नया इंडिया, 14 अक्टूबर 2013 : प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह शीघ्र ही चीन की यात्रा करने वाले हैं लेकिन चीनियों को इस बात का जरा भी लिहाज नहीं है। उन्होंने अरुणाचल प्रदेश की दो युवतियों को वीजा देने में फिर कोताही कर दी। उनके पारपत्र (पासपोर्ट) पर बाकायदा चीनी वीजा छापने की बजाए उन्होंने वीजा के कागज हाथ में पकड़ा दिए। ये दो अरुणाचली युवतियां –मासेलो मीहू और सोरांग यूपी-धनुर्धर हैं। इन दोनों को विश्व धुनर्धरी की प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए चीन जाना था लेकिन वे नहीं जा सकीं, क्योंकि उन्होंने जब हवाई अड्डे पर अपने पारपत्र पेश किए तो आव्रजन अधिकारियों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया।
यहां यह समझ में नहीं आया कि भारतीय आव्रजन अधिकारियों ने उन वीजा-पत्रों को अस्वीकार क्यों किया? वे कौन होते हैं, चीनी वीजा को रद्दक करने वाले? वीजा चाहे पारपत्र पर हो या कागज पर, उन्हें इससे क्या लेना-देना? हो सकता है कि यह खबर देने वाले रिपोर्टर ने कुछ गलती कर दी हो। उसने चीनी हवाई कंपनी के अधिकारियों की बजाए भारतीय आव्रजन अधिकारी लिख दिया होगा। चीनी अधिकारियों ने इस कागजी वीजा को अमान्य कर दिया, इसलिए शायद हमारी सरकार ने चीनी दूतावास को विरोध-पत्र भेजा है। यह भी हो सकता है कि विदेश मंत्रालय ने हमारे आव्रजन अधिकारियों को निर्देश दे रखा हो कि कागजी चीनी वीजा वे खुद रद्दव कर दें। यदि कुछ ऐसा ही हुआ है तो यह हमारी सरकार की मर्दानगी नहीं, मुर्दानगी का परिचायक है। वीजा रद्द होने से नुकसान किसका हुआ? हमारी भारतीय युवतियों का। वे चीन नहीं जा पाईं। अगर वे जाती तो शायद विश्व प्रतियोगिता जीत लेती। हमारी सरकार ने ही उनका अवसर मार दिया। यदि सरकार चीन के अक्खड़पन का जवाब देना चाहती थी तो क्या उसके पास यही तरीका बच रह गया है?
विदेश मंत्री द्वारा चीन को पत्र भिजवाना भी एक घिसा-पिटा और निरर्थक तरीका है। क्या विदेश मंत्री के पत्र का चीन पर रत्ती भर भी असर होगा? इससे बेहतर तो यह होता कि दोनो खिलाडि़यों को कागजी वीजा पर चीन जाने दिया जाता और चीन को चीनी अस्त्रों से ही जवाब दिया जाता़। कैसे दिया जाता? जैसे चीन भारत के अरुणाचल, लद्दाख और सारे जम्मू-कश्मीर को भारत का अंग नहीं मानता, वैसे ही आप भी सिंक्यांग, तिब्बत, भीतरी मंगोलिया, मंचूरिया आदि चीनी इलाकों को चीन का अंग मानना बंद कर दीजिए। वहां के नागरिकों को आप भी कागजी वीजा पकड़ा दीजिए। मैं यह नहीं कहता कि इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री अपनी यात्रा स्थगित कर दें या हम चीन से अपने संबंध खराब कर लें लेकिन क्या हम जैसे के साथ वैसा नहीं कर सकते? यदि हम यह भी नहीं कर सकते तो हमें यह कहने का क्या अधिकार है कि हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं? सरकार का यह दब्बूपना हमारी समग्र विदेश नीति पर हावी हो गया है। इस मामले पर सिर्फ अरुणाचल के नेताओं की प्रतिक्रिया आई है। हमारे अन्य सांसद क्या कर रहे हैं?
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