैं, उनका एक सम्मेलन दिल्ली में हर साल होता है। इस सम्मेलन में डा. मनमोहन सिंह को बोलने का मौका आखिरी बार मिला है। उन्होंने सोचा कि इस बार क्यों चूके? विदेश नीति के इतिहास में अपना नाम दर्ज क्यों न करवा दिया जाए? एक बार प्रधानमंत्री पद से गए कि फिर कहीं के नहीं रहेंगे। सो उन्होंने मौके का फायदा उठाया। उन्होंने कहा कि उन्होंने भारत की विदेश नीति को नए सांचे में ढाला है। इस नए सांचे में से निकली विदेश नीति के उन्होंने पांच सिद्धांत बताए हैं। पांच ही क्यों बताए? सात या तीन क्यों नहीं बताए? यदि कम-ज्यादा बता देते तो नेहरु के पंचशील से उनकी तुलना कैसे होती? किसी चाटुकार श्रोता ने इसे ‘मनमोहन सिद्धांत’ भी कह डाला। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा कि कुछ माह के लिए ‘गुजराल सिद्धांत’ चल पड़ा। ज़रा तुलना करें, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले इन दोनों सज्जनों की, इंदिराजी से! इंदिराजी ने विदेश नीति के क्षेत्र में जितने साहसिक काम किए, किसी अन्य प्रधानमंत्री ने नहीं किए। उनके नाम से तो एक क्या कई सिद्धांत चल सकते थे लेकिन उन्होंने अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना कभी पसंद नहीं किया।
मनमोहनजी के पांचों सिद्धांत इतने घिसे-पिटे और लचर-पचर हैं कि दुनिया का कोई भी देश उन्हें अपनी विदेश नीति का आधार बता सकता है। इसलिए उनकी विस्तृत विवेचना यहां अनावश्यक हे। बस इतना जानना काफी है कि उन्होंने जो भारत-अमेरिका परमाणु सौदा संपन्न किया था, वही उनके नए सांचे का एक मात्र प्रसाद है। यह ऐसा प्रसाद है, जिसे पाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने सांसदों को सरे-आम रिश्वत खिलाने से भी संकोच नहीं किया था। इस सौदे में से निकला क्या? पांच साल पूरे होने को हैं, अभी इसके लागू होने की शुरुआत भी नहीं हुई है। पाकिस्तान और चीन से भारत के संबंधों में कोई खास उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। पाकिस्तान की नवाज़ शरीफ सरकार से संबंध सुधरने की आशा थी लेकिन उस पर भी पानी फिर गया है। नेपाल, बर्मा और मालदीव में भारत की भूमिका नगण्य-सी है और मनमोहन-सिद्धांत महाशक्तियों के साथ पींगें भरने की डींगे मार रहा है। अफगानिस्तान से अगले साल अमेरिकी वापसी के बाद क्या होगा, भारत को कुछ पता नहीं! प्रधानमंत्रीजी ने पहले एस एम कृष्णा को विदेश मंत्री बना दिया था, जिन्होंने दुनिया की सैर डटकर की और जो संयुक्त राष्ट्र में किसी अन्य विदेश मंत्री का भाषण अपने भाषण की जगह पढ़ डालने के लिए विख्यात हो गए। स्वयं प्रधानमंत्री आजकल अपनी स्वदेश नीति से इस कदर उकता गए हैं कि वे सारा जोर विदेश नीति पर लगा रहे हैं। हर दो-चार हफ्ते में वे किसी न किसी देश का चक्कर लगा आते हैं। ठीक भी है, वे सब देशों को अपना विदाई-संदेश वहां जाकर दे रहे हैं। जिनका आदेश नहीं चलता, क्या वे संदेश भी न दें। जिस प्रधानमंत्री की विदेश नीति को उसके मुख्यमंत्री डिगा सकते हैं, उसके संदेश को भी विदेशी नेता कितने ध्यान से सुनेंगे?
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