दैनिक भास्कर, 17 अगस्त 2013 : मोदी के भाषण में भावी भारत की कोई महान कल्पना नहीं थी और देश को खाए जा रही भयंकर समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान भी नहीं था। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि एक विरोधी नेता के नाते उन्होंने प्रधानमंत्री की जमकर खबर ली।
हर स्वाधीनता-दिवस पर प्रधानमंत्री लाल किले से भाषण देते हैं और सभी मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में जनता को संबोधित करते हैं। लेकिन यह 67वां स्वतंत्रता-दिवस देश के इतिहास में अजूबा बन गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री लाल किले से बोलें और कहीं से कोई अन्य नेता बोले और उन दोनों की तुलना होने लगे। प्रधानमंत्रियों के लाल-किला भाषणों की प्रशंसा और आलोचना तो पहले भी होती रही है लेकिन यह पहली बार है कि भाषणों की ही नहीं, भाषणकर्ताओं की भी तुलना होने लगे। वह भी ऐसी कि जिसमें एक प्रधानमंत्री के मुकाबले एक मुख्यमंत्री को खड़ा कर दिया जाए।
मनमोहनसिंहजी के मुकाबले आखिर नरेंद्र मोदी खड़े कैसे हो गए? देश के विभिन्न टीवी चैनल कोई भाजपा या गुजरात सरकार के मातहत तो नहीं हैं! वे यदि नहीं चाहते तो उन्हें मोदी का जीवंत भाषण प्रसारित करने के लिए क्या कोई मजबूर कर सकता था? उन्होंने स्वेच्छा से मोदी का पूरा भाषण, जो प्रधानमंत्री से डेढ़ा लंबा था, लगातार प्रसारित किया और वे दिन भर दोनों भाषणों की तुलना करते रहे। क्यों करते रहे?
यदि मोदी पर ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेलीÓ की कहावत लागू होती तो मनमोहन के आगे मोदी सवाए ही नहीं, डेढ़े क्यों पड़ते? मोदी के संदर्भ में ‘तेलीÓ शब्द के प्रयोग का अर्थ जातिपरक और अपमानजनक भी है लेकिन उस पर ध्यान न भी दें तो भी यह मानना पड़ेगा कि देश के खबरतंत्र ने मोदी को हाथों-हाथ उठा लिया? आखिर क्यों? खबरतंत्र ने इस यथार्थ को समझ लिया था कि देश के करोड़ों लोग मनमोहन से ज्यादा मोदी को सुनना चाहते हैं। उन्हें अपनी टीआरपी का ख्याल रखना था। मुख्यमंत्री तो सभी बोले लेकिन क्या मोदी के अलावा किसी भी चैनल ने किसी को 10 मिनिट भी दिए?
यह तर्क बड़ा बोदा है कि प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता-दिवस के भाषण को राष्ट्रीय भाषण मानकर चुपचाप सुन लिया जाना चाहिए। क्यों सुन लिया जाना चाहिए? जरा इतिहास के पन्नों को पलटकर देखिए। नेहरू, इंदिरा गांधी, मोरारजी, चरणसिंह और अटलजी तक के लाल-किला भाषणों की विरोधी नेताओं ने न केवल जमकर आलोचना की है बल्कि मज़ाक भी उड़ाया है। लाल-किले का भाषण शुद्ध राजनीतिक होता है। उसमें खट्टा-मीठा, धूप-छांह, बचाव-हमला, आशा-निराशा, प्रेरणा-संवेदना सब कुछ होता है। उसमें कभी मरहम और कभी तेजाब होता है।
करोड़ों लोग पहले रेडियो पर कान लगाए रखते थे और फिर टीवी पर आंख गड़ाए रखते थे लेकिन पिछले दस वर्षों से जो भाषण हो रहे हैं, वे निस्तेज, निष्प्राण और नीरस होते हैं। वह किसी राष्ट्र-नेता का भाषण नहीं होता है बल्कि किसी नौकरशाह की घिसी-पिटी उबाऊ रपट होती है। लाल-किले का ‘भाषणÓ झेलने की बजाय लोग बिस्तर में आराम करना ज्यादा पसंद करते हैं और जो लोग लालकिले पर जाते भी हैं उनमें से कई ऊंघते रहते हैं। लेकिन मोदी ने मौके को भुनाया। मोदी ने एक अ-भाषण के मुकाबले एक भाषण दे डाला। यह लाल किले का वैकल्पिक भाषण बन गया और मोदी वैकल्पिक प्रधानमंत्री!
यह ठीक है कि मोदी के भाषण में भावी भारत की कोई महान कल्पना नहीं थी और भारत को खाए जा रही भयंकर समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान भी नहीं था और न ही उनमें जनता को स्वधर्म के लिए उत्प्रेरित करनेवाला कोई मसीहाई अंदाज था। फिर भी यह तो मानना होगा कि एक विरोधी नेता के नाते उन्होंने प्रधानमंत्री की जमकर खबर ली। अपने भाषण में मोदी किसी गंभीर दृष्टिसंपन्न नेता की बजाय किसी उच्च कोटि के अखबार के चुटीले संपादकीय लेखक-जैसे मालूम पड़ रहे थे। दो नेताओं की नेतृत्व-क्षमता की तुलना के लिए गुजरात और भारत की तुलना भी आवश्यक नहीं थी। वह तो यों ही स्पष्ट है।
किसी भी प्रधानमंत्री के भाषण की कमियां रोचक ढंग से बता देने का काम तो कोई पत्रकार भी कर सकता है लेकिन इस समय हमें राष्ट्र-निर्माण का वैकल्पिक नक्शा चाहिए। गरीबी दूर कैसे हो, अमीर-गरीब का फासला कम कैसे हो, वंचितों को उचित अवसर कैसे मिलें, आतंकवाद से कैसे निपटें, सांप्रदायिकता कैसे घटे, सरकार जनता के प्रति जवाबदेह कैसे बने, विदेश नीति की चुनौतियों का सामना कैसे हो- ये वे प्रश्न हैं? जिनका उत्तर राष्ट्र अपने प्रधानमंत्री और उनके वैकल्पिक प्रधानमंत्री-दोनों से चाहता है।
अगर डॉ. मनमोहन सिंह इन प्रश्नों के जवाब दे सकते होते या उनके पास इनके जवाब होते तो उन्हें पूरे दस साल मिले थे। अगर समय काटना कोई ललित कला है तो इस कला के सबसे बड़े कलाकार मनमोहनसिंहजी ही कहलाएंगे। अपने इस समय के शून्य को वे आंकड़ों से भर रहे हैं। हमने दस साल में इतने प्रतिशत विकास किया, इतने स्कूल-कॉलेज बनाए, इतने लोगों को रुपए बांटे, इतनों को अनाज बांटनेवाले हैं-ये आंकड़े सही ही होंगे लेकिन आप यह क्यों नहीं बताते कि दुनिया के सर्वाधिक गरीब, अशिक्षित और सबसे ज्यादा भूखे-प्यासे लोग भारत में ही क्यों हैं?
आप जब इन अबूझ आंकड़ों की फुलझडिय़ां छोड़ते हैं तो लगता है कि आप देश के खाए-धाए मध्यम वर्ग के प्रवक्ता हैं, 120 करोड़ लोगों के नहीं। चीन और पाकिस्तान की ताज़ा कारस्तानियों से पूरा देश बजबजाया हुआ है। आपने संयम का परिचय दिया, यह तो कूटनीतिक दृष्टि से ठीक है लेकिन आप कुछ तो ऐसा बोलते कि जनता का रक्तचाप कम होता और पड़ोसी देशों के अनिष्टकारी तत्वों की रगों में कंपकंपी दौड़ती।
जिन मुद्दों पर इस समय सारा देश ‘ईमानदार प्रधानमंत्रीÓ से झपट पडऩे की उम्मीद करता रहा है, उन पर इस अंतिम भाषण में आपका मौन किस बात का सूचक है? क्या इसका नहीं कि उनका पूरा भाषण ही अराजनीतिक था। प्रधानमंत्री के इस अंतिम भाषण ने देश को यह संदेश दिया है कि वे स्वयं ही अराजनीतिक हैं। वे थक गए हैं। चाहे जो हो, इस स्वाधीनता दिवस पर हम गर्व कर सकते हैं कि ऐसे उदासीन नेतृत्व के बावजूद यह राष्ट्र थका नहीं है। वह अपनी ही शक्ति से आगे बढ़ रहा है और एक नए सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहा है।
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